Post – 2016-05-01

आईने के सामने

– आदमी और रोबो में फर्क जानते हो ?

उसे मेरा वह फिकरा याद आ गया जिसमें मैंने उसके दिमाग को निकाल कर एक यंत्र भरने की बात कही थी इसलिए झट बोल पड़ा -आदमी का कोई भरोसा नहीं, वह कुछ भी कर सकता है, पर रोबो पर भरोसा किया जा सकता है। वह वही काम करेगा जिसके लिए उसे तैयार किया गया है।

– अन्तर कुछ और मामलों में भी है। रोबो में सूचनाएं भर दो तो भी वह सोच नहीं सकता, आदमी भुलक्कड़ होने और बहुत कम सूचनाएं होने के बाद भी सोचे बिना रह नहीं सकता । रोबो के पास न दिल होता है न दिमाग, इसलिए वह यह भी नहीं समझ सकता कि किन सूचनाओं का, किन मनुष्यों पर, कब, क्या प्रभाव पड़ता है।

वह मुस्कराने लगा।

मैंने लताड़ जारी रखी – तुम न अपने को जानते हो न दूसरों को फिर भी तुम्हा‍रे सामने एक सांचा है उसी में इन्सानों को पीस कर अपने अनुसार सही बनाना चाहते हो। पहले अपने काे जानो। जिन लोगों ने आत्मांनं विद्धि की चुनौती पेश की उनको भी इसके सभी पक्षों और उनकी व्याप्ति का पता नहीं रहा होगा। वे भी शायद यह न जानते रहे हों कि कुछ बातें इतनी आघात पहुंचाने वाली होती हैं कि उनको जानने और मानने से हम डरते हैं। कोई उनकी संभावना जताए तो लगता है वह हमारा अनिष्ट चाहता है। मेरे एक मित्र हैं जिनको अपने ज्योततिष ज्ञान पर बहुत भरोसा है और उनका अनुभव यह रहा है कि जब कुछ लोगों के अच्छे दिनों में उन्होंने कुछ अप्रिय घटनाओं की भविष्यवाणी की तो उन्होंने ज्योतिष शास्त्र की खिल्ली ही नहीं उड़ाई, उन्हें भी भला बुरा कहा। परन्तु आगे चल कर वे घटनाएं जब ठीक उसी रूप में घटित हुई तो भागे उनके पास आए और श्रद्धाभिभूत हो कर जिज्ञासाएं करने लगे।
– तुम ज्योतिष पर विश्वास करते हो?

– मैं अपनी बात नहीं कर रहा, उनकी बात कर रहा हूं।

– हमारा समाज दुनिया का सबसे सभ्य समाज रहा है और यह बात मैं भौतिक समृद्धि के कारण नहीं, मूल्यव्यवस्था के कारण कह रहा हूँ । इसे दसियों हजार साल से बहुत विकट आन्तरिक द्वन्द्वों और बाहरी दबावों से गुजरना पड़ा है जिसका तुम अनुमान तक नहीं कर सकते। और उसी प्रक्रिया में वह मूल्य व्यवस्था विकसित हुई थी जिसे तुमलोग नष्ट करने पर तुले रहे हो। ।

अभी तक वह चुपचाप हामी में सिर हिलाते हुए मेरी बात सुन रहा था, परन्तु इस वाक्य के साथ उसने व्यंग्य किया, ‘तुम ठीक कहते हो, आंख बंद कर लेने के बाद पूरी दुनिया ओझल हो जाती है, बचे रहते हैं हम, और हम भी अपनी आंखें मूंदे रहने के कारण अपने तक को देख नहीं पाते, सिर्फ मान लेते हैं कि हमी हम है, दूसरा कोई नहीं।‘

मैं हंसने लगा तो वह चिढ़ गया, ‘अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने का मुहावरा सुना है।‘

