Post – 2017-02-12

हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – 37

2. आगे बढने का अभिशाप

आप हिमालय की चोटी से छलांग लगा कर उससे फुट दो फुट ऊपर उठ सकते हैं, पर अपनी चमड़ी से छलांग लगा कर बाहर नहीं निकल सकते; उसे संवार और निखार अवश्य सकते हैं, उसमें व्याधियां है तो उन्हें दूर अवश्य कर सकते हैं। चमड़ी का एक अदृश्य रूप हमारी परिस्थितियां होती हैं जो व्यक्ति के साथ भी जुड़ी होती हैं, और समाज के साथ भी । हिमशैल की तरह इसका एक क्षुद्र अंश हमारे वर्तमान से निर्धारित होता है और शेष इतिहास से।

हम पहले भी कह आए है कि आगे बढ़ने वालों मेे पिछड़ जाने वालों से अपने को श्रेष्ठ समझने की भावना स्वतः पैदा हो जाती है। यह प्रकृति का नियम है और इसके असंख्य उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं, परन्तु पिछड़ जाने वाले यदि अपने सगे हुए और उस अग्रता से लाभान्वित हुए तो कृतार्थता के बाद भी मन में एक हीन भावना पाले रहते हैं और यह ईष्र्या का रूप ले लेता है जो कृतघ्नता के भय से अपने चेतन में भी अपवाद रूप में ही आ पाता है, परन्तु सीधे लाभान्वित न होने वाले, जिनको उनके दबाव में रहना पड़ता है उनमें यह आज्ञाकारिता के बावजूद बना रहता है और इसमें मृदुता तभी आ पाती है जब आगे बढ़ा हुआ व्यक्ति या समुदाय उनके साथ इतने आत्मीय भाव से व्यवहार करे कि उसकी आंच उन्हें अनुभव न हो। यह हो सके तो चमत्कार हो जाय, असाधारण आत्मनियन्त्रण वाले विरल व्यक्तियों में यह संभव भी हो सकता है, परन्तु किसी पूरे समुदाय से इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती और इसलिए अग्रता ईर्ष्या का और वह ईर्ष्या घृणा का रूप ले लेती है और कई बार इसके बहुत विकट परिणाम झेलने पड़ते हैं।
अन्य बातों के अतिरिक्त इसका एक रूप यह भी होता है कि पिछड़ा व्यक्ति अपने पिछड़ेपन के लिए आगे बढ़ जाने वाले व्यक्तियों और समुदायों को दोषी मानता है, जैसा वर्णव्यवस्था के मामले में हम पाते हैं। कृषिकर्म की ओर अग्रसर होने वाले देवों/ब्राह्मणों/आर्यों को असुरों/राक्षसों के जिस विरोध का सामना करना पड़ा उसकी कहानियां सिहरन पैदा करने वाली हैं।
आरंभ में यह विरोध दो विचारधाराओं के कारण था जो आज भी विकास और पर्यावरणवादियों के बीच देखा जा सकता है। तब इसका चरित्र भिन्न था। कृषिकर्मी समर्थन पाने के लिए, अपनी संख्या बढ़ाने के लिए स्वयं आग्रह कर रहे थे कि प्रकृति उत्पाद पर निर्भरता छोड़ कर उत्पादन आरंभ करो। इसे वे यज्ञविस्तार कहते थे और बाद में आर्यव्रत का प्रचार।

आरंभिक आपदाएं झेलने के बाद उन्नत उत्पादन और संगठन शक्ति के बल पर उन्होंने अपने विस्तार के क्रम में वनक्षेत्र केा कृषिक्षेत्र बनाने का जो दबाव बनाया तो उन्हें ही जो पहले उनका हिंसक विरोध कर रहे थे, उनके सेवा कार्य में लगना पड़ा और उनके निर्देशन में वे सारे काम करने पड़े जिनसे वे बचना चाहते थे।

श्रम नहीं सूझ, पहल और उससे जुड़ा अध्यवसाय किसी समाज को और उस समाज के किन्हीं तबकों को दूसरों से आगे बढ़ाता है, और उसे अपने भीतर पैदा करके ही और ऐसा करने वालों की प्रभावशाली संख्या हो जाने के बाद ही कोई पिछड़ा व्यक्ति, समुदाय, समाज या देश उस हैसियत में पहुंच सकता है जिसमें वह स्वयं दूसरों के लिए अनुकरणीय बन सकता है।
प्रकृति, अर्थात जो सहज सुलभ है उस पर जीने वालों को स्वयं कुछ नहीं करना पड़ता था, उपलब्ध को जुटाना या झटपट समेटना, पेट भरना और मौजमस्ती करना होता था, इसलिए अपनी पहल पर श्रम कार्य से भी उन्हें परहेज था, परन्तु अभाव के दिनों में उनकी जो दुर्गति होती थी वह भी उस कुपोषण की याद दिलाती है जिसे शिव के गणों के रूप में चित्रित किया जाता रहा है । अपने पिछड़ेपन के लिए वे स्वयं उत्तरदायी थे, पर पिछड़ जाने पर आगे बढ़े तबकों, समुदायों, समाजों या देशों का शोषण और दोहन भी झेलना पड़ता है जो उनकी विवशता को बढ़ाता है, परन्तु आज की स्थिति में जब दबाव कम हुआ है, अवरोध हटे हैं, पुरानी मनोवृत्ति यद्यपि न तो दलितों और पिछड़ों की बदली है न जिन्हें अगड़ा माना जाता है, उनकी, क्योंकि भौतिक परिस्थितियों में टिकाऊ बदलाव आने के बाद ही मनोवृत्तियां बदलती है। उससे पहले बदलने का दावा करने वाले दिखावा करते हैं, अपनी ओर से इस दिशा में प्रयत्न भी करते हैं, परन्तु बदल चुके होने का दावा करें तो पाखंडी सिद्ध होंगे।

यदि आज भी पिछड़े समुदाय केवल आरक्षण पर ही भरोसा करें, उसका सदुपयोग न करें, उसका अपने ही समुदाय में हस्तान्तरण न करें, उनमें जीवट और पहल और नयी समझ और सूझ पैदा न कर सकें तो बराबरी का दावा नारा बना रहेगा, यद्यपि उनके भौतिक से भी अधिक मानसिक पिछड़पन का लाभ दूसरे उठा सकते हैं और उनको मानवीय बनने की अपेक्षा आततायी बनने या कहें पुराने असुरों राक्षसों की भूमिका में डालने का प्रयत्न अवश्य कर सकते हैं जो किसी के लिए कल्याणकारी नहीं है।

हमारी अब तक की छानबीन में हमने यह पाया कि अपने पूरे इतिहास में आज की तिथि में हिन्दू से अभिहित समाज अपनी अग्रता के कारण ईर्ष्या और क्षद्म या प्रकट कुत्सा और घृणा का पात्र बना रहा और अपने दमन, पराधीनता और पराभव के दौरों में भी उसने अपने विशिष्ट मूल्यों के बल पर अपने आत्मविश्वास को खोया नहीं।

अब इस पृष्ठभूमि में ही हम उन कारणों, कारकों और उनके प्रतिफलनों को समझ सकते है जिसने बंगाली जाति की चेतना को पैदा किया और जिसको आधार बना कर अंग्रेजों ने अपनी कूटनीतिक चातुरी से उसे हिन्दूफोबिया में बदल कर सर सैयद की सोच को भटका दिया जिसने सांप्रदायिकता, सामाजिक कटुता और पारस्परिक घृणा का रूप ले लिया या इसकी संभावना पैदा की ।

Post – 2017-02-12

हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – 37
मैं इस पोस्ट को उपशीर्षकों में बाँट कर एक ही दिन में कई टुकड़ों में पेश करूंगा:

१. अंग्रेजों का जाल और उनकी चाल

ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने आई थी पर आरम्भ से ही उसकी नज़र अपने अड्डे के विस्तार पर थी. मैकाले ने तत्कालीन भारत सरकार पर कटाक्ष करते हुए कहा था:
It had its forts and its white Captains, and its black Sepoys, it had its civil and criminal tribunals, it was authorised to proclaim martial laws, it sent ambassador to the native governments, and concluded treates with them, it was zamindor to the native governments,and within these districts, like other zamindars of the first class, it exercised the powers of a sovreign even to the infliction of capital punishment on the Hindus within its distinction. … The Zamindar became a great Nabob, the nabod became sovereign of all India, the two hundred sepoys became two hundred thousand.

यह कमाल उसने अपनी चालाकी और हमारी नादानी के सहयोग के बल पर किया था. लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक Young India में इसे धूर्तता, विश्वासघात, वादाखिलाफी और कमीनेपन के रूप में पेश किया था.
To continue the thread of my narrative: the history of British “conquest” of India from 1757 to 1857 A. D. is a continuous record of political charlatanry, political faithlessness, and political immorality. It was a triumph of British “diplomacy.” The British founders of the Indian empire had the true imperial instincts of empire-builders. They cared little for the means which they employed. Moral theorists cannot make empires. Empires can only be built by unscrupulous men of genius, men of daring and dash, making the best of opportunities that come to their hands, caring little for the wrongs which they thereby inflict on others, or the dishonesties or treacheries or breaches of faith involved therein. … The British conquest of India was not a military conquest in any sense of the term. They could not conquer India except by playing on the fears of some and the hopes of others, and by seeking and getting the help of Indians, both moral and material.

परन्तु कमीनापन और कूटनीति को बहुत पहले से एक दूसरे का पर्याय बनाया जा चुका था और इसे न समझ पाने के कारन ही हिंदुओं को मध्य काल में भारी क्षति उठानी पड़ी थी. पहली बार शिव जी ने पुराने आदर्शवाद को धता बताते हुए अपने मामूली सैन्यबल से ही औरंगज़ेब को नाकों चने चबवाए थे. अंग्रेजों ने उसी का अधिक सफलता से प्रयोग करते हुए सबके छक्के छुड़ा दिए जिनमें मराठे और सिख भी थे. हमें दूसरों के कमीनेपन को दोष देने की जगह अपनी मूर्खताओं की पड़ताल करनी चाहिए थी, जो हमने नहीं किया. मुग़ल परम्परा में पल सर सैयद अहमद भी इस चाल को नहीं समझ पाए, यह दुखद है.

