Post – 2018-03-29

जल ज्वाला का जनक है
असंपादित

आग और पानी का विरोध है। आग को पानी से बुझाया जाता है। परंतु यदि कोई ऐसी संकल्पना हो जिसमें जल से समस्त सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई हो, उसमें तो पानी और आग में विरोध हो ही नहीं सकता। आग की उत्पत्ति होनी तो जलसे ही है। स्रष्टा स्वयं जल है – रसो वै सः । उसी के मन में कामना पैदा हुई, वह एक से अनेक हो जाए, अनेक रूपों में प्रकट हो जाए। आपो वै सः। सो अकामयत एकोहं, बहु स्याम, बहुधा स्याम। उसी का परिणाम यह सृष्टि। इसमें सबसे प्रधान तत्व अग्नि का है। अग्नि को जल का पोता कहा गया है, अपां नपात । जल का पुत्र बादल और बादल का पुत्र विद्युत । जल में ही अग्नि का निवास है। उसी से उसका जन्म हुआ है और उसी से वह बुझ जाता है। रात के अंधेरे में भी पानी इसलिए चमकता है कि अग्नि उसी में सो जाता है। यह तो रहीं शास्त्रों में लिखी हुई बातें।

मैं जिस बात पर ध्यान दिलाना चाहता हूं वह यह है कि अग्नि के लिए, रंगों के लिए, फूलों के लिए संज्ञा जल की ध्वनियों से मिली हैं इसलिए अनेक बार उसी शब्द का अर्थ जल होता है और उसी में मामूली अदल-बदल करके आग के लिए संज्ञा तैयार की जाती है, जैसे जल और ज्वाला। पश्चिमी व्याख्याकारों को तो यह भी पता नहीं चल सकता कि सन अर्थात सूर्य का जल से कोई संबंध हो सकता हैं हमारे यहां, गलती से ही सही, कभी यह माना जाता था कि सूर्य अपनी किरणो से धरती के जल को खींच लेता है जो वायु के सहारे सर्यलोक में पहुंचता हऐ और उसे ही इन्द्र बनकर सूर्य धरती पर बरसाते हैं। अर्थात सूर्य एक साथ आग का गोला भी है और महासमुद्र भी।

अंग्रेजी भाषा में भी स्नो, स्नेल, शब्द पाए जाते हैं। यह केवल भारत में है जहां स्न का सीधा अर्थ जमे हुए पानी से नहीं अपितु द्तरवि जलसे है जो हमें स्नान, स्नापित और द्रव होने के कारण स्नेह आदि मैं मिलता है। सूरज में रोशनी तो है पर आवाज नहीं संज्ञा उसी से प्राप्त करनी होती है जिसमें ध्वनि हो। भारतीय सूर्य में भी सूर् का अर्थ जल है यह बताने की आवश्यकता नहीं में हम सूर् की उपस्थिति इसलिए पाते हैं की पेय और खाद्य पदार्थों के लिए ध्वनि जल से ही मिलती है.।

अब हम रंगों पर विचार करें तो पाएंगे उसका एक अर्थ पानी के किसी रूप से मिला है तो दूसरा उस रंग या सौंदर्य से एक और राल या लार जिसका कोई परिचय सही परिचय आयुक्त लालायित में मिलता है तो दूसरी ओर लाल रंग, लाली, लालिमा, ललाम, ललाई । लालिमा और कांति के कारण ही इसका प्रयोग एक कीमती पत्थर के लिए किया जाता है जिसे लाल कहते हैं। बहुमूल्यता और दुर्लभता के कारण लाल लाड़ले पुत्र या प्रिय या समादृत व्यक्ति के लिए संबोधन बन जाता है। सच कहें तो लाडला लालला या लाल का आवर्ती उच्चारण है, स्नेह की प्रगाढ़ता का द्योतक है और लड़ैता लाल लड़ाई करने वाला लाल नहीं है दुलरुआ बेटा है जिसके स्नेहवश लालू, लल्लन, लल्लू, अनेक प्रभेद हो। रल्लन भी इसी का भेद प्रतीत होता है, जो उलट कर रलने -मिलने क्रिया का रुप ले लेता है। लल्लू में बाल सुलभता के कारण मूर्खता का आशय भी जुड़ जाता है ।

