जब होश में आए तो जहां से गुजर गए
– तुम कितने प्रतिशत होश में रहते हो, बता सकते हो ?
– मैंने न कोई खरी-खोटी बात की, न कोई उल्टा-सीधा काम किया। स्वागत इनते मधुर वाक्य से कर रहे हो जो कोई सिरफिरा भी न करेगा। यह सवाल तो मुझे तुमसे पूछना चाहिए कि तुम कभी होश में रहते भी हो या नहीं।
– देखो, तुम मेरे कहे का बुरा मान गये परन्तु तुमने जो कहा उसका मैंने बुरा नहीं माना। जानते हो क्यों? क्योंकि यह सवाल मैंने तुमसे पूछा ही नहीं था। तुम्हारी आड़ लेकर अपने आप से पूछा था। या कहो, अपने को भी दांव पर लगा पर अपने पूरे समाज से पूछा था। जानते हो क्यों पूछा था? मुझे अपने युग का ही नहीं मानव त्रासदी का एक करुण अध्याय एक सदुपदेश के रूप में सुनने को मिला था और इसने मनुष्य की बौद्धिकता का वह पहलू उजागर किया कि मैं स्वयं हैरान रह गया।
– बूझे और जाने प्रश्नों को भी अनबूझ पहेली में बदलने की तुममे अद्भुत क्षमता है।
– मेरे एक मित्र और हितैषी से मुझे यह सलाह मिली कि मुझे अब अपनी एक एक पाई सिर्फ अपने पर और वह भी बहुत सोच विचार कर खर्च करनी चाहिए।
मैने पूछा एकाएक यह सत्परामर्श देने का विचार कैसे आया, तो उन्होंने बताया कि उन्होंने बच्चों की फर्माइशों को दरकिनार करते हुए उन्हें समझा दिया कि जब तक मैं जीवित हूं तब तक मेरे फंड और जमा में से एक दमड़ी न मिलेगी। अपनी चाहतें अपनी कमाई से पूरी करो। यह मेरा पैसा है और इसे कहां और कैसे खर्च करना है यह मैं तय करूंगा। मेरे मरने के बाद इसे तुम लोगों के बीच बांटने का हिसाब पढ़ने को मिल जाएगा। बच्चे सेवा सत्कार में लगे रहते हैं कि मेरे इच्छापत्र में उनका नाम जरूर आए। इस दूरदर्शिता के अभाव का उदाहरण पेश करते हुए वह हम दोनों के छात्रजीवन के एक परम प्रिय मित्र की करुण कथा सुनाने लगे।
– उसने जितनी तरक्की की उसके सामने तो तुम उससे तेज तर्रार होते हुए भी पत्थर कूटते रह गए। पर जानते हो उसके साथ क्या हुआ। सेवा निवृत्ति के साथ जो धन एकमुश्तत मिला तो उसके बेटे और बहू उसके साथ इतनी श्रद्धा से पेश आने लगे कि उसका उनके पहले के व्यवहार से कोई मेल नहीं बैठता था। पर सोचा बुढ़ापे में थकान, उदासी, एकाकीपन और व्याधियों के बदले में एक ही इनाम तो मिलता है बच्चों से सम्मान ।अभिभूत को गए। पैसा था ही, पेंशन मिलनी ही थी, निश्चिन्त थे, खुद सरकारी कार में ही चलते रहे, गाड़ी रखी ही नहीं, न गाड़ी चलाना सीखा। अब बच्चे का एक बड़ी गाड़ी चाहिए थी तो ले लें। पैसा आएगा किस काम। शान तो अब बच्चे की हैसियत से ही बनी रहनी है। जमा पैसे उनकी चाहतें पूरी करने में खत्म हो गए तो भी चिन्ता की बात नहीं। बहू जानती थी बाबू जी जितनी सही खरीदारी करते हैं वह न उससे हो सकता है, न उसके पति से। इसलिए बाबू जी सब्जी , दूध, राशन-पानी का वह काम संभालतें हुए भी प्रसन्न जो उनके सेवा काल में उनके मातहत किया करते थे। जितनी समझदारी से