पुरुषसूक्त की भूमिका
गोर्डन चाइल्ड को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने इतिहास के नस्लवादी सोच के बदले सामाजिक आर्थिक संबन्धों को आधार बनाया और ऐतिहासिक सोच की दिशा बदल दी। उन्होंने कृत्रिम उत्पादन या कृषि के आरंभ को एक क्रान्ति के रूप में चित्रित किया और इसकी ही परिणति को नगर सभ्यता के उदय से जोड़ा। उनकी इन स्थापनाओं से असहमति का कोई कारण नहीं। उनके समय तक स्थाई बस्ती और कृषि के प्राचीनतम प्रमाण पश्चिम एशिया से प्राप्त हुए थे और वहां की नागर बस्तियों को भी प्राचीतम माना जाता था इसलिए यदि कृषिक्रान्ति को भी उन्होंने वहीं घटित दिखाया था तो यह भी अपेक्षित ही था। उनके समय से अब तक हमारी जानकारी में बहुत वृद्धि हुई है और भारत में बहुत व्यापक क्षेत्र में नवपाषाण और मध्य पाषाण काल की बस्तियों के प्रमाण मिले हैं। मेहरगढ़ की खुदाई करने वाले जैरिज के शब्दों में पहला किसान भारतीय था। जैरिज के ये विचार हाल के हैं, परन्तु हम पौराणिक स्रोतों की विपुलता, अन्त:संगति और औचित्य के आधार पर हम १९८५ (प्रकाशन १९८७) से ही इसे मानते आए हैं, इसलिए हमारे लिए जैरिज के कथन का पार्श्विक महत्व है।
कृषिक्रान्ति कितनी युगान्तककारी परिघटना थी, यह बताना तो मुश्किल है ही, यह समझाना भी आसान नहीं है कि इसका इतना गहरा बोध भारतीय चिन्तकों में था। ऋग्वेद यज्ञ याज से ओतप्रोत है तो इस विषय में भी किसी प्रकार की दुविधा नहीं रहने दी गई है कि इसमें कृषिकर्म को ही प्रतीकबद्ध किया गया है। यज्ञ का शाब्दिक अर्थ ही उत्पादन है और हाल यह कि जैसे नोचने खसोटने वाले मनुष्यों से खेती को बचाया जाता था उसी तरह के संकट की कल्पना करके वैदिक पुरोधा यज्ञ को बचाने की बात करने लगे थे(पाहि मे यज्ञं पाहि यज्ञपतिम्)। उन्हें यह पता था कि आज जो लोग यज्ञ करते कराते हैं वे कभी सचमुच यज्ञ या खेती करते थे और तब यही धर्म का भी प्रचलित रूप था – यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवा, तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्।
कृषिकर्म का किस कठोरता से विरोध असुरों (अनुत्पादकों )द्वारा लंबे समय तक किया जाता रहा और इस क्रम में कितनी आपदाएं कृषिकर्मियों को उठानी पड़ी, इससे हमारा पूरा साहित्य भरा पड़ा है। देवों कीअपनी घबराहट, उनका चोरी छिपे किए जाने वाले काम और जहां कोई दूसरा उपाय काम न करे वहां छल कपट का सहारा भी इसी विवशता का परिणाम है। अपना दुखड़ा रोने वाले इन्हीं देवों/आर्यों को आक्रान्ता दिखा कर, उस चरण पर जो सचमुच असहिष्णु और उपद्रवकारी थे उनको सताया हुआ सिद्ध किया जाता रहा और इसे हमने मान ही नहीं लिसा, इसी को आधार बना कर अपनी समाज व्यवस्था को समझते समझाते और तूफान खड़ा करते रहे और इस बात का भी प्रयत्न करते रहे किआधार को उलट कर जो कहानियां गढ ली गईं और इतिहास बना कर पढ़ाई जाती रहीं उनकी सत्यता को जांचने परखने का काम न किया. जाय जिससे राजनीतिक खुराफात जारी रहे।