हरे या हरित में हर का अर्थ पानी होता है। यह सर का अवांतर रूप है और इसका भी अर्थ होता है जलाशय। सर और हर से सरि और हरि का उत्पादन हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं । हरिद्वार एक तरह से सरिद्वार है। हरित का हरा और सुनहला दोनों अर्थ कैसे हो गया, यह अभी मेरी समझ में भी नहीं आता।

श्वेत और स्वेद अंग्रेजी स्वेट में बहुत मैं बहुत मामूली अंतर है दोनों में प्रयुक्त स्व का अर्थ पानी है और इंद्र के लिए जब स्वर्जित् का प्रयोग होता है तो उसका अर्थ जल उत्पन्न करने वाला होता है। जित् का अर्थ जीतना नहीं, पैदा करना है। अंग्रेजी प्रयोग ब्रेड विनर में अर्जित करने का आशय बना हुआ है।

काले रंग के बारे में यहां कुछ कहने की आवश्यकता नहीं उस पर हम पहले अरे आप से चर्चा कर चुके हैं। परंतु कर्बुर या कबरा में प्रयुक्त कर का अर्थ जल है इसे तो इस बात से भी समझा जा सकता है कि कल का अर्थ जल है और र ल में अभेद है। परंतु अनुनादी शब्दों के प्रसंग में इस तरह के वर्ण परिवर्तनों से मदद नहीं लेनी चाहिए यह दोनों स्वतंत्र दुनिया ऐसी बहुत ही दुनिया है जिनमें मात्र 1 वर्ण का अंतर होता है, परंतु एक किसी दूसरे से निकली हुई नहीं होती और इसको संस्कृत के वैयाकरणों ने भी धातुपाठ तक में सम्मान दिया है।

कपिल या कपिश मैं इस सरलीकरण से काम नहीं लिया जाना चाहिए की काफी है या बंद करके प्रकृति लिए इसका उपयोग हुआ है स्थिति उल्टी है, होंठ की जिस क्रिया से अप ध्वनि निकलती है उसी को कप् गप् चप, सप भी सुना जा सकता है। इस कप से ही कुप्पी, कुआं, और समुद्र के लिए प्रयुक्त अकूपार में आए कूप का संबंध दिखाई पड़ता है। बंदर को अपना नाम पानी से मिला है बंदर के पर्याय से श्वेत रंग को। बंदर में आय वन को पानी के अर्थ में ग्राहकों किया जा सकता है परंतु है यह भ्रामक बंदर मटका नरक का भ्रम पैदा करने वाला प्राणी नर वानर। मानवेतर पर मानवाकार ।

पीत रंग के साथ पीतु-जल का स्मरण करने से काम चल जाएगा। इसी तरह नीले रंग के साथ नीर की याद आनी स्वाभाविक है।

इस संख्या को बढ़ाया जा सकता। हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है इन सभी रंगों के साथ पानी का संबंधी इसलिए है कि रंगों में ध्वनि नहीं होती और सभी रंगों की प्रतिच्छाया पानी पर पड़ती है इस तरह दोनों के बीच नित्य संबंध है।

Post – 2018-03-29

जल ज्वाला का जनक है
असंपादित

आग और पानी का विरोध है। आग को पानी से बुझाया जाता है। परंतु यदि कोई ऐसी संकल्पना हो जिसमें जल से समस्त सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई हो, उसमें तो पानी और आग में विरोध हो ही नहीं सकता। आग की उत्पत्ति होनी तो जलसे ही है। स्रष्टा स्वयं जल है – रसो वै सः । उसी के मन में कामना पैदा हुई, वह एक से अनेक हो जाए, अनेक रूपों में प्रकट हो जाए। आपो वै सः। सो अकामयत एकोहं, बहु स्याम, बहुधा स्याम। उसी का परिणाम यह सृष्टि। इसमें सबसे प्रधान तत्व अग्नि का है। अग्नि को जल का पोता कहा गया है, अपां नपात । जल का पुत्र बादल और बादल का पुत्र विद्युत । जल में ही अग्नि का निवास है। उसी से उसका जन्म हुआ है और उसी से वह बुझ जाता है। रात के अंधेरे में भी पानी इसलिए चमकता है कि अग्नि उसी में सो जाता है। यह तो रहीं शास्त्रों में लिखी हुई बातें।

