कुछ लोग चुनाव परिणामों की प्रतीक्षा में हैं. उनके लिए जो जीत गया वह सही है. मेरे लिए इसका इतना ही अर्थ है की जो जीत गया उसे अनावश्यक हस्तक्षेप के बिना शासन करने दो. अधिक महत्वपूर्ण है समाज किस दिशा में जा रहा है. उसे गलत दिशा में कौन ले जा रहा है. यदि ग़लत दिशा में ले जाने वाला चुनाव में जीत जाता है तो देश की हार है. इसका फैसला चुनाव प्रचार के दौरान ही हो जाता है. परिणाम के दिन की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती. इस बार सभी दल घटिया तरीके अपना रहे हैं. ऐसे में यदि भाजपा जीत भी जाती है तो मेरे लिए एक ग़लत पार्टी की जीत होगी क्योंकि विकास के मुद्दे पर सबको साथ लेकर चलने के रस्ते से वह हट गई. मोदी को जितनी अंग्रेजी आती है उससे अधिक अंग्रेजी बोलने लगे हैं. कई तरह की हीनभावनाएं सामने आरही हैं. साम्प्रदायिक खेल मुस्लिम वोटबैंक वाले खेलते है. मोदी को उस खेल से बचना चाहिए था. बच न सके, यह उनकी और विकास के नारे की हार है. हारे हुए सभी है, परिणाम के दिन हारेहूओं में से एक की जीत होगी.
Month: March 2017
Post – 2017-03-02
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – ४५
जब हम यह कहते हैं कि मध्यकाल में हिन्दुत्व के प्रति घृणा का सहारा नहीं लिया गया तो इसलिए कि खानपान के भेद बराव को छोड़ कर मुसलमानों मे हिन्दू मूल्यों के प्रति सम्मान भाव था। यहां तक कि जातिभेद और सती प्रथा जैसी बुराइयों को भी वे आदर की दृष्टि से देखते थे। यह उनका धार्मिक जुनून था जिसके लिए उन्होंने सभी समाजों में बलप्रयोग और उत्पीड़न का सहारा लिया। तरीके दूसरे भी थे, पर उनके विस्तार में हम नहीं जाएंगे .
पुर्तगालियों ने अपने प्रचार में मुसलमानों को भी मात देने वाले बलप्रयोग, उत्पीड़न का सहारा लिया। जिस प्रतिरोध का सामना उन्हें करना पड़ा, उस बर्बरता के कारण ही जिस तरह वे हिंदुओं की नज़र में गिर गए, उन्हें हिन्दू मनोबल को यातना के बीच भी अडिग रहने के जैसे नमूनों का सामना करना पड़ा उससे उन्हें अपने तरीके पर पुनर्विचार करना पड़ा। जिस जेवियर्स को संत की उपाधि दी गई और जिसके नाम पर अनेक शिक्षण संस्थाएं भी देखने में आती हैं, उसको क्रूरता के जघन्यतम तरीके अपनाने के लिए जाना जाता है, परन्तु उसे हिन्दुओं के प्रतिरोध के सामने झुकना पड़ा और भारत से बाहर एक बदला हुआ सेंटजेवियर्स दक्षिणपूर्व एशिया की ओर रवाना हुआ।
पुर्तगालियों की समझ में पहली बार आया कि भारत में विचार की ताकत तलवार से अधिक है। वैचारिक ,हथियार तैयार करने के लिए पुराणों का अध्ययन सबसे पहले उन्होंने शुरू किया। सवर्ण पुर्तगालियों को कुजात समझते रहे । भारत में धर्मान्तरण के लिए बल प्रयोग व्यर्थ है, विचारों से ही उन्हें कायल करना अधिक प्रभावकारी है, यह बात उन्हें कुछ देर से समझ आई।
