जियो और जीने दो (2)
‘तुम कल उत्साह में थे। मैं उसे कम नहीं करना चाहता था, और सच यह भी है कि जब तुम ऐसी उक्तियों को भी देशद्रोह मान कर मुझसे मेरी राय मांग रहे थे, तब मैं स्वयं भी दुचित्तेनपन का शिकार हो गया था, जिसमें लगता है ‘ऐसा होना तो नहीं चाहिए, लेकिन गलत तो नहीं लगता।‘ कुछ देर बाद समझ में आया कि तुम मेरी बात को या तो जानबूझ कर तोड़मरोड़ रहे थे या तुम्हें उसका वही आशय समझ में आया जो तुम्हारे मन्तव्य़ के अनुकूल था। देशद्रोह को परिभाषित करते हुए मैंने यह कहा था कि यदि व्यक्ति जानता है कि यह देश के अहित में है और इसके बाद भी उसे करता है तो वह देशद्रोह हुआ। तुम्हें याद है यह।
वह सहमत हो गया।
‘जो व्यक्ति या संस्था ’जियो और जीने दो’ को अपना सिद्धान्तसूत्र माने, सबके लिए एक आचरणीय आदर्श माने, उसी को तुमने अपने कुतर्क से गर्हित सिद्ध कर दिया। ऐसे विचारो और आदर्शो को एक संस्कार के रूप में अपनी चेतना का अंग बनाना होता है, इसके लिए अवसर की प्रतीक्षा नहीं की जाती और जिस तरह के अवसर की बात तुम कर रहे थे उसमें तो यह सचमुच आग में घी का काम करेगा। तुम तो परंपरागत भारतीय शिक्षाप्रणाली के व्यांपक फलक तक को भी नहीं समझ सके। यह पिता और परिवार से आरंभ हो कर पाठशालाओ, उपदेशकथाओं, समय समय पर ग्रन्थों के पारायण और संत्संगगोष्ठियों के रूप में एक महाशाख वृक्ष की तरह फैली थी जिससे अक्षर ज्ञान न रखनेवाले भी वंचित नहीं थे । इसे तो अंग्रेजी शिक्षाप्रणाली ने काट-पीट कर स्कूल तक सीमित करके एक ठूंठ में बदल दिया। जो उनकी शिक्षा प्रणाली थी उसको शिक्षा से अधिक अपना राजनीतिक अखाड़ा बना कर तुमने उसे भी नष्ट कर दिया इसलिए तुम कुतर्क को तर्क और अपने क्षेत्र के प्रति निष्ठा रखने को यथार्थ से पलायन कहो तो आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य तो मुझे इस बात पर है कि तुम्हारे मिजाज को जानते हुए मैं कैसे बहाव में आ गया था। और यदि मैं बहाव में आ सकता हूं तो उन भोले भाले लोगों को कैसे दोष दे सकता हूं जिन्हें तुम इसी तरह बहकाने में सफल हो जाते हो और वे अपने ही लक्ष्य के विपरीत काम ही नहीं करने लगते हैं, उस पर गर्व भी करने लगते हैं।
‘मुझे सोचना चाहिए था कि तुम लोग जो हिन्दू मूल्यों, मानों, संस्थाओं, इतिहास, वर्तमान और हितों के पीछे बहेलिये की तरह तीर ताने लगे रहते हो, तुम्हारे निशाने पर खुद को भी लाने के खतरे को भांप कर तुम्हारी साथ साथ आलोचना करता जाता तो बातचीत में भी ताज़गी रहती और घपला पैदा न होता, पर वह न कर सका। अब समझ में आया कि वे सभी लेखक, पत्रकार और संचार माध्यमों से जुड़े लोग जो अपनी उदारता या उजलत में तुम्हारी मूर्खतापूर्ण व्याख्याओं पर मुकर्रर इर्शाद चीखते फिरते हैं, जिससे भ्रम पैदा होता है कि वे भी तुम्हारे ही गिरोह के अंग हैं, वे भी मुझ जैसे ही लोग हो सकते हैं. उन्हें तुम्हारी अटपटी व्यंख्यायें इतनी मौलिक लगती हैं कि उनमें कविता का सा आनन्द आने लगता है। वे बोल कर, लिख कर, और दिखा कर अपनी नासमझी में केवल तालियां बजा रहे होते हैं, बिना यह समझे कि विचार कविता नहीं होता और कविता जैसा आनन्दे देने लगे तो विचार विचार नहीं रह गया है। इससे बचो.