Post – 2017-02-11

हिन्दु्त्व के प्रति घृणा का इतिहास – 36
(तब की तब देखी जाएगी)

मुझे इस बात का क्षीण बोध है कि मैं सर सैयद पर लगातार बात करते हुए अपने मित्रों की उदासीनता को बढ़ा रहा हूं परन्तु हमारी समस्याओं के मूल में उनकी बेचैनी और उस बेचैनी में लिए गए निर्णय हैं जिनकी परिणतियों से बाद का घटनाक्रम प्रभावित हुआ। उसे समझने के लिए उनके ऐसे पक्षों का पुनरीक्षण जरूरी है जिनके भिन्न विकल्पा संभव थे। उनकी ओर ध्यान न जा पाना उनके कद को भी प्रभावित करता है। इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि उन्नीसवीं भारत के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास में उससे अधिक तीखा मोड़ है जिसे हम स्वाधीनता के अवसर पर पाते हैं। उसके सभी पक्षों के विस्तर में जाने की योग्यता मुझमें नहीं हैं। भारतीय दृष्टि से देखें तो इस शताब्दी की सोच संप्रदाय सापेक्ष थी और सभी समुदायों में एक प्रतिरक्षा युक्ति (‍डिफेंस मैकेनिज्मस) काम कर रही थी। इसके अन्य कारणों में एक कारण यह भी था कि उनकी आवाज अपने समुदाय के भीतर ही सुनी जा सकती थी।

राजा राममोहन राय और उनका ब्रह्म समाज हो या स्वासमी दयानन्द‍ का आर्य समाज सभी में अपने समुदाय को बचाने की चिन्ता व्याप्त थी। परतु ब्रह्म समाज और आर्यसमाज को मुसलमानों से कोई शिकायत न थी। उनमें ईसाइयत के दबाव और पश्चिम की एक उन्नत और आधुनिक सोच और तकनीकी से लैस संस्कृित के दबाव से हिन्दू समाज और भारतीय मूल्येंा को बचाने की चिन्ता प्रधान थी। उनकी चिन्ता अपने भीतर वह लोच और ग्रहणशीलता पैदा करने की थी जिसमें आत्म निरीक्षण, पुनर्मूल्याकन संभव हो सके। उन्हें एक ऐसे सांस्कृतिक आधार की तलाश थी जो समाज को बहकने से और अपनी पहचान खोने से बचाए रख सके। एक ओर तो वे अपने समाज की विकृतियों – सतीप्रथा, बालविवाह, अनमेलविवाह, परदाप्रथा, सामाजिक भेदभाव को दूर करने के लिए प्रयत्नशील थे, दूसरी ओर उपनिषद और वेद के उज्वल पक्ष को उभारते हुए अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता में विश्वास जगाना चा‍हते थे और तीसरी ओर अंग्रेजी शिक्षा को अपनाते हुए इस समीक्षा में लगे थे कि वे कौन से गुण हैं जिनके कारण अंग्रेज हमसे आगे निकल चुके हैं।

यहां उनका उद्देश्य पश्चिमी जगत की सफलता से अभिभूत होकर, उनकी सामाजिक विकृतियों को भी श्लाय मान कर उसे अपनाने से नई पीढ़ी को बचाना था। मुसलमानों के प्रति वे लगभग उदासीन थे, क्योंाकि शिक्षा को छोड़ दूसरी समस्याायें उनके अपने समाज तक सीमित थीं, और अनेक स्तरों पर , अनेक रूपों में फारसी का चलन अब भी बना था, जिसमें मुसलमान उनसे आगे थे, अत: उन पर उनकी पहल का प्रभाव नहीं पड़ सकता था।

स्वामी दयानन्द के विषय में यह अवश्य कहा जा सकता है कि वह ब्राह्मणवादी और वर्णवादी हिन्दुत्व्, जैन मत, ईसाइयत और इस्लाम सभी की सीमाओं और बुराइयों की आलोचना करते हुए एक नये समाज की स्थापना करना चाहते थे जो अधिक संगठित हो और अपने दृष्टिकोण में अधिक प्रगतिशील हो। यह अकारण नहीं है कि दयानन्द सरस्वती के प्रभाव क्षेत्र में क्रान्तिकारी पहल या साम्यवादी आन्दोलनों से आकर्षित होने वाले हिन्दू युवक आर्यसमाजी पृष्ठ भूमि के परिवारों से आए थे ।

हम सर सैयद को आज की अपेक्षाओं या उनसे बाद के परिणामों से मापना चाहें तो यह अन्याय होगा, परन्तु वह अपने समय के दूसरे नेताओं से प्रेरणा क्यों नहीं ग्रहण कर सके, यह अवश्य‍ उनके मूल्यांकन को प्रभावित करता है।

इसका एक कारण तो यह लगता है कि उनको सीधी चुनौती ईसाइयत से नहीं अनुभव हो रही थी। मुसलमानों के धर्मान्तरण पर ईसाइयों का अधिक जोर भी नहीं था, क्योंकि एक ही किताब से निकली किताबों से जुड़ाव के कारण उनका अलग कोई वैचारिक टकराव न मूल्यों को ले कर था, न विश्वास या जीवनदृष्टि को लेकर। अत: अपने समाज की विकृतियों की ओर उनका ध्यान नहीं गया, गो इस ओर ध्यान गया कि अपनी किताबी जकड़बन्दी को तोड़ कर वे ज्ञान-विज्ञान में इतनी प्रगति कर गए हैं। जाे काम वे कर सके वह हमसे भी हो सकता है। वह यह समझाना चाहते थे कि मूल किताब जिसमें ही दिमाग को बंद करके विश्वास को अन्ध विश्वास तक पहुंचाने वाले जो तत्व विद्यमान हैं उनकी उपेक्षा की जानी चाहिए। उन्हें मार्टिन लूथर हस्तक्षेप का पता रहा होगा और इसलिए वह कुरान की सर्वबोधगम्य नई व्याख्या करते हुए यह समझाना चाहते थे कुरान के विधान और विज्ञान की स्थापनाओं के बीच विरोध नहीं देखना चाहिए और पुरानी अनमेल बातों को छोड़ कर अपने ज्ञान का विस्तार करना चाहिए। मुस्लिम समाज जिस जाहिलिया से मुक्त होने के भ्रम में सचमुच जाहिलिया में कैद है उसमें उनका विरोध होना ही था और हुआ भी।

सच कहें तो यूरोप के रेनेसां के चरित्र को समझने में हमसे चूक होती आई है और उस रहस्यमय सूत्र को समझने में भी चूक होती है जिनमें ऐसे तारकिक विचारों, व्यवहारों और मूल्यों को, जिनका पहले दमन या तिरस्कार किया जाता था, व्यक्त करने का साहस पैदा होता है। मेरी अपनी समझ यह है कि आधुनिक यूरोप धर्मयुद्धों से मिले अपमान के बाद पराजय के कारणों की छानबीन और अरबों की विशेषताओं को अपनाने के प्रयास से पैदा हुआ।

अकारण नहीं है कि यूरोप के नई सोच वालों का इतिहास पता करें तो उनको अरब शिक्षाकेन्द्रों से शिक्षा ग्रहण करते पाते हैं, यूरोप के नए विज्ञानों में अल् पूर्वपद वाले शब्द मिलते हैं, अलकेमी, अलकोहल, अलजब्रा, अल के घिसे रूप ला ले आदि। जिस स्पेन पर अरब प्रभाव सबसे गहन था उससे और उसके पड़ोसी पुर्तगाल में नौवहन का वह जुनून पैदा होता है कि कोलंबस और वास्को ‍ डि गामा यूरोप के सपनों के देश भारत तक पहुंचने के लिए अरबों की दरिंदगी से बचते हुए नए रास्तों की खोज में निकल पड़ते हैं और मध्यकालीन दुनिया से आधुनिक विश्व का हिरण्यगर्भ पैदा होता है जिसके विस्फोट से कई चीजें पैदा होती है।
ध्यन रहे कि रोमन साम्राज्य और उसके आपूर्ति तन्त्र के नष्ट हो जाने के बाद यूरोपीय देशों के लिए भारत तक पहुंचने का रास्ता अरबों द्वारा नियंत्रित क्षेत्र से गुजरता था और उसमें उनकी शर्तें लागू होती थीं जिसके कई परिणाम हुए । भूमध्य सागर के यातायात पर भी अरबों का अधिकार, लाल सागर को जोड़ने वाले भाग पर जिसे समाप्त करने के लिए बाद में स्वेज नहर बनानी पड़ी, अरबों का अधिकार, और उसके बाद के चीन तक के तटीय क्षेत्र पर अरबों के अड्डे। अर्थात् व्यापार तंत्र पूरी तरह अरबों के हाथ मे आ गया था और इस मनचाहे लाभ से पैदा हुई वह आर्थिक सम्पन्नता जिसमें राग रंग, जुआ, मुनाफाखोरी आम हो गई और इन बुराइयों में अपना होश गवां रहे अरबों के बीच एक निग्रहवादी विचारधारा पैदा हुई जिसे हम इस्लाम कहते हैं। तुम नाचोगे नहीं, गाओगे नहीं, बजाओगे नहीं, नशे से या दिमाग को भटकाने वाली चीजों से परहेज करोगे । किसी इंसान की इबादत नहीं करोगे, उसके आगे झुकोगे नही, अपनी मूर्ति नहीं बनाओगे और मूर्ति में आस्था नहीं रखोगे, आदि। कुछ एकेश्ववाद का प्रभाव भी था।
मैं यह याद दिलाना चाहता हूं कि अपने समय को देखते हुए न तो सर सैयद यह देख सकते थे कि विचारों का भी एक आर्थिक आधार होता है, न उन्हों ने देखा। वह समझते थे कि व्याख्या से यह काम भी पूरा हो जाएगा। वह अपने उत्सा ह में शायद अपने प्रवर्तित धर्म की सीमाओं को नहीं समझ पाए या भिन्न्न रूप में समझा जिसे मैं समझ नहीं पा रहा ।

इन कारणों से उनको अपना सबसे बड़ा शत्रु बंगाल का हिन्दू समाज लग रहा था जिसने ऐसे सारे सरकारी पदों पर अधिकार कर रखा था और पांच दशक आगे बढ़ चुका था। उससे आगे बढ़ने का एक ही तरीका था, विविध उपायों, कार्यो और वक्तव्यों से अंग्रेजी सरकार को खुश और अपने समाज को शिक्षित करना ताकि वे उच्चतम पदों पर जल्द से जल्द पहुंच सकें। तब की तब देखी जाएगी। सर सैयद ने अपनी संस्था बनाने या अपना कालेज स्थापित करने में अंग्रेजों से कोई िवशेष अनुदान नहीं लिया। शिक्षा के बिना अवसर मिल नहीं सकता था अत: यह काम वह उनके सहयोग के बिना, उनके मार्गदर्शन के बिना भी कर सकते थे। जितनी आवश्यकता वह मुसलमानों की दशा सुधारने की अनुभव कर रहे थे, उतनी ही बेताबी से अंग्रेज प्रशासनिक संतुलन के लिए मुसलमानों को भी साथ ले कर चलना चाहते थे। उन्होंने सरसैयद की उत्कंट लालसा का लाभ स्वयं उठाया और वह उनके हाथ में मुहरा बन कर खेलते रहे, जिससे बचा जा सकता था। तात्‍कालिक व्याग्रता और संयम के अभाव का लाभ अंग्रेजों ने अपने कूटनीतिक लाभ के लिए उठाया और इस सिरे से देखने पर वह अपने समय के हिन्दू नेताओं से पीछे दिखाई देते हैं। उनका अधिमूल्यन हुआ मूल्याकन न हो सका।