इतालवी धर्म प्रचारक अलबर्तो दि नोबिली मदुरै जाने से पहलेे गोवा में ठहरा था और वहीं उसे यह सीख मिली थी भारत को वैचारिक औजारों का प्रयोग करके अधिक आसानी से धर्मान्तरित किया जा सकता है। फिर तो वह मदुरै में बारह साल के एकान्तवास में हिन्दू जीवनशैली अपनाते हुए – मांस मदिरा से परहेज, जनेऊ, खडाऊं, कमंडल, तिलक, पगड़ी, लकुटी, अधोवस्त्र, उत्तरीय धारण करके ईसाइयों से उसी तरह का छूतछात का भाव रखता जैसे ब्राह्मण करते थे, और इस बीच धन के लोभ में गुपचुप ढंग से धर्मान्तरित ब्राह्मणों से जो समाज में ब्राह्मण के रूप् में मान्य थे, संस्कृत, तेलुगू, तमिल का आधिकारिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद बाइबिल के नैतिक उपदेशों का संस्कृत में अनुवाद करके यह दावा करते हुए सार्वजनिक मंच पर आया कि वह ब्राह्मण है । वेदों का लोप हो गया तो विष्णु ने मीनावतार धारण कर उनका उद्धार तो किया था। चार वेदों का उद्धार तो उन्होंने कर लिया था पर पांचवा वेद समुद्र पार ही रह गया था, उसे लेकर मैं आया हूं।
पांचवे वेद का यही पाठ था जिसका पता किसी सूरत से वाल्तेयर को चला तो वह यह सोच कर बहुत प्रभावित हुआ था कि भारतीय वेदों में तो बहुत कुछ वे ही बाते हैं जो हमारे बाइबिल में है। मैक्डनल ने अपने संस्कृत इतिहास में इसे ब्राह्मणों द्वारा जालसाजी बताया था जो या तो सोच समझ कर फरेब है या जानकारी की कमी के कारण। जो भी हो, अब हथियार के स्थान पर फरेब को हथियार बनाया गया और यह फरेब किसी न किसी रूप् में भारत में ईसाइयत के प्रचार में आज अधिक गर्हित रूप् में विद्यमान है।
भारत में बल प्रयोग बेकार है यह शिक्षा उसके बाद सभी ने ग्रहण की। एंग्लिकन चर्च के ईसाई भी यह पाठ तो सीखने पर विवश थे ही। परन्तु कंपनी के द्वारा उनके धर्मान्तरण की गतिविधियों पर रोक लगाने के कारण हो, या अफीम का असर प्रचार के आवेश में घुस आने के कारण, इन ईसाइयों ने हिन्दुत्व के प्रति उस तरह घृणा को हथियार नहीं बनाया था जैसा चाल्र्स ग्रांट के बाद के ईसाइयों ने जो आज तक करुणा और घृणा का ऐसा घोल तैयार करते हैं कि हिन्दुत्व के प्रति घृणा प्रबुद्ध कहाने को लालायित हिन्दुओं के लिए भी एक श्लाघ्य आकांक्षा बन चुकी है।
इसकी उचित विस्तार से चर्चा हम सबसे बाद में करेंगे, यहां यह उल्लेख इसलिए करना पड़ा कि हमारे एक मित्र ने यह मत प्रकट किया था कि ईसाइयत इस्लाम से अधिक सदाशय थी और है, और वह उन बर्बर तरीकों को अपना नहीं सकी। मैं केवल यह निवेदन करने के लिए इस इतर दिशा में मुड़ गया कि इस्लाम ने क्रूरता का पाठ ईसाइयत से सीखा था और किसी भी चरण पर उसने उतनी जघन्य हिंसा और विनाश का सहारा नहीं लिया जितना पोपतन्त्र ने लिया था जिसे मैं ईसाइयत के उस सन्देश से भटका हुआ मानता हूं जो ईसा के उपदेशों में है। बाकी सारा ईसाई पुराण है और पोपतन्त्र का अंग है, बहुत बाद में रचा गया है और इसका कुछ अंश छठी शताब्दी तक आता है जो इस्लाम के जन्म का समवर्ती हो जाता है। यहां इतना ही कि ईसाइयत का चरित्र इस्लाम से भी अधिक गर्हित है, पोपतन्त्र इस्लाम से अधिक पिछड़ा है और इसके बावजूद वह अपनी कूटनीतिक चातुरी से अपनी घृणित योजनाओं के लिए इस्लाम को सह अपराधी और फिर मुख्य अपराधी और अन्ततः एकमात्र अपराधी सिद्ध करने में सफल हो रहा है।
