अन्न और धन के कुछ और शब्द
(यह लेखमाला शोध ग्रन्थ का हिस्सा है। जिनकी इसमें रुचि हो वे ही इसे पढ़े। वह संख्या
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इष
इष के विषय में हम पहले भी प्रासंगिक रूप में कुछ कह आए हैं।. इष किसी पतले छेद से पानी झटके से निकलने की ध्वनि है , यह गन्ने जैसे रसीले डंठल को कूटने से निकली रस की धार भी हो सकती है इसका प्रयोग सोमरस के लिए हुआ है. प्रायः इस के साथ ऊर्ज अर्थात शक्तिदायक विशेषण का भी प्रयोग हुआ है (इषमूर्जं सुक्षितिं सुम्नमश्युः, 2.19.8; ) इसे सामान्य धन का भी द्योतक माना गया है(इषं दधानो वहमानो अश्वैरा स द्युमाँ अमवान्भूषति द्यून्,10.11.7) . सायणाचार्य ने विभिन्न स्थानों पर इसके लिए निम्न प्रकार अर्थ किए हैं ( इषः – अन्नानि, 1.9.8; गच्छन्तः, 1.56.2 ; इष्यमाणानि1.130.3; इष्यमाणा – वृष्टीः; 6.60.12; इषः पती-अन्नस्य पती, 5.68.5; इषः वास्तु – अन्नस्य निवासस्थानं, अर्थात् अन्नागार, 8.25.5; इषयन्तं – अन्नं कुर्वन्तं, 6.1.8; आयुधानि प्रेरयन्, 6.18.5; इषयन्त -गमयन्ति, 2.2.11; इषयन्तीः – कुल्यादिद्वारा अन्नं कुर्वन्तीः, 3.33.12; इषा – पृथिव्यामुप्तेन यवादिधान्यरूपेणान्नेन, 1.112.18 ; इषां (1.181.1) इष्यमाणानामन्नानां
ऊर्ज
इर/ईर की ही तरह उर/ऊर भी मूलतः जल की ध्वनि, जल, गति, व्याप्ति, अन्न, ऊर्जा आदि होना चाहिए. इसे ऊर्मिः (- प्रेरकः, 2.16.5) और तरंग,(8.14.10) तथा ऊर्मिम्- (अर्तेरिदं रूपं गमनयोग्यं, 7.47.4) सा समझा जा सकता है।, रोचक बात यह है कि जिस तरह उर् का प्रयोग आच्छादन के लिए हुआ है उसी तरह है ऊर्मि का प्रयोग रात्रि के लिए हुआ है। (ऊर्म्या – रात्रौ, 1.184).और जलवाची शब्दों का प्रयोग जिस तरह समूहवाचक संज्ञाओं के लिए हुआ है उसी तरह ऊर्व काः (ऊर्वं – समूहं, 5.29.12; 6.17.1, ऊर्वात् – महतोन्तरिक्षात, 5.45.2; ऊर्वान् महतः प्राणिनिकायान पर्वतान्, 2.13.7). अतः ऊर्ज का अर्थ जल होना अपनी तार्किक संगति में है : (ऊर्जः – अन्नानि, 2.11.1).
क्षु
चप्, चुप्, क्षुप़् छुप छिछले पानी में पाँव आदि पडने से उत्पन्न ध्वनि है और इसलिए जल का एक नाम क्षु पड़ा और इस क्रम में चिपकने वाली छोटी बूंदों के लिए संभवत क्षुद्र का प्रयोग हुआ और फिर या दूसरी छोटी चीजों के लिए प्रयोग में आने लगा। अव स्रवेदघशंसोऽवतरमव क्षुद्रमिव स्रवेत्, 1.129.6 मैं सायणाचार्य ने क्षुद्रमिव की व्याख्या करते हुए इसे पानी के छींटे जैसा “क्षेप्तुम योग्यम उदकं इव” कहा है। ऋग्वेद में क्षु का प्रयोग उत्कृष्ट खाद्य पदार्थों के लिए हुआ लगता है (त्वं वाजस्य क्षुमतो राय ईशिषे, 2.1.10; क्षुमन्तं वाजं स्वपत्यं रयिं दाः, 2.4.8; कृधि क्षुमन्तं जरितारमग्ने कृधि पतिं स्वपत्यस्य रायः ।। 2.9.5 )। इस क्षु से ही क्षुधा या बुभुक्षा की उत्पत्ति हुई है। सायण ने क्षुमति का अर्थ 4.2.18 में अन्नवत्याढ्यगृहे अन्न से भरपूर किया है।
चन
से हमारा परिचय एक ओर तो चणक से है जिससे किसी रहस्यमय सूत्र से चाणक्य का नाम जुड़ा है, अर्थ जल था। ऋग्वेद में इसका प्रयोग अन्न के आशय में ही हुआ है पर साथ ही अव्यय के रूप में भी इसका प्रयोग अनेक बार देखने में आता है (नहि स्म ते शतं चन राधो वरन्त आमुरः, 4.31.9; दुर्गे चन ध्रियते विश्व आ पुरु जनो योऽस्य तविषीमचुक्रुधत् , 5.34.7; न रिष्येम कदा चन, 6।.54.9; नेन्द्रादृते पवते धाम किं चन, 9.69.6। अन्न के रूप मे चनः – हविर्लक्षणमन्नं, 1.3.6; अन्नं,1.107.3; 2.31.6; 7.38.3)
ज्रय
ज्रयांसि –अन्नानि, (5.8.7) (6.6.6) ‘ज्रयतिर्गतिकमा’, गन्तव्यानि स्थानानि; (8.2.33) । इससे प्रकट है, इसका प्रयोग भी जल के लिए होता था।