बाबू जी खरीदारी करते उतनी ही सधे हाथों माता जी खाना बना लेतीं। पहले वह बहू को हिदायत ही दिया करती थी, फिर हाथ भी बंटाने लगी फिर उनका हाथ का कमाल इतना पसन्द किया जाने लगा कि किसी दूसरे के हाथ का खाना खाने को मन ही न करता। बैठे बैठे जंग खाने से यह भी अच्छा ही था। पोता तो उनसे इतना हिला मिला कि उनके सिर नोचता तो भी उनहें रोमांच हो आता, उसे धुमाना, टहलाना, उसका हाथी घोड़ा बनना सब उत्फुल्ल कर जाता और कुछ बड़ा हुआ, तो उसे स्कूल बस तक छोड़ने और वापस लाने का काम उनका। आनन्द के भी कितने रूप होते हैं। इस आनन्द को पहला आघात पत्नी को सर्वाइकल की शिकायत के साथ नेपथ्य भाषित के रूप में मिला , ‘अरे यह सब बहानेबाजी है, काम से बचने के लिए।‘
– भाई की आंखों के आगे अंधेरा छ गया। पहली बार पता चला कि वह जो अपनी संतान के स्ने ह में करते चले जा रहे थे, वह उनसे कराया जा रहा था। और फिर स्नेह की मरीचिका समय पर चाय न मिलने, खाने की थाल के रखने के साथ पैदा होने वाली आवाज, दूध में पानी की मात्रा बढ़ते चले जाने आदि के साथ छंटती उस निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई कि कहा-सुनी में मायावरण के पूरी तरह हट जाने के बाद उन्हें पता चला कि वह अपनी पेंसन की पूरी रकम अपने घर-संसार पर खर्च करने के बाद भी वह अपने बच्चों पर बोझ बन चुके थे। इस निर्णायक क्षण में उन्होंने अपने घर से उन्हें निकल जाने का फर्मान जारी किया तो उनकी हद उनके कमरे तक बांध दी गई और उनके हिस्से में अपमान और अन्न एक में मिल कर पहुंचने लगे। अपने ही लड़के को – कितनी मनौतियों और आकांक्षाओं के बीच वह पैदा हुआ था पांच बहनों के बाद, सबसे छोटा पुत्र – घर से बेदखल करने का मुकदमा करने की नौबत तो आई ही, उनका सामान उनके कमरे से निकाल कर बाहर कर देने की नौबत आ गई। अब वह किराए के मकान में रहते हुए अपने ही मकान को पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं और पुत्र सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहा है कि उसने अन्त र्जातीय विवाह किया था जिसे उसके वर्णवादी पिता सहन नहीं कर सके और तभी से लगातार उन्हें सताने के हथकंडे अपनाते रहे हैं और अब यह आखिरी हथकंडा स्वयं किराए का मकान ले कर उन्हें अपने घर से बेघर करना चाहते हैं।
– न्यायालय बहुत गंभीरता से विचार कर रहा है। एक ओर समस्या एक वरिष्ठ नागरिक के सताए जाने और उसे उसकी ही संपत्ति से वंचित किए जाने की है और दूसरी ओर सामाजिक भेदभाव और वर्णवाद की है। ऐसी समस्या को बहुत गंभीर चिन्तन और न्याायदर्शन की जरूरत होती है इसलिए समय तो लगना ही है। यदि फैसला उनके जीवन काल में हो गया तो उन्हें मकान तो नहीं मिलेगा, मकान पाने के लिए बेलिफ, पुलिस को नए सिरे से कायल करना होगा कि मकान उनका ही है और नाजायज कब्जा जमाने वाले को सामान सहित बाहर फेंकने का अधिकार उन्हें है पर इसके लिए अपनी गांठ भी ढीली करनी होगी और जीवन भर का सिद्धान्त भी ढीला करना होगा फिर भी जो हाथ आएगा वह उनका मकान नहीं मकबरा होगा और यदि समस्या की गंभीरता ने इतना समय ले लिया कि फैसले से पहले वह स्वयं गुजर गए तो अपना घर परिवार रहते हुए भी वह यतीम की तरह मरेंगे और यदि उनकी पत्नी उसके बाद बची रही तो अन्तिम क्षणों में वेदना के कई आघातों के रूप में यमदूत उन तक पहुंचेंगे।