मैं चाहता हूं कि हम स्वयं सूचनाएं जुटाएं, स्वयं व्याख्या करें, पश्चिमी प्रचारतन्त्र से बचे और अपने स्तर पर सावधान रहें । कारण कोई कल्पनाजीवी ही उन प्रवृत्तियों से गुदगुदी अनुभव कर सकता है जिसके कारण भारत में स्वयं मुसलमानों के अनुसार जनसंख्या का अनुपात बदला है, जहां संतुलन हिन्दुओं के विपरीत हो गया है वहां हिन्दुओं का सम्मान से जीना असंभव बना दिया गया है और जिन मुद्दों पर कायदे का चुटकुला तक नहीं बन सकता उनको राष्ट्रीय संकट बना कर पेश किया जाता रहा है जबकि उनको सामाजिक न्याय और औचित्य के आधार पर भी सही नहीं ठहराया जा सकता।
आज की पोस्ट में मैं उस संकट के गहराने का चित्रण करना चाहता था जिनमें अंग्रेजो की दहशत ने मुसलमानों के नेता का इस्तेमाल करके अपना संकट मुसलमानों के सर डाल दिया और वह भी तब जब उसे जल्ल तू जलाल तू आई बला को टाल तू तक कहने नहीं आया था।
मैं तीन गलतफहमियों को दूर करना चाहता हूं जो आधुनिक प्रचारतन्त्र द्वारा पैदा की गई हैं और प्रचारतन्त्र हमारे हाथ में नहीं है इसलिए उस पर प्रकट या परोक्ष उन लोगों का अधिकार है जो उसे अपने ढंग से विकसित कर सकते हैं और अपने सूचनातंत्र के दबाव में दूसरे समाचार माध्यमों और विचार माध्यमों को ले सकते हैं, और दूसरे उनके नियंत्रण में हैं जो पैसे के लिए अपनी अन्तरात्मा और अपनी मां को भी बेच सकते हैं।
यह न समझें कि ये आज पैदा हुए हैं, ये पहले से थे, और किसी ने ठीक ही कहा था कि भारत के योद्धा भी भाड़े के योद्धा थे, उनमें अपने देश, जाति और धर्म का सम्मान न था जिसके लिए किसी दूसरे देश का आदमी अपने प्राण दे देता है पर समझौता नहीं करता । यदि ऐसा न होता तो हिन्दू राजा मुसलमानों का सिपहसालार बन कर हिन्दुओं को लूटता, अपमानित करता और लूट का माल मेरा, जीता हुआ इलाका बादशाह का दहाड़ता हुआ अपना उपयोग करने वालों की नजर में सवाई राजा न बन जाता।
हमारी सबसे बड़ी समस्या सांप्रदायिकता की नहीं, राष्ट्रीय निष्ठा के अभाव की है जिसको जाग्रत करने के सही प्रयास नहीं किए गए, इसलिए हमे आंख के सामने अपना दुशमन दिखाई देता है जो अपना भाई है, पर उसे रोबोट की तरह इस्तेमाल करने वाला दिखाई नहीं देता। अक्ल इतनी कम है कि मैं अपने मित्रों के बीच भी यह सोच पैदा नहीं कर सकता, प्रयत्न जारी रहेगा और वही हमारे वश में है। परन्तु आज में अंग्रेजों में बढ़ती जिस आशका का जो दहशत का रूप लेने लगी थी, चर्चा करना चाहते था वह तो रह ही गया।
Post – 2017-03-01
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – 44
हमने जब कहा था कि अंग्रेजों को जिस व्यक्ति की तलाश थी वह सर सैयद अहमद के रूप में मिल गया और उन्होंने उनका इतनी सूझबूझ से इस्तेमाल किया कि वह इस भरम में जीते रहे कि वह स्वयं अंग्रेजों का इस्तमाल अपने ‘कौमी’ हितों के लिए कर रहे हैं। हम इस पर बाद में कुछ विस्तार से चर्चा करेंगे। यहां इतना ही कि वे चाहते थे कि भारतीयों को उनकी उसी शिक्षा तक ठहरा रहने दिया जाय जो अब तक उन्हें दी जा रही थी। इसके अलावा वे मामूली शिक्षा अंग्रेजी की देना चाहते थे जिसमें भाषा का ज्ञान तो हो पर आधुनिक विषयों की जानकारी न हो या विज्ञान और प्रौद्योगिकी से दूर रखा जा सके। वे प्रयत्नपूर्वक पुरातनपंथी सोच के दफ्तरी उपयोग की जमात पेदा करना चाहते थे इसलिए संस्कृत कालेज और मुहम्मडन कालेज की स्थापना की। न तो सस्कृत कालेज में अरबी और कुरान और हदीस की शिक्षा मिल सकती थी न ही हिन्दू छात्र मुहम्मदन कालेज में पढ़ने जा सकते थे। पर इस अलगाव का शरारत पूर्ण और विद्वेष फैलाने वाली व्याख्या अवश्य कर सकते थे। और यही स्थिति कानून के मामले में भी थी।