मैं जिस बात पर ध्यान दिलाना चाहता हूं वह यह है कि अग्नि के लिए, रंगों के लिए, फूलों के लिए संज्ञा जल की ध्वनियों से मिली हैं इसलिए अनेक बार उसी शब्द का अर्थ जल होता है और उसी में मामूली अदल-बदल करके आग के लिए संज्ञा तैयार की जाती है, जैसे जल और ज्वाला। पश्चिमी व्याख्याकारों को तो यह भी पता नहीं चल सकता कि सन अर्थात सूर्य का जल से कोई संबंध हो सकता हैं हमारे यहां, गलती से ही सही, कभी यह माना जाता था कि सूर्य अपनी किरणो से धरती के जल को खींच लेता है जो वायु के सहारे सर्यलोक में पहुंचता हऐ और उसे ही इन्द्र बनकर सूर्य धरती पर बरसाते हैं। अर्थात सूर्य एक साथ आग का गोला भी है और महासमुद्र भी।

अंग्रेजी भाषा में भी स्नो, स्नेल, शब्द पाए जाते हैं। यह केवल भारत में है जहां स्न का सीधा अर्थ जमे हुए पानी से नहीं अपितु द्तरवि जलसे है जो हमें स्नान, स्नापित और द्रव होने के कारण स्नेह आदि मैं मिलता है। सूरज में रोशनी तो है पर आवाज नहीं संज्ञा उसी से प्राप्त करनी होती है जिसमें ध्वनि हो। भारतीय सूर्य में भी सूर् का अर्थ जल है यह बताने की आवश्यकता नहीं में हम सूर् की उपस्थिति इसलिए पाते हैं की पेय और खाद्य पदार्थों के लिए ध्वनि जल से ही मिलती है.।

अब हम रंगों पर विचार करें तो पाएंगे उसका एक अर्थ पानी के किसी रूप से मिला है तो दूसरा उस रंग या सौंदर्य से एक और राल या लार जिसका कोई परिचय सही परिचय आयुक्त लालायित में मिलता है तो दूसरी ओर लाल रंग, लाली, लालिमा, ललाम, ललाई । लालिमा और कांति के कारण ही इसका प्रयोग एक कीमती पत्थर के लिए किया जाता है जिसे लाल कहते हैं। बहुमूल्यता और दुर्लभता के कारण लाल लाड़ले पुत्र या प्रिय या समादृत व्यक्ति के लिए संबोधन बन जाता है। सच कहें तो लाडला लालला या लाल का आवर्ती उच्चारण है, स्नेह की प्रगाढ़ता का द्योतक है और लड़ैता लाल लड़ाई करने वाला लाल नहीं है दुलरुआ बेटा है जिसके स्नेहवश लालू, लल्लन, लल्लू, अनेक प्रभेद हो। रल्लन भी इसी का भेद प्रतीत होता है, जो उलट कर रलने -मिलने क्रिया का रुप ले लेता है। लल्लू में बाल सुलभता के कारण मूर्खता का आशय भी जुड़ जाता है ।

हरे या हरित में हर का अर्थ पानी होता है। यह सर का अवांतर रूप है और इसका भी अर्थ होता है जलाशय। सर और हर से सरि और हरि का उत्पादन हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं । हरिद्वार एक तरह से सरिद्वार है। हरित का हरा और सुनहला दोनों अर्थ कैसे हो गया, यह अभी मेरी समझ में भी नहीं आता।

श्वेत और स्वेद अंग्रेजी स्वेट में बहुत मैं बहुत मामूली अंतर है दोनों में प्रयुक्त स्व का अर्थ पानी है और इंद्र के लिए जब स्वर्जित् का प्रयोग होता है तो उसका अर्थ जल उत्पन्न करने वाला होता है। जित् का अर्थ जीतना नहीं, पैदा करना है। अंग्रेजी प्रयोग ब्रेड विनर में अर्जित करने का आशय बना हुआ है।

काले रंग के बारे में यहां कुछ कहने की आवश्यकता नहीं उस पर हम पहले अरे आप से चर्चा कर चुके हैं। परंतु कर्बुर या कबरा में प्रयुक्त कर का अर्थ जल है इसे तो इस बात से भी समझा जा सकता है कि कल का अर्थ जल है और र ल में अभेद है। परंतु अनुनादी शब्दों के प्रसंग में इस तरह के वर्ण परिवर्तनों से मदद नहीं लेनी चाहिए यह दोनों स्वतंत्र दुनिया ऐसी बहुत ही दुनिया है जिनमें मात्र 1 वर्ण का अंतर होता है, परंतु एक किसी दूसरे से निकली हुई नहीं होती और इसको संस्कृत के वैयाकरणों ने भी धातुपाठ तक में सम्मान दिया है।