‘जो सज्जन योगाभ्यास कर और करा रहे थे उनकी योजना केवल यह थी कि जब तक मन में द्वेष और कलुष है योगाभ्यास का लाभ नहीं मिल सकता। वे कायिक, मानसिक और वाचिक शुद्धि का पाठ पढ़ाते हैं और पढ़ने वाला तुम जैसा मिल जाय तो उसी पाठ से क्या पढ़ेगा इसका उदाहरण तुमने पेश कर दिया। तुमने सत्य, आत्माबोध और आरोग्य के एक आदर्श प्रयोग को हिन्दू बना दिया और फिर उसके शिकार के कोने तलाशने लगे और मेरे पास चले आए। इसके लाभ से शेष मानवता को वंचित रखने का इससे घटिया कोई प्रयत्न हो सकता है?
‘देखो, जिस स्कूल में मैंने शिशु कक्षा से ले कर चौथी तक की पढ़ाई की उसकी दीवारों पर कुछ सूत्र वाक्य लिखे थे जो आज तक मुझे याद हैं और प्रेरणा भी देते हैं। वे थे:
झूठ बोलना पाप है।
नर हो न निराश करो मन को।
सत्यमेव जयते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
वही मनुष्यर है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
‘तुम्हारी समस्या यह नहीं है कि तुम बुरे लोग हो। समस्या यह है कि तुम समझने के लिए, सुधारने और बदलने के लिए कुछ नहीं करते, जो कुछ करते हो जीतने के लिए करते हो और इसलिए समस्याओं का समाधान नहीं करते। समस्यायें पैदा करते हो। कुछ समय के लिए जीतने का भ्रम पाल भी लो तो तुम अपने जीतने के क्षणों मे भी हार रहे होते हो।‘
अब वह अपने तेवर में आया, ’मैं कल भी सोच रह था कि तुम इतने खुले मन से मेरी बात मानते क्यों चले जा रहे हो। अब समझ में आया कि तुम चाहते क्या थे?‘
‘क्या चाहता था? क्या समझ में आया ?
’वह, क्या ‘तीर चलाया है! क्या निशाना है!’ कहते हुए एक ओर तो तुम मेरे निशाने से बचते रहे और अपनी इस धोखेबाजी से इस प्रतीक्षा में लगे रहे कि जब मेरा तरकश खाली हो जाय तो डंडा ले कर मुझ पर टूट पड़ो और .. यह ले, वह ले, नहले, दहले करते हुए मुझी से पूछो मजा आया।‘
‘सच मानो, मैंने किसी इरादे से कुछ छिपा कर तुम्हारी बातों को सच नहीं माना था। सहज मन से माना था। परन्तु मुझमें और तुममें एक अन्तर है। तुम लोग झटपट समझ कर आगे बढ़ जाते हो, जो करना है कर गुजरते हो, भले उससे तुम्हारा ही सत्यानाश हो। इस बीच जो सत्यानाश कर चुके हो उसकी जिम्मेदारी से बचने या उसे उचित या अपरिहार्य सिद्ध करने में ही सारी ऊर्जा चली जाती है. मैं पहले से कहता आया हूं कि जिरह करते हुए पढ़ो। अक्षरपाठी मत बनो सारग्राही बनो। यह काम कुछ समय मांगता है। इसके लिए तर्क-वितर्क की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसके लिए अपने दरबे से बाहर आकर सोचना होता है। अपनी उजलत और गफलत के कारण तुम लोग तो उन शब्दों का अर्थ तक नहीं समझ पाते जिनका प्रयोग करते हो। हद है! राजद्रोह और देशद्रोह तक में फर्क नहीं कर पाते।‘