Post – 2017-02-10

हिन्दु्त्वन के प्रति घृणा का इतिहास – 36
(तब की तब देखी जाएगी)

मुझे इस बात का क्षीण बोध है कि मैं सर सैयद पर लगातार बात करते हुए अपने मित्रों की उदासीनता को बढ़ा रहा हूं परन्तु हमारी समस्याओं के मूल में उनकी बेचैनी और उस बेचैनी में लिए गए निर्णय हैं जिनकी परिणतियों से बाद का घटनाक्रम प्रभावित हुआ। उसे समझने के लिए उनके ऐसे पक्षों का पुनरीक्षण जरूरी है जिनके भिन्न विकल्पा संभव थे। उनकी ओर ध्यान न जा पाना उनके कद को भी प्रभावित करता है। इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि उन्नीसवीं भारत के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास में उससे अधिक तीखा मोड़ है जिसे हम स्वाधीनता के अवसर पर पाते हैं। उसके सभी पक्षों के विस्तर में जाने की योग्यता मुझमें नहीं हैं। भारतीय दृष्टि से देखें तो इस शताब्दी की सोच संप्रदाय सापेक्ष थी और सभी समुदायों में एक प्रतिरक्षा युक्ति (‍डिफेंस मैकेनिज्मस) काम कर रही थी। इसके अन्य कारणों में एक कारण यह भी था कि उनकी आवाज अपने समुदाय के भीतर ही सुनी जा सकती थी।

राजा राममोहन राय और उनका ब्रह्म समाज हो या स्वासमी दयानन्द‍ का आर्य समाज सभी में अपने समुदाय को बचाने की चिन्ता व्याप्त थी। परतु ब्रह्म समाज और आर्यसमाज को मुसलमानों से कोई शिकायत न थी। उनमें ईसाइयत के दबाव और पश्चिम की एक उन्नत और आधुनिक सोच और तकनीकी से लैस संस्कृित के दबाव से हिन्दू समाज और भारतीय मूल्येंा को बचाने की चिन्ता प्रधान थी। उनकी चिन्ता अपने भीतर वह लोच और ग्रहणशीलता पैदा करने की थी जिसमें आत्म निरीक्षण, पुनर्मूल्याकन संभव हो सके। उन्हें एक ऐसे सांस्कृतिक आधार की तलाश थी जो समाज को बहकने से और अपनी पहचान खोने से बचाए रख सके। एक ओर तो वे अपने समाज की विकृतियों – सतीप्रथा, बालविवाह, अनमेलविवाह, परदाप्रथा, सामाजिक भेदभाव को दूर करने के लिए प्रयत्नशील थे, दूसरी ओर उपनिषद और वेद के उज्वल पक्ष को उभारते हुए अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता में विश्वास जगाना चा‍हते थे और तीसरी ओर अंग्रेजी शिक्षा को अपनाते हुए इस समीक्षा में लगे थे कि वे कौन से गुण हैं जिनके कारण अंग्रेज हमसे आगे निकल चुके हैं।

यहां उनका उद्देश्य पश्चिमी जगत की सफलता से अभिभूत होकर, उनकी सामाजिक विकृतियों को भी श्लाय मान कर उसे अपनाने से नई पीढ़ी को बचाना था। मुसलमानों के प्रति वे लगभग उदासीन थे, क्योंाकि शिक्षा को छोड़ दूसरी समस्याायें उनके अपने समाज तक सीमित थीं, और अनेक स्तरों पर , अनेक रूपों में फारसी का चलन अब भी बना था, जिसमें मुसलमान उनसे आगे थे, अत: उन पर उनकी पहल का प्रभाव नहीं पड़ सकता था।

स्वामी दयानन्द के विषय में यह अवश्य कहा जा सकता है कि वह ब्राह्मणवादी और वर्णवादी हिन्दुत्व्, जैन मत, ईसाइयत और इस्लाम सभी की सीमाओं और बुराइयों की आलोचना करते हुए एक नये समाज की स्थापना करना चाहते थे जो अधिक संगठित हो और अपने दृष्टिकोण में अधिक प्रगतिशील हो। यह अकारण नहीं है कि दयानन्द सरस्वती के प्रभाव क्षेत्र में क्रान्तिकारी पहल या साम्यवादी आन्दोलनों से आकर्षित होने वाले हिन्दू युवक आर्यसमाजी पृष्ठ भूमि के परिवारों से आए थे ।

हम सर सैयद को आज की अपेक्षाओं या उनसे बाद के परिणामों से मापना चाहें तो यह अन्याय होगा, परन्तु वह अपने समय के दूसरे नेताओं से प्रेरणा क्यों नहीं ग्रहण कर सके, यह अवश्य‍ उनके मूल्यांकन को प्रभावित करता है।

इसका एक कारण तो यह लगता है कि उनको सीधी चुनौती ईसाइयत से नहीं अनुभव हो रही थी। मुसलमानों के धर्मान्तरण पर ईसाइयों का अधिक जोर भी नहीं था, क्योंकि एक ही किताब से निकली किताबों से जुड़ाव के कारण उनका अलग कोई वैचारिक टकराव न मूल्यों को ले कर था, न विश्वास या जीवनदृष्टि को लेकर। अत: अपने समाज की विकृतियों की ओर उनका ध्यान नहीं गया, गो इस ओर ध्यान गया कि अपनी किताबी जकड़बन्दी को तोड़ कर वे ज्ञान-विज्ञान में इतनी प्रगति कर गए हैं। जाे काम वे कर सके वह हमसे भी हो सकता है। वह यह समझाना चाहते थे कि मूल किताब जिसमें ही दिमाग को बंद करके विश्वास को अन्ध विश्वास तक पहुंचाने वाले जो तत्व विद्यमान हैं उनकी उपेक्षा की जानी चाहिए। उन्हें मार्टिन लूथर हस्तक्षेप का पता रहा होगा और इसलिए वह कुरान की सर्वबोधगम्य नई व्याख्या करते हुए यह समझाना चाहते थे कुरान के विधान और विज्ञान की स्थापनाओं के बीच विरोध नहीं देखना चाहिए और पुरानी अनमेल बातों को छोड़ कर अपने ज्ञान का विस्तार करना चाहिए। मुस्लिम समाज जिस जाहिलिया से मुक्त होने के भ्रम में सचमुच जाहिलिया में कैद है उसमें उनका विरोध होना ही था और हुआ भी।

सच कहें तो यूरोप के रेनेसां के चरित्र को समझने में हमसे चूक होती आई है और उस रहस्यमय सूत्र को समझने में भी चूक होती है जिनमें ऐसे तारकिक विचारों, व्यवहारों और मूल्यों को, जिनका पहले दमन या तिरस्कार किया जाता था, व्यक्त करने का साहस पैदा होता है। मेरी अपनी समझ यह है कि आधुनिक यूरोप धर्मयुद्धों से मिले अपमान के बाद पराजय के कारणों की छानबीन और अरबों की विशेषताओं को अपनाने के प्रयास से पैदा हुआ।

अकारण नहीं है कि यूरोप के नई सोच वालों का इतिहास पता करें तो उनको अरब शिक्षाकेन्द्रों से शिक्षा ग्रहण करते पाते हैं, यूरोप के नए विज्ञानों में अल् पूर्वपद वाले शब्द मिलते हैं, अलकेमी, अलकोहल, अलजब्रा, अल के घिसे रूप ला ले आदि। जिस स्पेन पर अरब प्रभाव सबसे गहन था उससे और उसके पड़ोसी पुर्तगाल में नौवहन का वह जुनून पैदा होता है कि कोलंबस और वास्को ‍ डि गामा यूरोप के सपनों के देश भारत तक पहुंचने के लिए अरबों की दरिंदगी से बचते हुए नए रास्तों की खोज में निकल पड़ते हैं और मध्यकालीन दुनिया से आधुनिक विश्व का हिरण्यगर्भ पैदा होता है जिसके विस्फोट से कई चीजें पैदा होती है।
ध्यन रहे कि रोमन साम्राज्य और उसके आपूर्ति तन्त्र के नष्ट हो जाने के बाद यूरोपीय देशों के लिए भारत तक पहुंचने का रास्ता अरबों द्वारा नियंत्रित क्षेत्र से गुजरता था और उसमें उनकी शर्तें लागू होती थीं जिसके कई परिणाम हुए । भूमध्य सागर के यातायात पर भी अरबों का अधिकार, लाल सागर को जोड़ने वाले भाग पर जिसे समाप्त करने के लिए बाद में स्वेज नहर बनानी पड़ी, अरबों का अधिकार, और उसके बाद के चीन तक के तटीय क्षेत्र पर अरबों के अड्डे। अर्थात् व्यापार तंत्र पूरी तरह अरबों के हाथ मे आ गया था और इस मनचाहे लाभ से पैदा हुई वह आर्थिक सम्पन्नता जिसमें राग रंग, जुआ, मुनाफाखोरी आम हो गई और इन बुराइयों में अपना होश गवां रहे अरबों के बीच एक निग्रहवादी विचारधारा पैदा हुई जिसे हम इस्लाम कहते हैं। तुम नाचोगे नहीं, गाओगे नहीं, बजाओगे नहीं, नशे से या दिमाग को भटकाने वाली चीजों से परहेज करोगे । किसी इंसान की इबादत नहीं करोगे, उसके आगे झुकोगे नही, अपनी मूर्ति नहीं बनाओगे और मूर्ति में आस्था नहीं रखोगे, आदि। कुछ एकेश्ववाद का प्रभाव भी था।
मैं यह याद दिलाना चाहता हूं कि अपने समय को देखते हुए न तो सर सैयद यह देख सकते थे कि विचारों का भी एक आर्थिक आधार होता है, न उन्हों ने देखा। वह समझते थे कि व्याख्या से यह काम भी पूरा हो जाएगा। वह अपने उत्सा ह में शायद अपने प्रवर्तित धर्म की सीमाओं को नहीं समझ पाए या भिन्न्न रूप में समझा जिसे मैं समझ नहीं पा रहा ।