– सुना है, पर तुम तो मिया मिट्ठू का मतलब तक नहीं जानते होगे। जानते होते तो यह भी जानते होते कि कड़वी सचाइयों को मीठा बना कर कैसे पेश किया जाना चाहिए जिससे सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे, सचाई प्रकट भी हा जाय और किसी को क्लेश भी न हो।‘

-हमें खरी खरी कहने की आदत है। मिलावट पसन्द नहीं। तुम इतनी बड़ी बड़ी बातें क्यों कर बैठते हो मानो दुनिया का भूगोल ही पता न हो। किस आधार पर कह दिया कि हमारा समाज सबसे सभ्य रहा है। कोई कसौटी है परखने की।

– सभ्यता की कसौटी यह है कि कोई समाज कड़वी से कड़वी सचाई को जानने और सहने की कितनी शक्ति रखता है। यह ज्ञान ही उसके शाक एब्जार्वर का काम करता है। यही उसकी प्रतिरोधक्षमता को बढ़ाता है। और यही परदुखकातरता में भी परिणत होता है।

– इसी का तो हम अभाव देख रहे हैं। इसी को तो पैदा करना चाहते हैं पर कहते हैं न अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ।

– दुर्लभ लोगों द्वारा कहे और दुर्लभ जनों द्वारा सुने जाने वाले सत्य को सार्वजनिक करोगे तो उसके खतरे भी उठाने पड़ेंगे। इसलिए चिकित्सक कड़वी दवा को मधु के साथ सेवन की सलाह देते हैं कि कहीं कड़वाहट के कारण व्यक्ति ओषधि का वमन न कर दे। अंग्रेजी में भी शक्कर चढ़ी कड़वी दवा का मुहावरा चलता है। साहित्य और कला इसी सच को प्रेयस या सह्य बना कर पेश करते हैं, यदि ऐसा न कर पाएं तो उनको घटिया कलाकार मानना होगा। और यदि आहत करने के लिए ही सत्य को विषाक्त बना कर पेश किया जाय तो यह स्वत: अपराध है। तुम जिसे खरा कहते हो वह खरा नहीं, खुराफात है और उसने हमारी प्रतिरोध क्षमता को नष्ट किया है।

– मैने तो केवल यह जानना चाहा था कि तुम्हारा जिओ और जीने दो दूसरो को अपने ढंग से जीने और खाने पीने की छूट देता है या नहीं।

– छान्दोग्य उपनिषद में इन्द्रियों के बीच अपनी श्रेष्ठता को लेकर एक शक्तिपरीक्षण की कहानी आती है। वाणी, श्रुति, दृष्टि, मन, बुद्धि कोई किसी से कम तो है नहीं। सभी अपने को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने पर तुले हुए थे। निर्णय इस बात पर था कि क्या उनके बिना शरीर यात्रा संभव हो सकती है। वे एक एक कर शरीर से अपनी शक्ति वापस लेने लगे और पाया कि उनके बिना जीवन चल सकता है। अंधे, गूंगे, बहरे, नासमझ, विक्षिप्त सभी तो जीवित रहते हैं। एक एक कर अपना जोर आजमा कर वे शरीर में पुन: वापस आते गए। सबसे अन्त में प्राण की बारी आई, वह विदा होने लगा तो सभी ने हाथ खड़े कर दिए कि आप चले गए तो हम सभी मिट जाएंगे। प्राण ने कहा, चलो, यदि तुम मुझे सबसे श्रेष्ठ मानते हो तो मैं तुम सब को छोड़ कर नहीं जाता, परन्तु तुम सबके तो अपने आहार हैं, किसी का नाद तो किसी के शब्द, किसी के विचार, मेरा भी आहार तो निश्चित करो। सभी इन्द्रियों ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘कुत्ते से ले कर गिद्ध तक के जो आहार हैं वे सभी प्राण के अन्न है यह तो प्रकट ही है। जो इसे जान लेता है उसके लिए कुछ भी अखाद्य नहीं रह जाता ।