हम पीछे कह आए हैं कि प्राच्यज्ञान की गुणगाथा के पीछे भी सोची समझी चाल थी। मैकनाटन के जिस कठोर वाक्य का हम हवाला दे आए हैं उसके पीछे भी यह सोच थी कि यदि कंपनी के अधिकार क्षेत्र में ईसाइयत के प्रचार की छूट मिली तो धीरे धीरे भारतीय यूरोपीय संस्थाओं से, लोकतन्त्र से परिचित होंगे, प्रशासन में अपना प्रतिनिधित्व मांगेंगे और ऐसा भी दिन आ सकता है कि वे स्वतन्त्रता की भी मांग करने लगें। इस दहशत से भी धर्मप्रचार को हतोत्साहित किया जा रहा है, यह मैं चार्ल्स ग्रांट के उस प्रस्ताव में पाते हैं जिसका उसने कंपनी के बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स को भारत में ईसाई धर्मप्रचार के पक्ष मे अपना तर्क देते हुए उल्लेख किया थाः
The grand danger with which objection alarms us is, that the communication of the Gospel and of European light, may probably be introductive of a popular form of government and the assertion of Independence.
इसका जो समाधान ग्रांट को सूझ रहा था वह उस धारणा के अनुरूप था जो उसने हिन्दुओं के बारे में बना रखी थीः
Upon what grounds is it inferred, that these effects must follow in any case, especially in the most unlikely case of the Hindoos? The establishment of Christianity in a country, does not necessarily bring after it a free political constitution. The early Christians made no attempts to change the forms of government; the spirit of the Gospel does not encourage even any disposition which might lead to such attempts. Christianity has been long the religion of many parts of Europe, and of various protestant states, where the forms of government is not popular. … it may subsist under different forms of government, and in all render men happy, and even in societies flourishing, where the Mahomedan and Hindoo systems are built upon the foundations of political despotism, and adapted in various instances, only to the climates that gave them the birth.
परन्तु सबसे रोचक था उसका यह दावा कि बंगाल की जलवायु और इसके प्रभाव से भारतीयों में आजादी के लिए संघर्ष का आवेष पैदा ही नहीं हो सकताःNor are we to expect, that Christianity is entirely to supersede the effects of physical causes. The debilitating nature of the climate of our eastern territories, and its unfavourable influence upon the human constitution, have been already mentioned, and by others represented in strong colours.