इन कारणों से उनको अपना सबसे बड़ा शत्रु बंगाल का हिन्दू समाज लग रहा था जिसने ऐसे सारे सरकारी पदों पर अधिकार कर रखा था और पांच दशक आगे बढ़ चुका था। उससे आगे बढ़ने का एक ही तरीका था, विविध उपायों, कार्यो और वक्तव्यों से अंग्रेजी सरकार को खुश और अपने समाज को शिक्षित करना ताकि वे उच्चतम पदों पर जल्द से जल्द पहुंच सकें। तब की तब देखी जाएगी। सर सैयद ने अपनी संस्था बनाने या अपना कालेज स्थापित करने में अंग्रेजों से कोई िवशेष अनुदान नहीं लिया। शिक्षा के बिना अवसर मिल नहीं सकता था अत: यह काम वह उनके सहयोग के बिना, उनके मार्गदर्शन के बिना भी कर सकते थे। जितनी आवश्यकता वह मुसलमानों की दशा सुधारने की अनुभव कर रहे थे, उतनी ही बेताबी से अंग्रेज प्रशासनिक संतुलन के लिए मुसलमानों को भी साथ ले कर चलना चाहते थे। उन्होंने सरसैयद की उत्कंट लालसा का लाभ स्वयं उठाया और वह उनके हाथ में मुहरा बन कर खेलते रहे, जिससे बचा जा सकता था। तात्‍कालिक व्याग्रता और संयम के अभाव का लाभ अंग्रेजों ने अपने कूटनीतिक लाभ के लिए उठाया और इस सिरे से देखने पर वह अपने समय के हिन्दू नेताओं से पीछे दिखाई देते हैं। उनका अधिमूल्यन हुआ मूल्याकन न हो सका।

Post – 2017-02-09

हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – 35
प्रसंगवश

मैंने यह लेखमाला राजनीतिक वायरल के प्रसार से खिन्न हो कर, रचनाकारों, विचारकों, अध्यापकों, छात्रों में बौखलाहटभरी संवादहीनता की उस व्याधि से उनको बाहर लाने के लिए आरंभ की कि राजनीति के भी चुनावपूर्व होड़ में फतवों, गालियों, अभियोगों भाषा के स्त र पर उतर कर अपने आवेग प्रकट करने की जगह अपने कार्यो, मन्तव्यों के वैचारिक आधार को सामने रखें। अपने तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करें, और उसके प्रतिवाद में या नये प्रमाणों और तथ्यों के सामने आने पर उनका समाधान करते हुए विचार प्रकिया को आगे बढ़ाएं जिससे हम उस बौद्धिक सड़ांध से बच सकें जिसकी शिकायत सभी करते हैं, पर जिससे बाहर आने की इच्छा शक्ति तक खो चुके हैं।

मार्क्स वाद से मैंने यही सीखा है, थीसिस, ऐंटीथीसिस, सिंथीसिस जो मार्क्स की अपनी देन नहीं है, यह तार्किकता के इतिहास की अनिवार्य कड़ी है जिसे उपनिषदों, ग्रीक दार्शनिकों, अरबों के कुछ सौ वर्षों के उत्थान काल के चिन्तिकों और मार्क्से से पूर्व के यूरोप के उन चिन्तंकों में भी पाया जाता है जिनको भाववादी करार दिया जाता है।

आखिर हीगेल के डायलेक्टिक्स को तो मार्क्स ने भी स्वीकारा था। मार्क्स ने किया क्या था? हीगेल को सिर के बल खड़ा कर दिया था।

मार्क्स सामने होते तो पूछता, ‘भले आदमी, बुजुर्गों से इसी तरह पेश आते है, मगर जरूरी नहीं है कि यह पूछ पाता क्योंकि मार्क्स का जवाब पहले ही जबान बन्द कर देता है, ‘बरखुरदार तुम अपने बुजुर्ग से किस तरह पेश आ रहे हो।

इस लाचारी में मैं मान लेता हूं कि यह जुमला किसी दूसरे ने गढ़ा होगा, और मार्क्स के समय और सोच को देखते हुए सही भी था।

जो कुछ ज्ञान के एक चरण पर सही होता है वह अगले चरण पर हास्यालस्प हो जाता है, परन्तु ज्ञान और विज्ञान की प्रक्रिया में यदि अपने मुकाम पर वह न होता तो इसकी प्रगति का रास्तां ही बाधित हो जाता। मार्क्स विचार को वस्तु , वस्तु गत परिस्थितियों से उत्पन्न‍ एक शक्ति मानते हैं, जब कि उससे पहले विचार से ही वस्तु जगत में परिवर्तन की मान्यता थी और इसके कारण वस्तुनगत सत्ता को अध्यास या भ्रम मानना पड़ता था। वह असाधारण तर्कवादी शंकराचार्य हों या उनसे परिचित बर्गसां। या उसकी अगली कड़ी हीगेल।

वस्तुवादियों का भी अपना लंबा इतिहास है, वह ऋग्वेद में ही परिलक्षित हो जाता है जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया गया, पर बीसवीं शताब्दी में अणुविखंडन और अणुविश्लेषण और क्वैंटम सिद्धांत ने सत और चित की परिभाषाएं ही बदल दी और उन्नीसवीं शताब्दी में हीगेल को उन्नीसवी शताब्दी के विज्ञान के आधार पर सिर के बल खडा करने वाले मार्क्स को बीसवीं शताब्दी के विज्ञान ने गलत सिद्ध कर दिया और उस विचित्र असमंजस में डाल दिया जिसमें सृष्टि का आरंभ शून्य से और सृष्टि की परिणति शून्य में होती है, परन् तु यह ऐसा शून्य है जो अपनी ही कामना या अव्यक्त माया में लिपटा हुआ है। कहो तो ब्रह्म कहो तो माया, कहो तो ब्रह्म माया वश और कहो तो माया ब्रह्म में विद्यमान कामना में, समझने चलो तो न यह न वह। वह परमशून्य जिसमें समस्त सृष्टि को कालातीत काल के बाद दिगातीत व्याप्ति के होते हुए भी ध्वस्त होना है और जिसको भी अन्त नहीं माना जा सकता। इस जटिलता को नेति नेति, न भूत न चित, चित ही भूत बन जाता है, सो अचिन्तनीय एको अहं बहु स्या म बहुधा स्याम वाली सोच को वैज्ञानिक तो नहीं कहा जा सकता है पर यह सवाल तो उठाया ही जा सकता है कि यूरोप के आधुनिक वैज्ञानिकों ने यदि विश्‍वब्रह्मांड की रहस्यमयता की खोज के प्रसंग में भारतीय चिंतन को भी ध्यान में रखा होता तो संभव है विवेचन का रूप भिन्न होता।

मुझे किसी विषय की पक्की जानकारी न होने पर भी अपनी समझ से हस्तक्षेप इसलिए करना पड़ता है कि इसी को कामन सेंस या लोकबोध कहा जाता है। विशेषज्ञता न हो तो इसी से काम चलाना पड़ता है, यह तो सच है ही, विशेषज्ञों को भी अपने संकरे गलियारे से बाहर आने पर इसी लोकबोध या आम समझ से तालमेल बिठाना और उसी पर आना होता है।

अन्तिम बात मुझे स्‍टीफेन हाकिंग्‍स की सुलभ और शिक्षाप्रद पुस्त कों को पढते हुए याद आई जिसमें वह ईसाइयत के विश्वासों को आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के सन्‍दर्भ में विचारणीय मानते हैं और उससे बाहर का रास्ता‍ निकालते हैं। ईसाइयत का विश्वबोध और वस्तुबोध बहुत अधकचरा है, परन्तु मैं इस वाग्जा ल में इसलिए फंस गया कि मैं यह याद दिलाना चाहता था कि हम, यह मेरी समझ है, सोचने से बचते हुए किन्हीं मान्यताओं में अटल विश्वास के कारण सोचना बन्द कर चुके हैं और फिर भी अपनी सोच को वैज्ञानिक करार देते हुए विज्ञान को भी विश्वाेस बनाने पर उतारू हैं और ठीक उसी से मिलते जुलते धरातल पर एक दूसरे के विरोध में तलवार ताने खड़े हैं जिसमें अपर पक्ष का दधीचि की हड्डियों से अमोघ अस्त्र बनाए जाने की जांच करने के प्रस्ताव पर हंसते है और उन्नी सवीं शताब्दी के विज्ञान, अपने प्रयोगों, उनकी विफलता के कारणों की पड़ताल करने को तैयार नहीं होते।

वैज्ञानिक दोनों में कोई नहीं, पर वह जो जांच और खोज का द्वार खुला रखता है वह दोनों विश्वािसयों में अपेक्षाकृत अधिक सुलझे दिमाग का है। पर इस वाग्विलास में मैं अपना असली सवाल ही भूल गया। वह था कि समझ संवाद के अभाव में संभव नहीं और मेरे लिखे पर मित्रों के जो प्रश्न आते हैं उनसे बचने का मुझे भी अधिकार नहीं।

मैं स्वयं अपनी अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाता। विमर्श आरंभ हो जाता है और अनेक प्रश्नों के उत्तर से समाधान निकल आते हैं यह भी अपेक्षा के अनुरूप ही है। फिर भी कुछ सवाल रह जाते हैं जिनका उत्तर मैं ही दे सकता हूं।

मेरे एक मित्र ने प्रश्न किया कि आप प्रतिस्पसर्धा को घृणा कैसे मान सकते हैं। उत्तर में मैंने कहा, यह एक लेखमाला की कड़ी है, सर्वसमाहारी लेख नहीं। अपेक्षा की कि वह प्रतीक्षा करें। परन्तु प्रतीक्षा की भी कोई सीमा तो हो।

