मैने कल कृषियज्ञ पर लिखते हुए उसमें पुरुष सूक्त को शामिल किया, कुछ ऋचाओं की व्याख्या भी की, फिर लगा आपाधापी में न तो विषय के साथ न्याय हो पाएगा, न सूक्त के साथ, इसलिए इस इरादे से कि इस पर कल लिखूंगा, जो लिखा था उसे काट दिया। कटे अंश को बचाना भी भूल गया। इस समय पुणे में हूं, अपनी पुस्तकें पहुंच से बाहर। सोचा इस पर इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री पर नजर डाली जाय जिस तरह की व्याख्यायें देखने को मिलीं उनसे मन खिन्न हो गय़ा। इतने विवादास्पद और भाषा की सरलता के बाद भी, सर्वाधिक चर्चित सूक्त के विषय में भी समझ का स्तर यह है तो वैदिक अध्ययन की दुर्दशा पर रोया ही जा सकता है। इसलिए मैं अपने विचार कुछ आधिकारिक तेवर से रखने लगूं तो अन्यथा न लें। पूरा लिख भी पाऊंगा, इसका विश्वास नहीं क्योकि इसकी पृष्ठभूमि को स्पष्ट करना बहुत जरूरी है।