Post – 2017-02-07

प्रसंग भोजपुरी का

मैं हिन्दी में एम.ए. करने तक हिन्दी नहीं बोलता था, भोजपुरी ही मुंह से निकलती थी। मैं उन लोगों में था जो मानते थे कि हिन्दी क्षेत्र के विविध भाषाक्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषाओं का कम से कम एक पर्चा होना चाहिए और इनकी शब्द संपदा, मुहावरों, उक्तियों, लोकगीतो, संस्कार गीतों आदि पर शोधकार्य को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अपनी अपनी भाषाओं के साथ हम सभी का जैसा रागात्मक संबंध होता है वैसा हिन्दी के प्रति किसी का नहीं होता। हिन्दी से हमारा संबंध तार्किक है। हिन्दी हमारी कार्यसाधक भाषा है और इस अर्थ में यह तथाकथित हिन्दी प्रदेश की सर्वमान्य मानक भाषा है। यह शिष्ट भाषा अर्थात् शिक्षालभ्य भाषा है और इस अर्थ में यह संस्कृत के समान है। संस्कृत भी शिष्ट भाषा थी। आज कल शिष्ट अशिष्ट का प्रयोग सभ्य और असभ्य के लिए अधिक होता है इसलिए शिष्ट की जगह शैक्ष का प्रयोग कर सकते हैं। वह कहीं की बोलचाल की भाषा नहीं थी । आप में से अनेक को इस बात पर भी आपत्ति हो सकती है कि भोजपुरी के लिए मैं बोली नहीं भाषा का प्रयोग कर रगा हूँ ! इसका जवाब मेरे कल की पोस्ट में है.
यदि हिन्दी क्षेत्र की सभी भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल हो जायं तो क्या होगा? हिन्दी समाप्त हो जाएगी? नहीं हिन्दी तब किसी क्षेत्र की भाषा नहीं रह जाएगी, और इसके प्रति दूसरी भाषाओं का जो ईर्ष्याभाव है वह दूर हो जाएगा और वह प्रतिरोध जो हिन्दी वालों को लेकर होता है वह शिथिल होगा। यह तब संस्कृत की तरह देशातीत और सार्विक भाषा की दिशा में, सर्वस्वीकार्यता की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसलिए हिन्दी और भोजपुरी या छत्तीसगढ़ी या अन्य किसी भाषा से हिन्दी को प्रतिस्पर्धी या प्रतिरोधी भाषा के रूप में न देखें क्योंकि इन सभी में शिक्षा की भाषा हिन्दी ही है और आगे रहेगी । अभी मैं हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास लेखमाला में व्यस्त हूं। इसमें व्यवधान नहीं डालना चाहता, भोजपुरी पर मैं इसके बाद एक लेखमाला लिखूंगा इसका वचन देता हूं। यहां केवल यह कि भोजपुरी में मैं कभी गीत भी लिखता था और जिस आत्मीयता से लिखता था वह हिन्दी में कविता करने में रागात्मकता कभी अनुभव नहीं हुई। आज मैं यहां उन दिनों के एक गीत की एक कड़ी मात्र रस परिवर्तन के लिए दे रहा हूं ।
मोर बदरा सतरंगी उड़ि उड़ि जाय
मोरे अकास पिजरवां थिर न समाय ।
बदरा भरै जब आंगन बरसै फूल
बदरा तरै जब आँगन बहइ अकूल
बदरा लखइ जब ताल त लहरि अपार
बदरा छुवई जब ताल त भरई कगार !
मोर बदरा सतभंगी मुडि मुड़ि जाय।
मोरे अकास पिजरवां थिर न समाय ।।