उनकी आपत्ति सही थी। प्रतिस्‍पर्धा में दिमाग काम करता है, हम दूसरे से आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं, घृणा एक ऐसा प्रबलआवेग है जिसमें विवेक काम करता ही नहीं। यह विवेक को भी नियन्त्रि त करने लगता है। यह अन्तर हम पहले रेखांकित कर आए हैं। पर साथ ही यह भी याद दिला चुके हैं कि कैसे अपनी अयोग्य ता के कारण और अपनी आकांक्षा की प्रबलता के वशीभूत हम जिसके समकक्ष नहीं आ पाते उससे अपने अनजाने ही इतनी घृणा करने लगते हैं कि उसे मिटाने पर उतारू हो जाते हैं। अपने ही प्रतिस्पर्धी मित्र के रहते आगे न बढ़ पाने या अपनी ओर से उत्कट प्रेम करते हुए अपनी प्रमिका को अपना न बना पाने आदि जैसे मामलों में अकल्पनीय अपराध होते हैं। इन पहलुओं की ओर बार बार ध्यान दिलाना संभव नहीं है, परन्तु यदि आप के निजी निष्कर्ष के अनुरूप किसी दिन का विवेचन न जाय तो उसे पूर्वकथित और आगे कथनीय की परिधि में रख कर समझें, धैर्य धरें और फिर सटीक प्रश्न करें। प्रमाण, औचित्य और भिन्न तार्किक परिणति के अनेक बिन्दु मेरे लेखन में मिल सकते हैं और वहां आपके हस्तक्षेप से मुझे अपने लिखित को संशोधित करन ेमें भी मदद मिलेगी और पाठकों को पुनर्विचार का अवसर ही नहीं मिलेगा, अभ्यास भी होगा जो मेरे मन्तव्य से सहमत होने से बड़ी उपलब्धि है।

Post – 2017-02-08

हिन्दुत्व से घृणा का इतिहास – 34
(मिला मिला न मिला फिर भी कुछ मिला तो सही. हुआ हुआ न हुआ फिर भी कुछ हुआ तो सही )

सर सैयद बहुत सफल आन्दोलनकारी थे। वह अपनी बात मनवाने के लिए किसी हद तक जा सकते थे – मुसलमानों को यह समझाना हो कि ईसाइयों से तो हमारा कभी झगड़ा हो ही नहीं सकता, या यह कि अंग्रेजों को इस बात की पूरी छूट होनी चाहिए कि वे हमें मनमाना लूट सकें; या यह कि अंग्रेज गए तो हमारे दिन भी लदे और हिन्दुओं को भी बुरे दिन देखने होंगे, क्योंकि उनके चले जाने पर सत्ता का जो संघर्ष होगा उसमें जीत हार किसी की हो, यूरोप की दूसरी ताकतें हमला करके इस देश पर कब्जा कर लेंगी और उनका शासन अंग्रेजों से बहुत अधिक क्रूर होगा; या यह कि कांग्रेस की स्थापना हिन्दुओं के हित के लिए हुई है; या यह कि कांग्रेस में कोई इज्जतदार मुसलमान शामिल हो ही नहीं सकता – कुछ को जोर जबरदस्ती शामिल किया गया है तो कुछ को पैसा दे कर खरीद लिया गया है, कुछ को फर्जी रईस करार दिया गया है तो एक दो ऐसे भी हैं जो अभी गलतफहमी में हैं पर कल को संभल जाएंगे; या यह कि हिन्दुस्तान का भला इसी में है कि हिन्दू मुसलमान दोनों में आपसी भाईचारा हो, तभी हम आगे बढ़ सकते हैं, परन्तु ऐसा अंग्रेजी राज्य के अधीन रह कर ही किया जा सकता है; चाहे यह कि यदि हिन्दू भार्इचारे की बात नहीं समझते तो कौमी दंगे होंगे ही, जो दबे सुर में जिन्ना की सीधी कार्रवाई की धमकी का पूर्वपाठ है; या यह कि उर्दू मुसलमानों की जबान है।

वह बहुत अच्छे आशुवक्ता थे और बहुत अच्छे वकील, जो गलत को भी सही सिद्ध कर सकते थे। इनमें से अधिकांश पहलुओं पर हम पीछे की कुछ पोस्टों में विचार कर आए हैं और यह भी निवेदन कर आए हैं कि अपनी समझ से वह अंग्रेजी राजशक्ति का अपने लिए उपयोग कर रहे थे, जब कि राजशक्ति उनका उपयोग अपने लिए कर रही थी। इस उपयोग के लिए उन्होंने अपने को स्वयं योजनाबद्ध रूप में समर्पित कर रखा था और इसलिए जैसा कि कभी मृणाल पांडे के साथ एक साक्षात्कार में एक प्रतिभाशाली नवोदित कलाकार ने स्वीकार किया था, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, सर सैयद अपनी ओर से ही बहुत कुछ खो कर राजशक्ति को याद दिलाते रहते थे कि अब तो कुछ दो । पर पीठ की थपकी मिली या वास्तव में कुछ हासिल हुआ ?

एक शोधनिबन्ध एक पाकिस्तानी ने एक फ्रेंच विद्वान के साथ मिल कर लिखा था जो पाकिस्तान जर्नल आफ History में शशश यह दयद 1964 में प्रकाषित हुआ था। अब तो लेखक का नाम भी याद नहीं पर इससे फर्क नहीं पड़ता । उसमें उसने हंटर की उस पुस्तक को ही आधार बना कर उस समय से ले कर 1947 तक प्रत्येक दस साल की तालिकाएं तैयार की थीं और उनका पूरे भारत के प्रत्येक प्रान्त में हिन्दू और मुस्लिम आबादी और इनको उपलब्ध पदों का लेखा दिया था। उसका निष्कर्ष यह था कि आबादी को देखते हुए मुसलमानों और हिन्दुओं को जितने पद तब मिले थे वे गलत न थे, कि ये सभी छोटे और मझोले पद थे, उच्च पदों पर अंग्रेज ही पदासीन थे। मुझे इस लेख की इसलिए याद है कि 1968-70 तक जब मैं नेषनल लाइब्रेरी का सदस्य था और मेरी सीट भी रिजर्व थी मेरे सामने की सीट पर जया मुखर्जी जो मध्यकालीन इतिहास पर शोध कर रही थी, बैठा करती थी। मैं तो प्राचीन इतिहास और वेदादि का अध्येता, पर एक बार जब चर्चा में मैंने इस लेख का हवाला दे कर उसके निष्कर्ष बताया तो उस पर मेरा बड़ा रोब पड़ा था, उसे लगा पुरानी पोथियों का यह पाठक सड़ा हुआ नहीं, पढ़ा लिखा है और इसके बाद बताने को कुछ रह ही नहीं जाता।

इस बात को समझने में आपको दिक्कत होगी कि सर सैयद अपनी सेवा के बदले शब्दातीत संवाद में निवेदन करते हमारी कौम को कुछ दो, कुछ दो, और उन्हें यह भ्रम भी होता कि उन्हें कुछ मिल रहा है, जैसे सर सैयद को ही इतना महत्व जो किसी भारतीय के लिए कल्पनातीत था, परन्तु उस समुदाय के लिए केवल drug, जिसके अर्थ तो दवा और नषा दोनों होते है, पर असर से पता चलता है कि वह पदार्थ था क्या।

इसका मर्म यदि समझ में न आ रहा हो तो इस रूप में समझें कि 1871 से 1947 तक के छिहत्तर सालों में ब्रिटेन ने मुसलमानों को केवल एक वहम दिया कि हम न रहे तो तुम मिट जाओगे क्योंकि तुम संख्या में कम हो और लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासन तुम्हारे हाथ में न रहेगा, तुम्हारे मध्यकाल के कारनामें ये हैं, वे तुमसे इसका बदला लेंगे इसलिए उनसे बचो। हम और केवल हम तुम्हें सुरक्षा दे सकते हैं, इसलिए तुम तभी तक सुरक्षित हो जब तक हम हैं। इसे सर सैयद अहमद से ले कर बाद तक के मुस्लिम लीगी नेताओं ने मार्फिया के इंजेक्षन की तरह निर्विरोध ग्रहण किया!

यह बात यदि समझ में न आ रही हो कि कुछ दिए बिना, देने का इतना बड़ा नाटक खेलते हुए, अंग्रेज उनके मन में कैसे इस विष्वास को कायम रख सके कि वे मुसलमानों के हितैषी और हिन्दू उनके दुष्मन, कि कांग्रेस जो सबको साथ रखना चाहती है, हिन्दुओं की पार्टी है और उससे तुमको खतरा है इसलिए तुम उससे न जुड़ कर मेरे आश्रय में सुरक्षित रहो तो आपको इस बात पर ध्यान देना चाहिए किं कांग्रेस उसी नीति पर चलते हुए, वही बानी बोलते हुए, उसी तरह की दहशत पैदा करते हुए, वैसे ही आश्वासन देते हुए, उनके जनमत का अपने लिए उपयोग करती रही जिनमें ऐसे वादे भी थे जिनसे हिन्दू समाज से उनकी दूरियां बढ़ें! अब समाजवाद दलितवाद ने वही फिकरे अपना लिए हैं और आज तक मुसलमानों को सब्ज बाग दिखा रहे हैं। परन्तु यदि 1947 से 2016 की वैसी ही दससाला तालिकाएं बनाई जाएं तो क्या कोई यह कह सकता है कि मुसलमानों को कांग्रेस के कारण कुछ अतिरिक्त मिला। मिला तो, इस नारे का उपयोग करने वाले कुछ मुस्लिम नेताओं को, जो ही वाचाल होते हैं और जनमत को अपने लिए इस्तेमाल कर लेते हैं, पर साधारण मुसलमानों को नहीं। उपलब्धि के नाम पर यह दावा कि दलित तो मुसलमानों और ईसाइयों में भी हैं और आरक्षण का लाभ उन्हें भी मिलना चाहिए। हिन्दू इसे जानते थे यह झांसा है, इसलिए वे कांग्रेस से विमुख नहीं हुए, परन्तु पहली बार जब मनमोहन सिंह की जबान का इस्तेमाल करते हुए, ईसाइयत को आगे बढ़ाने के मुहिम में, सोनिया चालित कांग्रेस ने यह सोच कर कि उसकी सत्ता अचल अटल है जब तक मुस्लिम जनमत को चुंबकीय नारों से अपनी ओर खींचने की उसमें शक्ति है, और इसलिए अल्पमत के भीतर एक नये अल्पमत को उभरने की भूमिका तैयार करते हुए यह दावा किया कि इस देश पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है तो संतुलन बिगड़ गया। इसका सन्देश कितनी दूर तक पहुंचा यह कहना कठिन है परन्तु इतना तो पहुंचा ही पहली बार भोर भयो भ्रम निसा सिरानी जागे फिर न नसैहों की सुगबुगाहट आरंभ हो गई।