ग्रांट ने ब्रिटिश ट्रांजैक्शन्स इन हिन्दुस्तान के लेखक का हवाला देते हुए उनकी कमजोरी, मेहनत से बचने की प्रवृत्ति और खतरे उठाने से बचने की आदत आदि का हवाला दिया है जब कि वह मानता है कि दूसरे प्रान्तों के लोगों का स्वभाव इससे अलग है। 1797 तक कंपनी की बादशाहत मुख्यतः बंगाल तक सीमित थी और तब इससे बाहर तक के विस्तार और उससे उत्पन्न होने वाले खतरों और समस्याओं का अनुमान तक नहीं किया था। बंगालियों के स्वभाव और दूसरे प्रान्तों के लोगों से उनकी स्वभावगत भिन्नता से असहमत भी नहीं हुआ जा सकता। 1857 का विद्रोह बंगाल से आरंभ हुआ था परन्तु बंगालियों की उसमें कोई भागीदारी नहीं थी, यह दूसरे प्रान्तों के लोगों का, विशेषतः हिन्दी प्रदेश का विद्रोह बन कर रह गया था जिसके कारण हिन्दी प्रदेश को असुविधाओं और उपेक्षा का सामना भी करना पड़ा।
परन्तु यहां हम उस आशंका का आकलन कर रहे हैं जिसके कारण अपने शासित क्षेत्र में कंपनी ऐसी किसी भी गतिविधि से, वह धर्मप्रचार ही क्यों न हो, बचना चाहती थी जिससे जनजागृति पैदा हो और वह बढ़ती हुई स्वत्रता की मांग तक पहुंचे। इसी कारण वह भारतीय समाज को मध्यकालीन विवादों में उलझाए ही नहीं, उन्हें इतना उग्र बना कर रखना चाहती थी कि वे उससे बाहर निकल ही न सकें और उसका राज्य स्थायी बना रहे ।
ग्रांट का आकलन गलत नहीं था। ईसाइयत कहीं भी न तो समाज की समानता का उन्नायक बनी न इसने लोकतन्त्र या राष्ट्रभक्ति की भावना पैदा की। जैसा कि तब से आज तक का अनुभव रहा है, ऐंग्लोइंडियनों पारसियों ने कांग्रेस में तभी तक सक्रिय भूमिका निभाई जब तक यह सुविधाओं और अवसरों की मांग तक सीमित थी। बाद में ऐंग्लो इंडियन और ईसाई, जमींदार, रियासतदार, नवाब और रजवाडे़ सभी अंग्रेजी सत्ता के साथ और स्वतन्त्रता आन्दोलन के विरोधी रहे और ब्रितानी सत्ता के हाथों में खेलते रहे जिसके कारण या जिसे सोच कर कांग्रेस को हिन्दू संगठन सिद्ध करने और उसके अभियान में बाधा डालने के तरीके आविष्कार करते रहे और इस बिन्दु पर मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, संघ सभी की भूमिका एक जैसी थी।
जो भी हो, इसी बिन्दु पर हमें राजा राममोहन राय और विद्यासागर की दूरदर्शिता का परिचय मिलता है जिन्होंने आधुनिक चेतना के लिए अंगे्रजी भाषा के ज्ञान और इस भाषा में उपलब्ध ज्ञान के महत्व को समझा और अंग्रेजी के हिमायती बने। राम मोहन राय का अंग्रेजी के समर्थन में खड़ा होना और संस्कृत के माध्यम से शिक्षा देने का विरोध करते हुए यह कथन कि संस्कृत में शिक्षा का अर्थ है समाज को आज से दो हजार पीछे ले जाना इसी चिन्ता को प्रकट करता है।
उनकी चिन्ता भाषा से जुड़ी नहीं थी, लोकचेतना से जुड़ी थी जिसके सन्दर्भ में ही भाषा का औचित्य है। ध्यान रहे कि राजा राममोहन राय निज भाषा का विरोध नही कर रहे थे, संस्कृत के माध्यम से शिक्षा का विरोध कर रहे थे जो निज भाषा नहीं थी। प्रयत्नसाध्य और कष्टसाध्य भाषा थी। वह दो प्रयत्नसाध्य भाषाओं के बीच उसके पक्ष में थे जिसमें उपलब्ध ज्ञान के बल पर एक दूसरा समाज अपनी चतुराई के बल पर इतने बड़े भूभाग का स्वामी बन गया है, जिसके एक टुकड़े के बराबर उसका पूरा देश है।