कपिल या कपिश मैं इस सरलीकरण से काम नहीं लिया जाना चाहिए की काफी है या बंद करके प्रकृति लिए इसका उपयोग हुआ है स्थिति उल्टी है, होंठ की जिस क्रिया से अप ध्वनि निकलती है उसी को कप् गप् चप, सप भी सुना जा सकता है। इस कप से ही कुप्पी, कुआं, और समुद्र के लिए प्रयुक्त अकूपार में आए कूप का संबंध दिखाई पड़ता है। बंदर को अपना नाम पानी से मिला है बंदर के पर्याय से श्वेत रंग को। बंदर में आय वन को पानी के अर्थ में ग्राहकों किया जा सकता है परंतु है यह भ्रामक बंदर मटका नरक का भ्रम पैदा करने वाला प्राणी नर वानर। मानवेतर पर मानवाकार ।

पीत रंग के साथ पीतु-जल का स्मरण करने से काम चल जाएगा। इसी तरह नीले रंग के साथ नीर की याद आनी स्वाभाविक है।

इस संख्या को बढ़ाया जा सकता। हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है इन सभी रंगों के साथ पानी का संबंधी इसलिए है कि रंगों में ध्वनि नहीं होती और सभी रंगों की प्रतिच्छाया पानी पर पड़ती है इस तरह दोनों के बीच नित्य संबंध है।

Post – 2018-03-29

कमाल है कि क्लास हंसती है
जब कि रोने का पीरियड था यह।

Post – 2018-03-29

कमाल है कि क्लास हंसती है
जब कि रोने का पीरियड था यह।

Post – 2018-03-29

कमाल है कि क्लास हंसती है
जब कि रोने का पीरियड था यह।

Post – 2018-03-29

आ जाती तो अक्सर है जबां तक मेरी आवाज
पर धौंस बुढ़ापे की वह बाहर नहीं होती।
कहता हूं मैं कुछ और समझते हैं लोग और
जाहिर है कि मंशाा मेरी जाहिर नहीं होती।।

लिखते हो व्याकरण तो समझते हैं काव्य हम
हमको तो कभी तुमसे शिकायत नहीं होती।
चाहा किसी का दुनिया ने समझा है कभी क्या
समझा अगर होता तो यह हालत नहीं होती।।

Post – 2018-03-29

आ जाती तो अक्सर है जबां तक मेरी आवाज
पर धौंस बुढ़ापे की वह बाहर नहीं होती।
कहता हूं मैं कुछ और समझते हैं लोग और
जाहिर है कि मंशाा मेरी जाहिर नहीं होती।।

लिखते हो व्याकरण तो समझते हैं काव्य हम
हमको तो कभी तुमसे शिकायत नहीं होती।
चाहा किसी का दुनिया ने समझा है कभी क्या
समझा अगर होता तो यह हालत नहीं होती।।

Post – 2018-03-29

आ जाती तो अक्सर है जबां तक मेरी आवाज
पर धौंस बुढ़ापे की वह बाहर नहीं होती।
कहता हूं मैं कुछ और समझते हैं लोग और
जाहिर है कि मंशाा मेरी जाहिर नहीं होती।।

लिखते हो व्याकरण तो समझते हैं काव्य हम
हमको तो कभी तुमसे शिकायत नहीं होती।
चाहा किसी का दुनिया ने समझा है कभी क्या
समझा अगर होता तो यह हालत नहीं होती।।

Post – 2018-03-28

चमकता अंधेरा (4)

कृष्ण का दूसरा पर्याय श्याम है, जिसका प्रयोग श्री कृष्ण के लिए भी किया जाता है। इसका स्रोत संभवत है जल है। श्यान का अर्थ सूखा है। श्यामाक एक अन्न है, और अन्न शब्द सहित दूसरे सभी अन्नों का नामकरण जल के पर्यायों पर आधारित है। श्याम का प्रयोग -घन के साथ प्रायः किया जाता है, और कई बार तो घनश्याम का प्रयोग कृष्ण आशय में होता है, परंतु घन का अर्थ है गहन या गहरा है जो जल के संदर्भ में प्रयोग में आता है। गहरा या गाढ़े का प्रयोग रंग के साथ भी किया जाता है जहां आशय कुछ बदल जाता है। घनश्याम का अर्थ जल से भरे हुए बादलों के रंग वाला । घन का अर्थ बादल नहीं, घनघोर घटा में केवल घटा का अर्थ बादल है परंतु वहां भी आशय तो आटोप से है, घिरने और छाने से है, न कि जलद से।