याददाश्‍त का हाल तो यह है कि अपना नाम भी भूल जाता है और याद करके बताना पड़ता है कि शायद मेरा नाम भगवान है, इसलिए महाभारत का वह श्लोक भला कैसे याद रह सकता है जिसे समझा तो पर रटने का प्रयत्न नहीं किया। उसका सार यह है कि यदि तुम्हारा कोई सात दुश्‍मन भी हो और उससे तुम्हारा कोई काम सधता हो तो उसे सिर पर बैठा लो और जब काम सध जाय तो उसे कच्चे घड़े की तरह पटक कर फोड़ दो।

हो सकता है कुछ विचारणीय पक्ष मुझसे छूट गए हों। परन्तु क्या यह सच नहीं है कि मुसलमानों की भावुकता का उनके ही दूरगामी हितों के विरुद्ध अलग अलग कालों और परिस्थितियों में उनका उपयोग करने वालो ने उपयोग किया है और उनको उनके अनिष्ट के गर्त में छोड़ दिया । इसका निर्णय मेरे वश में नहीं, परन्तु जब तक इसका खंडन नहीं हो जाता तब तक हम यह मानने को स्वतन्त्र हैं कि संरक्षकों ने मुसलमानों के साथ जितना अत्याचार किया है उतना उनका दुश्‍मन भी नहीं करेगा. उनको औजार बना कर अपना भी नुकसान किया है। यह एक खतरनाक निष्कर्ष है जिससे मुझे भी डर लगता है, इसलिए इसका खंडन हो तो मुझे भी राहत मिले ।

Post – 2017-02-08

clarification

मैं सर सैयद अहमद के समग्र व्यक्तित्व का मूल्यांकन नहीं कर रहा हूं इसलिए उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलू छूट गए हैं। व्यक्ति के मूल्यांकन की दृष्टि से देखें तो उनके प्रति कुछ अन्याय भी हुआ। उनकी चर्चा देख कर मित्रों के मन में उन पहलुओं को लेकर भी जिज्ञासाएं होती हैं। हमारी चर्चा में मुख्य रूप से वे प्रसंग आए हैं जो भारत के सामाजिक संबंधों को प्रभावित करते हैं। इनमें कुछ बातों के लिए उनको जिम्मेदार भी माना गया है। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि सर सैयद अहमद न हुए होते तो हमें जिस तरह के अनपढ़ या मदरसों मकतबों में तैयार की जाने वाली मानसिकता वाले मुसलमानों से पाला पड़ता जिनकी जहनियत और उसके भारत पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बहुत अच्छी बातें नहीं सोची जा सकतीं। वह मुसलमानों का पुरातनपंथिता से हटा कर ज्ञान विज्ञान, प्रौद्योगिकी, व्यापार आदि की दिषा में प्रवृत्त करना चाहते थे और उनका ही साहस था कि वह कुरान का भी विज्ञानसम्मत पाठ करते हुए चेतना के रूप को बदलना चाहते थे। उनकी कही गई बहुत सी बातें अवसर, श्रोताओं की अपेक्षाओं और उनके मनोविज्ञान को देखते हुए उनमें उत्साह पैदा करने के लिए कहा गया था। कुछ के अन्य कारण भी थे ।
यह सच है और इसे मैं पहले कह आया हूं कि उनकी चिन्ता मुस्लिम रईसों, जमीदारों या संभ्रान्त वर्ग की आर्थिक दषा में आ रही गिरावट को लेकर थी। उन्नीसवीं शताब्दी में सामाजिक और लैंगिक समानता की बातें करना या इस पर सोचना तक अपवाद हो सकता था, नियम नहीं। जमीदारों के बाद कारीगर और मजदूर ही बचते थे जिनकी सामाजिक आर्थिक हैसियत में सुधार लाने की बात कोई न सोचता था। कारीगर तो जैसे पहले थे वैसे अब क्योंकि उनको अपने श्रम और कौषल का ही भरोसा था जिसमें कई कंपनी की नीतियों के कारण मामूली गिरावट आई थी। पर हिन्दू मुसलमान सभी इस खयाल के थे कि यदि उनकी दषा सुधर जाएगी तो उन्हें नौकर चाकर कहां से मिलेंगे। महिलाओं की षिक्षा के बारे में वह इसलिए नहीं सोच सकते थे कि महिलाएं कमाने नहीं जा सकती थी। योग्यता हासिल करने का एक ही उद्देश्य था नौकरी पाना । आज हम पश्चिमी जगत में महिलाओं की दशा को देख कर उनकी समकक्षता की बात करते हैं, उनकी महिलाए पर्दा तो नहीं करती थीं पर पहले विश्व।युद्ध से पहले काम काज के मामले में उनकी हालत एषियाई देशों से बेहतर न थी। सच कहें तो दूसरे महायुद्ध में सभी देशों के पुरुषों को लामबन्द किए जाने के बाद ही उनको भी दफतरों और काम माज की जगहों पर जाने की बाध्यता अनुभव हुई और फिर तो उनकी मांगें बढ़ती गई। अनेक देशों में, यहां तक सोवियत संघ में भी औरतों को उसी काम के लिए पुरुषों के बराबर वेतन नहीं मिलता था। अमेरिका में तो अपने नौजवानों को साम्यवादी प्रभाव से मुक्त करने के लिए मौज मस्ती और नषाखोरी के साथ जो जी आए करो की छूट दी गई। छूट के सभी रूप किसी समाज या समुदाय को मुक्ति देने वाले ही नहीं होते, कुछ उनका अमानवीकरण भी करते हैं। व्यावसायिक विज्ञापनों ने औरत को मुक्ति नहीं दी, उसकी देह को बिकाऊ माल में बदल दिया। देह हो व्यापारिक उपयोग का बनाने का धन्धा तो बहुत पुराना है, हाल में उसे कुछ अधिक भाव दिया जाने लगा है। यूरोप में इन सारी बन्धन मुक्तियों के बाद भी यदि ‘पूर्णमुक्ति, होती तो वहां नारीवादी आन्दोलन न होते हां, यह सच है कि उन्होंने स्त्री शिक्षा पर पहले से ध्यान देना आरंभ किया और उनके विदुषी महिलाएं पहले से देखने में आती हैं! सर सैयद अहमद की सोच क्या थी इसे उनके कुछ कथनों से समझा जा सकता हैः
1. Acquisition of knowledge of science and technology is the only solution for the problems of Muslims.

2. Call me by whatever names you like. I will not ask you for my salvation. But please take pity of your children. Do something for them (send them to the school), lest you should have to repent (by not sending them)

3. We will remain humiliated and rejected if we do not make progress’’ (in scientific field)

4. Get rid of old and useless rituals. These rituals hinder human progress.

5. Superstition cannot be the part of Iman (faith).

6. The first requisite for the progress of a nation is the brotherhood and unity amongst sections of the society.

7. Religion is the word of God and our surroundings are the work of God. And explanation of the existence of work of God is science. No contradiction is possible between science and religion as word of God cannot be opposition of work of God. If a contradiction between religion and science exists in a mind then it indicates cloudy thinking and therefore one should try to clear his thinking.

Post – 2017-02-07

हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – ३३

भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में राजनीतिज्ञों के हस्तक्षेप से दोनों का अहित होता है, यह हस्तक्षेप कितने ही गहरे या लुभावने सरोकार से क्यों न किया गया हो । राजनीतिज्ञों को दोनों की समझ नहीं होती। इतनी फुर्सत ही नहीं होती कि वे इनमें गहरी रुचि ले सकें और इनकी प्रकृति को समझ सकें। लेने लगें तो फिर राजनीति जैसे क्षेत्र में रुचि न रह जाएगी।

राजनीति में सफलता साधनों की प्रकृति निर्धारित करती है अतः इसमें अनुयायियों की एक फौज तैयार करनी होती है जो अपने नेता के कहने पर चलते हुए उस लक्ष्य को पाने को तत्पर रहती हैं। यही कारण है कि राजनीतिक संगठनों की प्रकृति सैन्य संगठनों से अभिन्न हो जाती है। सेना और युद्ध दोनों समाज में पाशविकता के अवशेषों के प्रमाण है अतः संस्कृति विरोधी तो हैं ही, अनुशासन के कारण सेना के पास जबान नहीं होती, असहमति की छूट नहीं होती, अतः वह वाचाल गूंगों की जमात बन जाती है जिसके पास शब्द हो सकते हैं, भाषा नहीं हो सकती।

भाषा सोच, असहमति, पुनर्विचार और निर्णय की संभावनाओं के बीच ही जिन्दा रह सकती है इसलिए सरकारों द्वारा भी किसी भाषा को लादा जा सकता है, उसका विकास संभव नहीं। भाषा का यान्त्रिक विकास यन्त्रमानव ही पैदा कर सकती है जो आग्रही हो सकते हैं, समझदार नहीं।

सच तो यह है कि भाषा और संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी और इनका विकास इतना रहस्यमय है कि इनको नैसर्गिक और जीवन्त विकास कहा जा सकता है। इसके कारण ही इन दोनों की प्रकृति सर्वाधिक जनतान्त्रिक होती है जिसमें जन का अनर्गल भी रच पच जाता है, परन्तु हस्तक्षेप से डाला गया शिष्ट और सुरुचिपूर्ण भी असह्य और अग्राह्य हो जाता है।

सर सैयद अहमद ने उर्दू की इतनी चिन्ता न की होती और भाषाई लोकतन्त्र का सम्मान किया होता तो कुछ लोगों की इस मांग का विरोध करने की बात सोचते ही नहीं कि अरबी लिपि में लिखी उर्दू के साथ नागरी लिपि में लिखी हिन्दी में भी शिक्षा पाने और अपनी बात कहने का अवसर मिलना चाहिए, न ही ऐसी मांग करने वालों को उर्दू विरोधी मानते। जबांबन्दी का यह आलम और वह भी उस दौर में जब उर्दू का ही एक शायर जबांबन्दी पर शिकायत कर रहा था कि यहां तो बात करने को तरसती है जबां मेरी!