हम विषयान्तर होकर इस तथ्य को यथा प्रसंग इसलिए दुहाते रहते हैं कि इतिहास की समझ वर्तमान की समझ के लिए जरूरी है, किंचित अपरिहार्य है और इसे हतोत्साहित करने वाले इससे इसलिए घबराते हैं कि उनकी जानकारी कम रही हो या नहीं, नीयत में खोट रही है और है।
कृषिक्रान्ति कितनी युगान्तरकारी घटना थी इसका जितना जीवन्त चित्र पुरुष सूक्त में पढ़ने को मिलता है वैसा मार्मिक और तथ्थ्यपरक विवरण अन्यत्र न तो दिया गया है न ही दिया जा सकता है परन्तु हमें भी इसका महत्व इस विषय पर लिखने का निश्चय कर से पहले न सूझा था।
पुरुषसूक्त की रचना से पांच छह हजार साल पीछे जाता है कृषि के आरंभ का इतिहास। इस समय तक सामाजिक शक्ति संतुलन इतना बदल चुका था कि कृषि उत्पादन का विरोध करने वालों में से अनेक समुदाय या उनकी जमात के कुछ लोग कृषि की सफलता से प्रभावित हो कर स्वयं भी खेती करने और देव समाज के अंग बन चुके थे। शेष जनों में वे जो अपनी आदिम वर्जनाओं का सम्मान करते थे, इसलिए स्वयं खेती करने को तैयार तो न थे, परन्तु देवों या खेती करने वालों से अनाज पाने के लिए उनके उपयोग में आने वाली वस्तुएं जुटा कर या प्रसाधित करके उन्हें देने और उसके बदले में अनाज पाने लगे थे, जिनकी सेवाओं ने कृषिविद्या के विकास में या तो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई या किसानों की जिन्दगी को सुख, समृद्धि और उल्लास से भर दिया। जडी-बूटियां, मधु, वन्य फल, पशुओं पक्षियों के शावकों को पकडने, साधने, नियंत्रित करके किसानों को बेचने वाले, उनके लिए पत्थर की कटोरियां, थालियां, प्याले, खरल, मुसल जुटाने वाले, लकड़ी की चीजें बनाने वाले, कोई अन्य योग्यता न होने पर सहायक हो कर उनके श्रमभार को कम करने वाले या खेतिहर श्रमिक बनने को मजबूर होने वाले, और लंबे अरसे के बाद अपनी आदिम वर्जनाओं को भी भूल कर धरती मां की छाती चीरने आदि के काम करने वाले लोग, यदि खेतिहर समाज के स्थाई संपर्क में आए तो शूद्र कहलाए, अल्पकालिक संपर्क में आए तो उनकी पहचान उनके अपने नाम या काम से बनी रही। उदाहरण के लिए जो जन प्रचुर प्राकृतिक संपन्नता वाले पर्वतीय क्षेत्रों के निवासी थे और जिनकी समाज व्यवस्था मातृ प्रधान थी उन्हें फल-कंद जुटाने में अधिक समय नहीं लगाना पड़ता था इसलिए ये अपना अधकांश समय नाचते-गाते, नकल करते, मस्ती में बिताते थे और जाड़े की मार से बचने के लिए ये मैदानी भाग में उतरते थे और नृत्य-अभिनय, कलाबाजी आदि से किसानों का मनोरंजन करते, और बदले में पेट भरने के लिए कुछ अनाज पा जाते। यक्ष, गन्धर्व, किरात, किन्नर आदि को हम उनकी इन विशेषताओं के कारण उनके नाम से जानते हैं। मौसम में सुधार आने पर ये फिर वापस भी चले जाते थे। मातृप्रधानता के मुक्त आचार के कारण इनको स्वर्ग से उतरने वाली और पुन: अपने मनोरम संपन्न क्षेत्र में वापस चली जाने वाली उर्वशियों, मेनकाओं, तिलोत्तमाओं के रूप में ही साहित्य में स्थान मिल सका।