‘सुनूँ तो, यह फर्क क्या होता है भाई।‘
‘वही बता रहा हूं। जिस धारा पर हफतों चारों ओर बहस होती रही और अन्तत: कुछ फैसलों के हवाले से कहा गया कि यह सेडीशन का मामला नहीं है, और यह बताया जाता रहा कि वह धारा अंग्रेजों ने लगाई थी। मांग की जाती रही कि उसे हटा दिया जाना चाहिए, उसमें सचाई और नासमझी का तुल्य योग था। उस पूरी बहस में देशद्रोह और राजद्रोह में अन्तर करने वाला कोई लेख या बहस या व्याख्यान मेरी नजर में नहीं आया।
‘अंग्रेजों का अधिकार हमारे देश पर धौंस के बल पर बना रहा था। उन्हें, हमारे ऊपर राज करने का नैतिक अधिकार नहीं था। इसलिए उन्होंने अपने राज को सुरक्षित रखने के लिए सेडीशन या राजद्रोह को अपराध बनाया था। जो उनके राज का विरोध करते थे वे देशप्रेम के चलते विरोध करते थे और ऐसे किसी काम, विचार या प्रस्ताव की आलोचना करते थे जो देश और समाज के लिए अनिष्टकर प्रतीत होता था।
‘मैंने इसीलिए यह स्पष्ट किया था कि सत्ता में रहते हुए यदि कोई देश के अहित का काम करे, ऐसी योजनाओं को जो देशहित में हैं, जिन पर बड़ी रकम खर्च हो चुकी है, बन्द कर दे, तो वह राजसत्ता पर अधिकार जमाने के बावजूद, देशद्रोही और राष्ट्र्द्रोही है। इस अपकार्य में उसके सहायक, इसको जानते हुए इस पर चुप रह जाने वाले सभी राजभक्त है पर साथ ही देशद्रोही है, राजद्रोही नहीं। उसका समर्थन करने वाले, उससे लाभान्वित होने वाले राजभक्त थे, देशभक्त नहीं।
‘तुमको जब मैं देशद्रोही कहता हूं तो राजद्रोही नहीं कहता क्योंकि सत्ता से नूरा कुश्ती लड़ते हुए भी तुम लोग सदा सत्ता के साथ रहे हो।
‘ऐसी स्थिति भी आ सकती है जब कोई सरकार देशहित पर ध्यान दे रही हो और तुम उसका इस कारण विरोध करो कि उसके इन हितकर कार्यों को सफल होने दिया गया तो देश उसे पसन्द करने लगेगा और इस तरह के कामों का सिलसिला बना रहा हो सत्ता में तुम्हारी वापसी का रास्ता बन्द हो जाएगा और इसलिए तुम उसे उखाड़ने के लिए अवांछित और उपद्रवी कारनामे करो तो तुम एक साथ देशद्रोही भी हो सकते हो और राजद्रोही भी।‘
वह कुछ अनमना तो लगा परन्तु उसके पास इसका प्रतिवाद करने को कुछ था नहीं। कुछ देर की चुप्पी के बाद उसने कहा, ‘यह तो आधी बात हुई। उसी ‘जियो और जीने दो’ का मैंने वह पक्ष उजागर किया था जो खानपान की स्वतंत्रता से जुड़ा है। उस पर तुम्हारी क्या राय है?’
’इस पर कल बात करेंगे, क्योंकि यह बहुत पेचीदा सवाल है।‘
’तुम भाग कर बचना चाहते हो।‘
’कल तक यही मान कर खुश रहो।‘