यही अधिकार तो मांगा था हिन्दी के हिमायतियों ने। पर दोनों की नजर दो अलग चीजों पर थी। जैसा हम कह आए हैं, सर सैयद को लगा कि पहले तो बंगाली हिन्दुओं ने सारे ओहदे छीन लिये थे, अब हिन्दी प्रदेश में (जिसके लिए आप हिन्दुस्तान का भी प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि तुर्कों के समय मे सुनते हैं हिन्दी प्रदेश को ही हिन्दुस्तान कहा जाता था और इसका प्रमाण है कि बंगाली जनसाधारण हिन्दी भाषियों को हिन्दुस्तानी या पंजाबी मानते रहे हैं) हिन्दू मुसलमानों को उन ओहदों से भी वंचित करना चाहते हैं जो उर्दू के व्यवहार पर टिकी थी। परन्तु वह जिस भाषा का समर्थन कर रहे थे वह जनसाधारण के लिए अरबी लिपि के शिकस्ता प्रयोग के कारण अपाठ्य और अरबी-फारसी गर्भित प्रयोगों के कारण अगम्य लगती थी। इसके कारण इसमें दक्ष दलालों की चांदी थी, जिनमें हिन्दू मुसलमान दोनों शामिल थे, पर मुसलमानों की संख्या अधिक थी।

उनको भाषा नहीं, रोजगार दिखाई दे रहा था और डर यह था कि यदि नागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी का प्रयोग आरंभ हो गया तो वह अग्रता भी गई । हम कहें सर सैयद राजनीतिक होने के कारण भाषा की समस्या को पेट के सिरे से समझ रहे थे जब कि हिन्दी की मान्यता के लिए पुकार लगाने वाले समस्या को जबान के सिरे से समझ रहे थे। रोचक यह कि जिसे इसका फैसला करना था वह अपने जूते के सिरे से इस समस्या का हलाभला करना चाहता था। कहें, सर सैयद पेट की समस्या को जूते की मदद से सुलझाना चाहते थे तो आपको बुरा लगेगा, पर सचाई और उसके परिणाम अक्सर इस इबारत से भी बुरे साबित होते हैं।

उर्दू को अपदस्थ किए बिना नागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को भी स्वीकृति दिए जाने के अनुरोध को सांप्रदायिकता से जोड़ कर पहली बार, संभव है अपने इरादों के विपरीत, या संभव है जो वह कहते थे वह दिखाने के लिए था और जो वह करना चाहते थे वह केवल अपने समुदाय तक सीमित था और उसके हित का जहां किसी अन्य से टकराव हो वहां वह उसके अहित की कीमत पर भी अपना हित साधना चाहते थे। यहीं से उन्होंने दो धर्मानुयायियों के बीच सामाजिक विभेद पैदा किया जो मध्यकालीन दमन और उत्पीड़न से भिन्न था, क्योंकि उसका समाज पर प्रभाव न पड़ा था।

पहली बार जो विभेद शासकीय हुआ करता था उसे सर सैयद ने सामाजिक बना कर इसे सांप्रदायिक समस्या बना दिया और इसके बाद भी कवलग्राही विद्वानों ने सर सैयद को सेक्युलर और भारतेन्दु को कम्युनल सिद्ध कर दिया और हिन्दी समाज इसे तालियां बजाते हुए चूसता भी रहा।

यह कहना गलत होगा कि इसी कम्युनल सोच का परिणाम था सर सैयद का आमंत्रण के बाद भी कांग्रेस में शामिल न होना, क्योंकि उनका यथार्थबोध यह मानता था की इस अवस्था में मुसलमानों का भी कांग्रेस में सम्मिलित होने का अर्थ होगा कांग्रेस को पूरे देश का समर्थन, जब कि शिक्षा में पिछड़ा मुस्लिम समाज इसका लाभ उठा नहीं पाएगा, उठाएंगे हिन्दू और मुसलमान और भी पिछड़ जाएगा। उसे एकपक्षीय सरकारी समर्थन से भी हाथ धोना पडेगा! यह सोच गलत नहीं थी, फिर भी सही नहीं थी क्योंकि इससे सांप्रदायिक अलगाव और तीखा हो गया।

जो समस्या मुसलमानों की थी, वही बंगाल से बाहर के हिन्दुओं की थी। सभी पिछड़ गए थे और सभी को अपने उन्नयन के लिए अवसर की तलाश थी। पिछड़ने का कारण हिन्दू या मुसलमान होने से अधिक आधुनिक शिक्षा से वंचित रह जाना था। मुसलमानों के मामले में समस्या अधिक जटिल थी, उनका अंग्रेजी शिक्षा से मजहबी विरोध था। हिन्दुओं की समस्या उच्च शिक्षा की सुविधाओं का अभाव मात्र था। शिक्षित हो कर वे अपनी दशा सुधार सकते थे। इसे छोड़ कर उर्दू के सवाल को अग्रता दे कर मामूली रियायतों के लिए उन्‍होंने एक अधिक गहरी फांक पैदा कर दी जिसे दिनोंदिन चैड़ा होता जाना था। परंतु जो बात हमें आज गलत लग रही है वह बहुतों को आज भी गलत नहीं लग सकती है और मैं उनको गलत कहने से बचना चाहूंगा!

पर भाषाएं राजनीतिक संरक्षण से न तो जिन्दा रहती हैं न विकास करती हैं! ये अपने साहित्यकारों और चिंतकों के बल पर जीवित रहती और विकास करती और स्‍वीकार्य बनी रहती हैं। जिस भाषा में मीर और गालिब और मोमिन पैदा हो चुके हों वह मर नहीं सकती।, किसी लिपि में बन्द करके, उनका बन्धकों की तरह उपयोग करके जिन्दा रखना चाहो तो वे अपनी कारा तोड़ न पाने के कारण अवश्‍य तब तक के लिए शीतनिद्रा में जा सकते हैं जब तक माहौल न बदले।

जिन भाषाओं में कबीर, जायसी, तुलसी हो चुके हों, सूर और रीति काल के मनोग्राही कवि हो चुके हों, विद्यापति हो चुके हों वे मर नहीं सकतीं, उन तक पहुंचने के रास्ते निकालने होंगे। हिन्दी की प्रकृति से मेल नहीं खाते तो वे नहीं बदलेंगे, हिन्दी में ही लोच पैदा करके उनको अपना अंग बनाना होगा।

भाषा के साथ लिपि नहीं जुड़ी होती, अन्यथा उसका वाचिक अस्तित्व ही संकट में पड़ जाय, पर उसका वैभव अवश्‍य जुड़ा रहता है और वही उसे जीवित रख सकता है। उर्दू को मुसलमानों की भाषा बता कर, उसे क्रमश: मुसलमानों की भाषा और अरबी लिपि में लिखे जाने पर ही मुसलमानों के काम की भाषा बना कर उसकी हत्या की गई पर वह अपने रचनाकारों के बल पर इन दीवारों को पार करके जितना उस देश में जिन्दा है जिससे उसको अलग किया गया था, उतना उस देश में भी नहीं जिसे उसको बसाने के लिए बनाया गया था।

Post – 2017-02-07

प्रसंग भोजपुरी का

मैं हिन्दी में एम.ए. करने तक हिन्दी नहीं बोलता था, भोजपुरी ही मुंह से निकलती थी। मैं उन लोगों में था जो मानते थे कि हिन्दी क्षेत्र के विविध भाषाक्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषाओं का कम से कम एक पर्चा होना चाहिए और इनकी शब्द संपदा, मुहावरों, उक्तियों, लोकगीतो, संस्कार गीतों आदि पर शोधकार्य को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अपनी अपनी भाषाओं के साथ हम सभी का जैसा रागात्मक संबंध होता है वैसा हिन्दी के प्रति किसी का नहीं होता। हिन्दी से हमारा संबंध तार्किक है। हिन्दी हमारी कार्यसाधक भाषा है और इस अर्थ में यह तथाकथित हिन्दी प्रदेश की सर्वमान्य मानक भाषा है। यह शिष्ट भाषा अर्थात् शिक्षालभ्य भाषा है और इस अर्थ में यह संस्कृत के समान है। संस्कृत भी शिष्ट भाषा थी। आज कल शिष्ट अशिष्ट का प्रयोग सभ्य और असभ्य के लिए अधिक होता है इसलिए शिष्ट की जगह शैक्ष का प्रयोग कर सकते हैं। वह कहीं की बोलचाल की भाषा नहीं थी । आप में से अनेक को इस बात पर भी आपत्ति हो सकती है कि भोजपुरी के लिए मैं बोली नहीं भाषा का प्रयोग कर रगा हूँ ! इसका जवाब मेरे कल की पोस्ट में है.
यदि हिन्दी क्षेत्र की सभी भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल हो जायं तो क्या होगा? हिन्दी समाप्त हो जाएगी? नहीं हिन्दी तब किसी क्षेत्र की भाषा नहीं रह जाएगी, और इसके प्रति दूसरी भाषाओं का जो ईर्ष्याभाव है वह दूर हो जाएगा और वह प्रतिरोध जो हिन्दी वालों को लेकर होता है वह शिथिल होगा। यह तब संस्कृत की तरह देशातीत और सार्विक भाषा की दिशा में, सर्वस्वीकार्यता की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसलिए हिन्दी और भोजपुरी या छत्तीसगढ़ी या अन्य किसी भाषा से हिन्दी को प्रतिस्पर्धी या प्रतिरोधी भाषा के रूप में न देखें क्योंकि इन सभी में शिक्षा की भाषा हिन्दी ही है और आगे रहेगी । अभी मैं हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास लेखमाला में व्यस्त हूं। इसमें व्यवधान नहीं डालना चाहता, भोजपुरी पर मैं इसके बाद एक लेखमाला लिखूंगा इसका वचन देता हूं। यहां केवल यह कि भोजपुरी में मैं कभी गीत भी लिखता था और जिस आत्मीयता से लिखता था वह हिन्दी में कविता करने में रागात्मकता कभी अनुभव नहीं हुई। आज मैं यहां उन दिनों के एक गीत की एक कड़ी मात्र रस परिवर्तन के लिए दे रहा हूं ।
मोर बदरा सतरंगी उड़ि उड़ि जाय
मोरे अकास पिजरवां थिर न समाय ।
बदरा भरै जब आंगन बरसै फूल
बदरा तरै जब आँगन बहइ अकूल
बदरा लखइ जब ताल त लहरि अपार
बदरा छुवई जब ताल त भरई कगार !
मोर बदरा सतभंगी मुडि मुड़ि जाय।
मोरे अकास पिजरवां थिर न समाय ।।

Post – 2017-02-06

हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – 32

जिसको भी देखना हो कई बार देखना, हर आदमी में होते हैं दो चार आदमी ! और इन्ही दो चार से दो चार हाथ करते हुए हम किसी व्यक्ति के सामाजिक चरित्र को समझ पाते हैं, उसकी निजता का बहुत कुछ फिर भी छिपा रह जाता है, जिसमें भी एक स्थायी और प्रतिद्वन्द्वी सक्रिय रहता है! इन भिन्नताओं कारण हम एक साथ अपने बहुरूपियापन को बचाए जीते हैं और फिर भी जो चाहते हैं वह हो नहीं पाते हैं- कभी अपनी सीमाओं के कारण, कभी बाहरी परिस्थितियों के कारण, और कभी अपने ही इरादों या मन में आए बदलाव के कारण।

बहुत कम लोग होते हैं जिनके जीवन में एकरूपता का निर्वाह हुआ हो; जहां ऐसा आभास होता है वहां भी अधिक बड़ी भूमिका हमारे अपने सीमित ज्ञान की होती है। सामाजिक सरोकारों से जुड़े व्यक्तियों में यह विविधता असाध्य अन्तर्विरोधो का रूप भी ले लेती है जिससे हम ऐसे किसी व्यक्ति के कथन पर भरोसा न करके उसके कार्य और उसकी परिणतियों पर ही ध्यान दें तो अधिक अच्छा हो।

सर सैयद का एक रूप वह है जिसमें वह कहते हैंः
“If we hate the culture and lifestyle of different societies, however pristine they may be because of sheer prejudice or because of age old traditions, then what vision and hope do we have for our own development and progress?”