यहां तीन बातों को स्पष्ट करने के बाद ही हम आगे बढ़ें तो अच्छा:
१. पहाड़ों की प्राकृतिक विविधता को जंगलों की कटाई और उनके बदले काठ के लिए लगाए गए पेड़ों की बहुलता के कारण आज हम समझ ही नहीं सकते कि पहले पर्वतीय प्रदेश स्वर्गोपम संपन्न रहे हैं। ऋग्वेद में पहाडों को खाद्य या भोग्य पदार्थों की प्रचुरता – गिरि: न भुज्म, और वृक्षों से ढके होने – गिरय: वृक्षकेशा:. के रूप में याद किया गया है।
२. जिस स्वर्ग से नृत्य और गान में मस्त रहने वाली अप्सराएं उतरती थीं वे ऐसे पर्वतांचल ही रहे हैं, इसका एक प्रमाण कालिदास के शाकुंतल में है। असुरों को परास्त करके स्वर्ग से उतरते रथ का वर्णन गति की सापेक्षता के एक नियम का पूर्वकथन करता है कि वेग से चलते वाहन में बैठा व्यक्ति स्वयं को स्थिर अनुभव करता है और स्थिर वस्तुएं उसके वाहन की गति से भागती दिखाई देती हैं। दुष्यन्त को धरती एक कन्दुक की तरह (धरती गोल है इसका भी उस समय से बहुत पहले से भारत को पता था) ऊपर को उछलती प्रतीत होती है। खैर धरती पर वह पर्वत पर उतरते हैं तो शिशु भरत को शेर के साथ खेलते देखते हैं जहां मेनका अपनी अपमानित पुत्री को ले कर चली गई थी।
३. इस तर्क को समझ न पाने के कारण अपनी कल्पनाशीलता के बाद भी भारतीय समाज की बहुलता को सही पहचानने में द्विवेदी जी चूकते दिखाई देते हैं जब वह इन जनों के कहीं से आने और भारतीय समाज में मिलने की बात करते हैं। ये जन कभी भारतीय समाज में मिले नहीं, जैसे आते थे वैसे ही लौट जाते थेऔर यह क्रम बहुत हाल तक बना रहा है। भारतीय समाज की विविधता को भाषा के सिरे से समझना उपयोगी है, नस्ल या जाति के आधार पर नहीं।
अब हम एक और अड़ंगे को भी पार कर लें। मैंने यह पहले भी कहा था कि भारतीय समाज-विभाजन नस्ल या भाषा या विश्वास के आधार पर नहीं हुआ अपितु कृषिकर्मी (देव, सुर-उत्पादक) और कृषिविरोधी (असुर) के बीच हुआ। इन दोनों में विविध भाषाओं या जातीयताओं के लोग मिले हुए थे।
देव समाज ने कृषि क्रान्ति की, असुर समाज उनका विरोध करता रहा। इसका वह तबका जिसे देर सवेर अक्ल आ गई और उसने स्वयं खेती आरंभ कर दिया वह स्वयं देव समाज का हिस्सा बन गया। यह स्थायी बस्ती बसा कर रहने लगा। इसने भूमि को झाड़-झंखाड़, तृण-गुल्म से रहित करके, उसे समतल करके कृषियोग्य (सुषू मा, सुसद्य, ऊर्जस्वती, पयस्वती) बनाया और भू-संपदा का स्वामी बन गया और इसने संपत्ति के दूसरे रूपों का भी विस्तार और उस पर अधिकार बनाए रखा, यही देव/आर्य/ब्रह्म/कृष्टी/विश समुदाय था जिसे अपने ही जनों के बीच कार्यविभाजन करना था।