उसके उपदेश से अधिक वेधक था अपने उस मित्र के जीवन के अन्त की कल्पंना और उसकी व्यथा का अनुमान इसलिए उपदेश का सारसत्य मेरे सिर के उूपर से गुजरने वाला ही था कि उसने मुझे टोक दिया – इसीलिए कह रहा हूं, पचास से छत्ती स पर आ चुके हो। अब भी समय है। पुत्रेष्टि के बलिपशु मत बनो। बचा कर रखो। तुम्हारे अधिकार की संपत्ति उसके प्रत्याशियों से मिलते रहने वाले सम्मान का रूप लिए रहती है और उसमें कमी आने के साथ तुम्हारा सामाजिक और पारिवारिक मूल्य घटने लगता है और उसके खत्म होते ही तुम जीते हुए भी कई तरह की मौतों के शिकार हो जाते हो।‘
उसके इस सदुपदेश के साथ ही मुझे याद आया कि क्या हम जब जागते और सोचते विचारते रहते हैं, अपने अहम फैसले करते रहते है, तब भी क्या पूरे होश में रहते हैं। नहीं, यह भी याद आया कि हम अपनी समग्र मेधा के संभवत: दो तीन प्रतिशत और असाधारण विचक्षण लोगा पांच सात प्रतिशत का उपयोग कर पाते हैं, परन्तु क्या इस दो तीन या पांच प्रतिशत के भी दो तीन या पांच प्रतिशत का ही उपयोग ही हम अपने निर्णयों में नहीं करते हैं? तमी यह बेचैनी एक प्रश्न के रूप में उभरी कि क्या हम कभी अपने पूरे होश में रहते हैं, रहना चाहें तो रह सकते हैं, उनसे उत्पन्न चेतना तरंगों को झेल सकते हैं जिनकी संकुलता हमारी दशा तड़पते हुए घायल मृग जैसी हो जाती है और इसलिए लोक व्येवहार में इसे अपस्मार या हिस्टीरिया भी कहते हैं। हिस्टीरिया का अर्थ तुम्हारी समझ में आता होगा, मेरी समझ में नहीं आता, पर सोचता हूं हो सकता है इसका संबंध हिस्ट्री से, अर्थात् अतीत की स्मृतियों में विक्षोभ से हो, पर अपस्मार का अर्थ सोचने पर लगभग वही ठहरता है, स्मृति विचलन। और तक मुझे याद आया कि जितना क्षुद्र अंश हमें मेधा और स्मृति के रूप में मिला है क्या उसे संभालने की क्षमता हमारे भीतर है। हम दैनन्दिन व्यरवहार में किन किन की योजना, नीयत, खुराफात और बदकारी को समझ सकते हैं और हमारे संस्कार इसकी अनुमति भी देंगे क्या कि हम कांटे की तौल पर व्यवहार करते रह सकें। लगा बदहवाशी इन्सान को इन्सान बनाए रखने की, अपने को सन्तुलित बनाए रखने की पहली शर्त है। पूरे होश हवास के लिए एक ही कोना बचा रह गया है जिसे पागलखाना कहते हैं जहां कोई पागल नहीं रहता, सभी दूसरों को पागल समझते हैं और उस पागलखाने से मुक्ति के संघर्ष में इतनी अकल्पनीय चेष्टारएं करते हैं जिनका उदाहरण दे कर उन्हें होश में आने से रोका और कैद में बन्द रखा जाता है।