काले का दूसरा कोई पर्याय इस समय हमें याद नहीं आ रहा। कृष्ण की चर्चा के साथ राधा छोड़ दी जाएं तो चर्चा अधूरी रह जाएगी, इसलिए यह बताना जरूरी है कि राधा लक्ष्मी का प्रतिरूप है। मुझे नहीं लगता ऋग्वेद के बाद राध शब्द का प्रयोग कभी वैदिक अर्थ में किया गया।

अनुवादकों ने राध का अर्थ धन किया है। इसका प्रयोग तांबे के ढले हुए पिंडों के लिए किया जाता रहा है, जिनका आयात निर्यात किया जाता था। सुमेरिया में इसके लिए रूध का प्रयोग किया जाता था, जिससे अंग्रेजी भाषा के दो शब्दों का नाता जोड़ा जाता हैं। कठोरता पर आधारित रूड और रंग के आधार पर रेड । यह मेरा नहीं, मैलरी का विचार है। बीच की कडि़यों का मुझे ध्यान नहीं।

ऋग्वेद में इसका अनेक बार बहुवचन में राधांसि प्रयोग हुआ है। धन लक्ष्मी और लक्ष्मी की चंचलता इन सभी का प्रतिनिधित्व, एक लंबे अंतराल के बाद, करती है राधा – एक से दूसरे के पास पहुंचती, चक्कर लगाती, रकसलीला करती।

इस अंतराल में, राध का रंग हल्दी को मिल जाता है। हल्दी में रंगी हुई धोती के रंग पर यदि कभी दृष्टि गई हो, तो आप मानेंगे कि संज्ञा उपयुक्त ही है।

हम आज रात पर पहले विचार कर आए हैं। इसका अंग्रेजी पर्याय नाइट भी संस्कृत नक्त का सगा हे, जिससे नक्षत्र निकला है। परंतु नक और मक का अर्थ जल होता है और नकुल, नक्र का जल का या जलप्रेमी प्राणी। अतः नागरिक आपूर्ति के लिए भी किया जाता है. यह नागदंत – हाथी का दांत और अर्थ विस्तार से रीवा दीवार से लगी खूंटी। नाक से सांस लेने के लिए नहीं बनाई गई, बल्कि जुकाम होने पर रहने के लिए बनाई गई है जैसे कुछ लोगों के ख्याल से चश्मा रखने के लिए बनाई गई है।

रात के दूसरे पर्यायों रजनी, निशि या निशा, विभा, विभावरी, आज मैं कहीं अकेले जीरे का भाव भी नहीं है। विभा के वि- को विशेषता सूचक उपसर्ग मानकर पढ़ने पर इसका अर्थ कांति हो जाता है, और विहीनता सूचक मानने पर रात का द्योतक हो सकती है, इससे बचने के लिए विभावरी का ही प्रयोग होता है। परंतु भा की उपस्थिति से यह दोहराने की जरूरत नहीं है इसका संबंध भी प्रकाश से है जिसकी अपनी ध्वनि नहीं होती। भास का जल से संबंध यदि ना समझ में आ रहा हो तो कभी दलदल में पहुंचने के बाद उसके निकलने की ध्वनि पर ध्यान दें तो यह भी पता चल जाएगा कि भोजपुरी में दलदल भास क्यो कहते हैं। रजनी में रज
शब्द का अर्थ, जल, श्वेत, प्रकाश और धूलि होता है, यह हम जानते हैं, इसलिए इसकी विस्तार में चर्चा जरूरी नहीं।

यदि निशा उषा का विलोम है. तो इसकी भी वही कहानी है।

हम कल इस बात पर विचार केवल काला ही नहीं, दूसरे जितने भी रंग हैं, उन सभी का संबंध जल से है।

Post – 2018-03-28

चमकता अंधेरा (4)