अरना भैंसों, नीलगायों, हिरनों आदि से यदि फसल का बचाव नहीं किया गया तो फसल तैयार होने से पहले ही साफ । फसल तैयार होने पर लुंचनकारी असुर समाज से खतरा। कुछ आगे चलकर पशुओं का पालन दूध और श्रम के लिए आरंभ हुआ तो उन पशुओं की हिंस्र पशुओं से रक्षा का प्रश्न। इसके लिए परिवार के तरुण साहसी और जान पर खेल कर भी फसलों और पशुओं की रक्षा (रखवाली) का काम उस समय जब चारों और जंगल ही जंगल थे कितना चुनौती भरा था, रात दिन कितनी चौकसी की मांग करता था, इसका अनुमान हम आज नहीं कर सकते। सबसे अधिक प्यार और सम्मान, जिसे जान निछावर करना कहते हैं वह इन जवानों को प्राप्त था। क्षतात् किल त्रायत् इत् उदग्र: क्षत्रस्य शब्द: भुवनेषु रूढ:। एक दूसरा तबका अशक्त बूढ़ों और बीमारों का था जो श्रम नहीं कर सकते थे, परन्तु छोटे बच्चों को संभाल सकते थे, अपने अनुभव का लाभ उन लोगों को दे सकते थे जो खेती का काम, पशुओं की देखभाल करते या उत्पादन का काम संभालते थे। कहें पूरे विश या देव समाज का भरण-पोषण क्षत्रियों की सुरक्षा और वृद्धों की सलाह से काम करने वालों के ही ऊपर निर्भर था। यह था देवसमाज का आन्तरिक कार्विभाजन जिसके अभाव में यज्ञ या कृषिकर्म असंभव था।
अब यह तर्क भी समझ में आ जाना चाहिए कि आगे चल कर शक्ति और ज्ञान तथा अनुभव में आगे पड़ने वाले क्षत्रिय और ब्राह्मण उत्पादन के काम से जुड़े और साधनों पर अधिकार रखने वाले वर्ण के आश्रित होने के साथ स्वयं उसी की दृष्टि में अधिक समादृत बने रहे और उत्पादन या श्रम कार्य से मुक्त रहते हुए भी उसके द्वारा भार नहीं समझे जाते थे।
दूसरी ओर कृषि का विरोध करने वाले असुर समाज में दो बातें बहुत प्रबल थीं। एक था विधि निषेध जिसका उल्लंघन करने का अर्थ कठोर दंड था जो प्राणदंड तक हो सकता था इसलिए इसमें नियमों का अविचलित होकर पालन किया जाता था। वर्जना की इस कठोरता के देव वरुण हैं। वरुण स्वयं असुर कहे जाते हैं। यह समाज मछियारी से लेकर आखेट तक के लिए अपने परिवेश के अनुसार विविध योग्यताओं, युक्तियों का इस्तेमाल करता रहा। कृषि उत्पाद के लोभ के बाद भी यह अपनी वर्जनाओं के कारण कृषिकर्म से और स्थायी संपदा (जमीन, जायजाद) के झमेले से बचता रहा। इसके एक बड़े हिस्से का वर्णसमाज में समावेश उसकी उन योग्यताओं के कारण हो गया जिनकी देव समाज को आवश्यकता थी, परन्तु शेष खेतिहर समाज के लिए उपयोगी काम करने के कारण शूद्र माने गए और बाद में भी संपदा और इसके स्रोतों से वंचित रहे। किन्हीं विशेष योग्यताओं से शून्य लोग भूश्रमिक बन कर कृषि उत्पादन में वैश्यों के श्रमभार को कम करते रहे और इन्हें वैश्यों के निकट, और समाज का भार ढोनेवाला माना जाता रहा।
अब इस भूमिका के बाद हम कृषिक्रांति पर और पुरुषसूक्त पर विस्तार से चर्चा कर सकते हैं