और दूसरा रूप वह जिसमें वह हिन्दी को गंवारों की भाषा मानते हैं और उर्दू को शिष्ट जनों की जबान। वह अपनी जबान बोल रहे थे, या जान बीम्स की यह तय करना भी कठिन है । बीम्स खुद भी बहुत अन्तर्विरोधी बातें करते हैं। अपने तुलनात्मक व्याकरण में वह बंगला को इसलिए पिछड़ी भाषा करार देते हैं कि यह तत्समबहुल है, इसका देशज आधार नहीं है और हिन्दुस्तानी को इसलिए विकसित भाषा बताते हैं कि इसमें तद्भव प्रयोग मिलते हैं, यह आम आदमी की जबान है।
परन्तु जब राजनीति करने की बात आती है तो वह इंडियन स्टडीज: पास्ट ऐंड प्रेजेंट में प्रकाशित ‘आउट लाइन्स आफ इंडियन फिलालोजी’, में ठीक उल्टी बात करते हुए फारसी गर्भित हिन्दुस्तानी की हिमायत करते है और उसे धर्म से जोड़ कर मुसलमानों की भावनाओं को भड़काने का प्रयत्न यह कहते हुए करते हैं कि गो हिन्दी क्षेत्र के हिन्दू मुसलमान बोलते एक ही जबान हैं, फिर भी यदि अनपढ़ मुसलमान हो और उसे भी फारसी का कोई शब्द सुनने में आ जाय तो वह अर्थ न जानते हुए भी उस पर मुग्ध हो जाता है।

हम यहां उसके दूसरे तर्कों को जो उतने ही लचर हैं नहीं ले रहे हैं क्योंकि हमारे सामने सांप्रदायिक भेद रेखा और उसके नतीजों को समझने की समस्या है, जिसने प्रतिद्वन्द्विता को पारस्परिक घृणा में बदला या कहें जो पहले से चली आ रही भेदरेखा थी उसे अधिक गहन किया।

सर सैयद अपनी इंग्लैंड यात्रा में इस सीख के साथ लौटे थे कि कोई देश सभ्य तभी हो सकता है जब सभी कलाएं और विज्ञान उसकी अपनी भाषा में सुलभ हों, परन्तु अपनी भाषा उनकी नजर में जनसाधारण द्वारा बोली और उस क्षेत्र के सभी लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा ही हो सकती थी, इसलिए हिन्दी का कोई विकल्प नहीं था।

इसे मान लेने के बाद जैसा कि हम कह आए हैं मुसलमानों के हाथ से वे ओहदे भी छिन जाते जो उनके पास थे। यह एक ऐसी स्थिति थी जिसमें उनके अपने समुदाय के हित या लाभ का टकराव समाज के हित से था, इसलिए वह समाज हित के प्रतिकूल, अपनी जानकारी में भी केवल रईसों के घरों में बोली जाने वाली भाषा को सर्वमान्य बनाने का आग्रह कर रहे थे और सर्वजनग्राह्य लिपि और भाषा का विरोध कर रहे थे।

परन्तु यह बोध हमारा है, इक्कीसवीं शताब्दी का जिसमें भी अभी हिन्दी बचाओ के जंग में ऐसी बोलियों को दबाने का जंग जारी है जो भाषाएं मानी जाती रही हैं । ब्रज के साथ तो भाषा पद भी जुड़ा था, तुलसी के लिए बोलचाल की जबान ही भाषा थी। हम हिन्दी के हित और बर्चस्व से चिन्तित, उसे राजभाषा बनाने को उत्सुक होने के कारण, यदि आज भी भाषाओं को एक ऐसी भाषा को भाषा मनवाने पर आग्रहशील है, जिसे शिक्षा प्राप्त करने के बाद, पढ़े लिखे लोग ही बोल और लिख सकते हैं, तो उन्नीसवीं शताब्दी में सर सैयद अहमद को उनके विचारों के लिए हम गलत नहीं कह सकते।

स्वहित और समुदायहित से जुड़ी बातें गलत होने पर भी सही प्रतीत होती हैं। ये ही वे स्थितियां होती हैं जिनमे जो गलत है वह भी सही लगता है और उसे सही सिद्ध करने के लिए दलीलें दी जा सकती हैं, इसे आप हिन्दी बचाओ मंच पर जा कर देख सकते हैं, पर खटका बना रहता है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है.

हिन्दी की मांग करने वालों ने उर्दू को हटाने का प्रस्ताव नहीं रखा था, स्वीकृति दिलाने या, तब के सन्दर्भ में कहें तो, ऐच्छिक भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था और इसके लिए ही संघर्ष कर रहे थे, परन्तु इसकी परिणति क्या होगी इसे सर सैयद किसी से अच्छी तरह जानते थे और उसी से वह आतंकित थे।
इसे उनके एक दूसरे सन्दर्भ में व्यक्त उद्गार से समझा जा सकता है।
कांग्रेस से दूर रहने, राजनीतिक गतिविधि में भाग न लेने और अपनी अनन्य निष्ठा ब्रिटिश सरकार में व्यक्त करने के पक्ष में उन्होंने अपने मेरठ के भाषण में यह दलील दी थी कि मान लो ऐसी नौबत आ जाती है कि अंग्रेजों को इस देश को छोड़ कर जाने को मजबूर कर दिया जाता है तो होगा क्या? इसे मैं बयान करने चलूं तो चूक हो जाएगी इसलिए उनके अनूदित वाक्यों में ही देखेंः
The first of all is this — in whose hands shall the administration and the Empire of India rest? Now, suppose that all English, and the whole English army, were to leave India, taking with them all their cannon and their splendid weapons and everything, then who would be rulers of India? Is it possible that under these circumstances two nations — the Mahomedans and the Hindus — could sit on the same throne and remain equal in power? Most certainly not. It is necessary that one of them should conquer the other and thrust it down. To hope that both could remain equal is to desire the impossible and the inconceivable.

यह तर्क तो उन्होंने उस जलसे में उपस्थित रईसों और मुसलमानों को अपनी बात का कायल करने के लिए दिया था कि कांग्रेस जिस तरह का प्रशासनिक हस्तक्षेप कर रही है, उसमें एक दिन नौबत यह आ सकती है कि अंग्रेज यहां से चले जाएं. परन्तु सोच लो उस हालत में क्या होगा, एक ही गद्दी पर दो बादशाह नहीं बैठ सकते। इसी तरह एक ही भाषाक्षेत्र में दोनों जबाने नहीं चल सकतीं। एक बार हिन्दी को स्वीकृति मिल गई तो यह उर्दू को अपदस्थ करती चली जाएगी और हमारी सांस्कृतिक अस्मिता समाप्त हो जाएगी।

फिर परिणाम क्या होगा। श्रोताओं में निराशा न घर कर जाए इसलिए उन्होंने समझाया कि घबराने की बात नहीं है। अभी हम कुछ नहीं कह सकते। सब कुछ खुदा की मरजी पर निर्भर करता है:
you must remember that although the number of Mahomedans is less than that of the Hindus, and although they contain far fewer people who have received a high English education, yet they must not be thought insignificant or weak. Probably they would be by themselves enough to maintain their own position. But suppose they were not. Then our Mussalman brothers, the Pathans, would come out as a swarm of locusts from their mountain valleys, and make rivers of blood to flow from their frontier in the north to the extreme end of Bengal.
This thing — who, after the departure of the English, would be conquerors — would rest on the will of God. But until one nation had conquered the other and made it obedient, peace could not reign in the land. This conclusion is based on proofs so absolute that no one can deny it.

यह सर सैयद अहमद की नई सोच नहीं थी। भाषा की समस्या पर उठे विवाद और उसमें एक ही भाषाक्षेत्र में दो भाषाएं चल ही नहीं सकतीं उसी का विस्तार था, इसलिए वह हिन्दी को किसी भी सूरत में स्वीकृति के लिए तैयार नहीं थे।

हम सांस्कृतिक फासिज्म की बात अक्सर करते हैं जिसकी कोई तुक नहीं है, परन्तु भाषाई सांप्रदायिकता की बात आज तक नहीं सुनी जब कि यह मुख्य रूप से उस क्षेत्र की समस्या है जिसे मोटे तौर पर हिन्दी प्रदेश कहा जा सकता है और इसमें स्वाभाविक भाषाओं पर किसी एक भाषा को बल प्रयोग से थोपने का प्रयत्न किया जाता रहा, जो कभी भारत पर अफगानों की मदद से सत्ता हासिल करने या उसमें बराबरी का संघर्ष करने के रूप में कल्पित किया गया और कभी सरकार की मदद से उर्दू को थोपने की जद्दोजहद के रूप में।

भारत की सांप्रदायिक समस्या धर्मकेन्द्रित नहीं रही है, भाषाकेन्द्रित रही है। कोई किसी का बड़े पैमाने पर धर्म बदलने नहीं जा रहा था। पर भाषा बदले बिना या कहें दो में से एक को हटाए बिना रह नहीं सकती थी इसलिए पाकिस्तान की पहचान उर्दू भाषा और अरबी लिपि को बनाया गया और अरबी लिपि को पान इस्लामिज्म का सर्वनिष्ठ तत्व बता कर भावुकता पैदा की गई, न कि मजहब को ले कर ।

यह दूसरी बात है कि जिस भाषा के नाम पर बटवारा हुआ उसके बटे हुए देश का लगातार बटवारा उस भाषा को लादने के कारण हुआ क्योंकि उनकी अपनी भाषाओं की अस्मिता से इसका टकराव हुआ। सांप्रदायिकता के धार्मिक पक्ष को इतना उभारा गया है कि इसके भाषाई मूलाधार को समझा ही नहीं जा सका ।