त्याग, बलिदान, सात्विक जीवन, निस्पृहता आदि कसौटियों पर कसने पर दूसरे बहुत से नेता राय से बड़े सिद्ध होंगे, हमारे किसान नेता बाबा रामचरण दास या राघवदास भी । रोचक बात यह है कि राघवदास ने किसानों को शिक्षित करने का इतना जोरदार अभियान चलाया कि पूर्वोत्तर किसान हाई स्कूलों और कालेजों से भर गया, परन्तु वह भी इनके माध्यम से अंग्रेजी पर भी अधिकार कराना चाहते थे। उनसे पहले मेरे गांव मे मन्नन द्विवेदी गजपुरी जो हिन्दी के लिए समर्पित व्यक्ति थे अंग्रेजी माध्यम का स्कूल खोला था जो चल नहीं पाया। उनके छोटे भाई राम अवध द्विवेदी अंग्रेजी के प्रोफेसर थे।
राजा राममोहन राय को केवल उनके ज्ञान, प्रतिभा और दूरदृष्टि के आधार पर परखा जाना चाहिए। अरबी उन्होंने अपने पिता की महत्वाकांक्षा से मकतब में बैठ कर पढ़ी थी, फारसी का ज्ञान भी उसी क्रम में अर्जित किया होगा। इन भाषाओं का ज्ञान तत्कालीन प्रशासन में उच्च पद पाने के लिए जरूरी था। संस्कृत उन्होंने बनारस जा कर सीखी थी। इसके अतिरिक्त तुर्की और हिब्रू का ज्ञान उन्होंने कैसे प्राप्त किया था इसका मुझे पता नहीं। यही बात उनके अंग्रेजी ज्ञान के विषय में कही जा सकती है। वह अपने स्वभाव में असाधारण मानवतावादी थे और एक ऐसे मत के लिए चिन्तित थे, जिससे भारतीय समाज में धार्मिक कलह को दूर किया जा सके, ईसाइयत के सद्विचारों को ग्रहण किया जा सके और हिन्दू ज्ञान और मूल्य परंपरा की रक्षा की जा सके। यह मेरा आकलन है। जब तक आपको इससे असहमति है, अपनी जगह पर आप ठीक है। हम केवल इतना ही कर सकते हैं कि जिन विभूतियों के चरण स्पर्श तक ही योग्यता हममे नहीं है उनकी आलोचना करते हुए संयत और सभ्य भाषा से काम लें।
मेरा ज्ञान अपूर्ण है, और उसमें अब तक की जानकारी मे लगता है, राजा राममोहन ने दो मोर्चे संभाले, एक था शिक्षा और ज्ञान का आधुनिकीकरण और धर्म-वर्ण-निरपेक्ष प्रसार, दूसरा था ईसाइयत के आक्रमण से बचाव का तरीका जिसके दो पक्ष थे। एक था उन सामाजिक विकृतियों से मुक्ति जिनके प्रचलन से हिन्दुत्व के साथ उन्हें जोड़ लिया जाता है और दूसरा था उस लंगर की तलाश जिस पर भरोसा करके झटकों को झेलते हुए भी अपनी जमीन पर खड़ा रहा जा सके। इस अर्थ में राममोहन राय गांधी से एक शताब्दी पीछे होते हुए भी अपनी चेतना के स्तर पर उनके समकक्ष ही नहीं उनसे आगे भी थे ! उनसे अधिक समावेशी, और इसलिए उनके ईसाइयत की धज्जियां उड़ाने वाले लेखों और टिप्पणियों का असाधारण महत्व है। हम इसके ब्यौरे में नहीं जा सकते, परन्तु जैसा कि सीताराम गोयल का विचार था उनके ईसा प्रेम का ही परिणाम था कि केशवचन्द्र सेन भटक कर उसी संस्था में रहते हुए भी राजा राममोहन राय से उल्टी दिशा में चले गए। इतिहास को हम समझ सकते हैं, इसकी गति को अपने अनुसार चला नहीं सकते। आने वाली पीढ़ियों की सोच और आकांक्षा इसे इतना बदल सकती है कि इसकी पुरानी पहचान ही मिट जाए!