कृष्ण का दूसरा पर्याय श्याम है, जिसका प्रयोग श्री कृष्ण के लिए भी किया जाता है। इसका स्रोत संभवत है जल है। श्यान का अर्थ सूखा है। श्यामाक एक अन्न है, और अन्न शब्द सहित दूसरे सभी अन्नों का नामकरण जल के पर्यायों पर आधारित है। श्याम का प्रयोग -घन के साथ प्रायः किया जाता है, और कई बार तो घनश्याम का प्रयोग कृष्ण आशय में होता है, परंतु घन का अर्थ है गहन या गहरा है जो जल के संदर्भ में प्रयोग में आता है। गहरा या गाढ़े का प्रयोग रंग के साथ भी किया जाता है जहां आशय कुछ बदल जाता है। घनश्याम का अर्थ जल से भरे हुए बादलों के रंग वाला । घन का अर्थ बादल नहीं, घनघोर घटा में केवल घटा का अर्थ बादल है परंतु वहां भी आशय तो आटोप से है, घिरने और छाने से है, न कि जलद से।

काले का दूसरा कोई पर्याय इस समय हमें याद नहीं आ रहा। कृष्ण की चर्चा के साथ राधा छोड़ दी जाएं तो चर्चा अधूरी रह जाएगी, इसलिए यह बताना जरूरी है कि राधा लक्ष्मी का प्रतिरूप है। मुझे नहीं लगता ऋग्वेद के बाद राध शब्द का प्रयोग कभी वैदिक अर्थ में किया गया।

अनुवादकों ने राध का अर्थ धन किया है। इसका प्रयोग तांबे के ढले हुए पिंडों के लिए किया जाता रहा है, जिनका आयात निर्यात किया जाता था। सुमेरिया में इसके लिए रूध का प्रयोग किया जाता था, जिससे अंग्रेजी भाषा के दो शब्दों का नाता जोड़ा जाता हैं। कठोरता पर आधारित रूड और रंग के आधार पर रेड । यह मेरा नहीं, मैलरी का विचार है। बीच की कडि़यों का मुझे ध्यान नहीं।

ऋग्वेद में इसका अनेक बार बहुवचन में राधांसि प्रयोग हुआ है। धन लक्ष्मी और लक्ष्मी की चंचलता इन सभी का प्रतिनिधित्व, एक लंबे अंतराल के बाद, करती है राधा – एक से दूसरे के पास पहुंचती, चक्कर लगाती, रकसलीला करती।

इस अंतराल में, राध का रंग हल्दी को मिल जाता है। हल्दी में रंगी हुई धोती के रंग पर यदि कभी दृष्टि गई हो, तो आप मानेंगे कि संज्ञा उपयुक्त ही है।

हम आज रात पर पहले विचार कर आए हैं। इसका अंग्रेजी पर्याय नाइट भी संस्कृत नक्त का सगा हे, जिससे नक्षत्र निकला है। परंतु नक और मक का अर्थ जल होता है और नकुल, नक्र का जल का या जलप्रेमी प्राणी। अतः नागरिक आपूर्ति के लिए भी किया जाता है. यह नागदंत – हाथी का दांत और अर्थ विस्तार से रीवा दीवार से लगी खूंटी। नाक से सांस लेने के लिए नहीं बनाई गई, बल्कि जुकाम होने पर रहने के लिए बनाई गई है जैसे कुछ लोगों के ख्याल से चश्मा रखने के लिए बनाई गई है।

रात के दूसरे पर्यायों रजनी, निशि या निशा, विभा, विभावरी, आज मैं कहीं अकेले जीरे का भाव भी नहीं है। विभा के वि- को विशेषता सूचक उपसर्ग मानकर पढ़ने पर इसका अर्थ कांति हो जाता है, और विहीनता सूचक मानने पर रात का द्योतक हो सकती है, इससे बचने के लिए विभावरी का ही प्रयोग होता है। परंतु भा की उपस्थिति से यह दोहराने की जरूरत नहीं है इसका संबंध भी प्रकाश से है जिसकी अपनी ध्वनि नहीं होती। भास का जल से संबंध यदि ना समझ में आ रहा हो तो कभी दलदल में पहुंचने के बाद उसके निकलने की ध्वनि पर ध्यान दें तो यह भी पता चल जाएगा कि भोजपुरी में दलदल भास क्यो कहते हैं। रजनी में रज
शब्द का अर्थ, जल, श्वेत, प्रकाश और धूलि होता है, यह हम जानते हैं, इसलिए इसकी विस्तार में चर्चा जरूरी नहीं।

यदि निशा उषा का विलोम है. तो इसकी भी वही कहानी है।

हम कल इस बात पर विचार केवल काला ही नहीं, दूसरे जितने भी रंग हैं, उन सभी का संबंध जल से है।