स होवाच किं मे अन्नं भविष्यति इति ? यत् किंचित् इदं आ श्वभ्य आ शकुनिभ्य‍ इति होचुस्तदा । एतद्य अनस्य अन्नं अनो ह वै नाम प्रत्यंक्षं न ह वा एवं विदि किंचित् अनन्नं भवतीति।

‘तुम कहना क्या चाहते हो, सड़ा गला, बासी, उच्छिष्ट सभी खाद्य हैं।‘

अनुभव तो यही बताता है कि प्राणरक्षा के लिए लोग कुछ भी खाने पर उतारू हो सकते हैं। प्राणिजगत में विविध जीव हमारे लिए अभक्ष्‍य का भी भोजन करते हैं ओर विवशता में भी में क्‍या खा सकते हैं इसकी कल्‍पना भी नहीं की जा सकती। अभी कुछ दिन पहले सुरंग के भीतर दबे फंसे कुछ मजदूरों ने एक दिन मिट्टी खा कर गुजर किया। उसके दो दिन बाद निकाले गए । मलिन, गलित का परहेज पेट में कुछ हो तभी संभव है। यह विचार तक कि मैं मर जाउूंगा परन्तु अमुक आहार ग्रहण न करूंगा उन्हीं के मन में पैदा हो सकता है जो जानते हैं कि वे चाहें तो उन्‍हें भोजन मिल सकता है। मर जाउूंगा पर अंग्रेजी दवा नहीं खाउंगा, मर जाउंगा पर मांसाहार न करूंगा, जैसे विचार भी भरे पेट के ही विचार है। लंबी क्षुधार्तता में मनुष्य क्या कर सकता है इसके अविश्वसनीय उदाहरण अकालों के विवरणों में मिल सकते हैं।‘

‘यह तो ठीक है पर तुम कहना क्या चाहते हो?’

’कहना केवल यह चाहता हूं कि कोई दूसरा अभाव और वर्जना की अपनी सीमाओं में क्या खायेगा, कैसे रहेगा इसका निर्णय हम नहीं कर सकते, यह निर्णय हम केवल अपने बारे में कर सकते हैं। हम आपत्ति तभी कर सकते हैं जब खुले आम या किसी छलावे से वह हमें वह भोजन करने को बाध्य करे जिसे हम अपने लिए वर्ज्य मानते हैं। जब इसकी राजनीति करने के लिए तुम बार बार इस तरह के सवालों को हिन्दू समाज को उद्विग्न करने के लिए उठाते हो तो इतने बड़े समाज में कुछ बावले तो हो ही सकते हैं जो इसे वह रंग दे दें जो दिलवाने के लिए तुम उन्हें उकसाते हो। यह तुम्हारी योजना है या उस सिपहसालार की योजना है कि हिन्दू समाज को उन संवेदनशील मुद्दों पर इस हद तक क्षुब्ध करते रहो कि यह सिद्ध किया जा सके कि हिन्दू मुसलिम समुदाय से कम असहिष्णु नहीं हैं। यह उस सोच का परिणाम है जिसमें आइ एस की तुलना वैदिक समाज से की जाती है और इस नासमझी से विश्व सभ्यता को संकट में डालने का प्रयत्न किया जाता है। तुम बताओ जब इस तरह के बयान आए थे तो तुमने उसकी आलोचना की? वह जिसे ऋग्वेद का नाम पता है और उससे आगे यह पता है कि उसे किसी भी कीमत पर गर्हित सिद्ध करना है, उसकी ऐसी बातों पर तुम्हारे किसी भी विद्वान ने उसकी भर्त्सना की। कुछ मुद्दों पर बढ़ रही असहिष्णुता के जनक तुम हो और वे तुम्हारे उकसावे में आ कर अपने ही परंपरागत मूल्यों को भूल कर वह कर बैठते हैं जो कराने की योजना तुमने रची है।