Post – 2019-02-07

खयाल हैं जो इबारत में बदल जाते हैं
शायरी क्या है,ये जाना नहीं माना भी नहीं।

Post – 2019-02-07

हँसो, इतना हँसो किस्मत में रोना ही बचे यारो
बचा इतना यकीं रखो कि आँसू गुल खिलाते हैं।

Post – 2019-02-07

जो सच बोलते हैं वे कम बोलते हैं
जरूरत परख कर के हम बोलते हैं।

Post – 2019-02-07

सच कहें, सामने हुजूर के, तौबा साहेब
अब तलक जुर्म यह किया ही नहीं।
सिरफिरों का हिसाब कौन करे
उनका साकिन तलक बचा ही नहीं।

Post – 2019-02-07

वह हँस के बुलाए तो, रोती हुई हाजिर हो।
रिश्ता ही अलग है कुछ तलवार से गर्दन का।

Post – 2019-02-03

इतिहास का पहला पाठ

इतिहास चाहे वह कल्पित हो या घटित का विवरण, कभी सच नहीं होता, न ही कभी गलत है। हर हालत में यह वह कच्चा माल होता है जिसमें से छानबीन करते हुए आप सचाई तक पहुंच सकते हैं, परंतु अधिकांश मामलों में यह आपका निजी सच बना रह सकता है।

लोगों के विचारों को बदलने के लिए जिस बड़े पैमाने पर सच का प्रचार होना चाहिए, जरूरी नहीं आप के प्रामाणिक अनुसंधान का उतना प्रचार हो सके।इसलिए कोई भी सच झूठ के अनगिनत पहाड़ों के बीच में अभी छोटी सी कंदरा बनाकर ही बचा रह सकता है। परंतु यदि किसी कारण से वह सच किसी बड़ी जरूरत का हिस्सा बन जाए, तो सीमित लोगों के माध्यम से भी यह सार्वजनिक मान्यता का रूप ले सकता है।

परंतु जब हम सामाजिक ज़रूरत की बात कर रहे हैं पाठ का सच होना या न होना मायने नहीं रखता। झूठ उतना ही प्रभावशाली हो सकता है जितना सच। इसलिए अतीत की जानकारी के नाम पर लोगों को आंदोलित करने और सच बताकर और झूठ गढ़ कर, दोनों रीतियों से आंदोलित करने का काम किया गया है, सचाई को समझने और समझाने का काम नहीं किया गया। जरूरत के अनुसार इतिहास लगातार पुराणों में बदला और पुराण कथाओं को इतिहास के रूप में पेश किया जाता रहा है। भारत में इतिहास और पुराण दोनों को एक दूसरे में मिलाकर देखा जाता रहा है।

इतिहास बीत जाता है, उसकी जानकारी हमारे पास होती है। पुराण बीत कर भी उपस्थित है, क्योंकि बीतने के लिए किसी चीज का होना जरूरी है, जो कभी होकर भी नहीं था, उसके बीतने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। उसके सही या गलत होने पर प्रश्न नहीं किया जा सकता। वह मान्य है इसलिए है।

कालक्रमबद्ध इतिहास लेखन का आरंभ पश्चिमी विद्वानों ने आरंभ किया। जब आरंभ किया, तब भारत के विषय में उनकी पहली जानकारी सिकंदर के विश्वविजय की लालसा से किए गए सैनिक अभियान तक सीमित थी और ग्रीक स्रोतों के माध्यम से थी। ग्रीक लेखकों ने सिकंदर के भारत पर आक्रमण के विषय में जो कुछ लिखा है, वह पश्चिमी जरूरत के अनुसार संवारा गया। उसको ही सच मानकर हमारे इतिहासकार अपना लेखन करते हैं। इसके विपरीत आर्य समाजी पुनर्जागरण के दौर में इसकी व्याख्या करते हुए सिकंदर को पोरस द्वारा पराजित दिखाया जाता रहा। आर्य समाजी लेखन में आत्म गौरव की आकांक्षा प्रबल रही है, लेखन में एक खास तरह का कामचलाऊपन रहा है इसलिए उस पर विश्वास करने को मैं मानसिक रूप से तैयार नहीं हो पाता था।

परंतु, दो बातें निर्विवाद हैं। एक तो यह तथ्य कि दरबारी लेखक अपने नायक का पक्ष लेते हुए सचाई को तोड़ते मरोड़ते रहे हैं, दूसरे, यूनानी लेखक स्वयं अपने विवरणों मे अविश्वसनीय सिद्ध होते हैं । यह बात समझ से परे है कि जिस सिकंदर ने अपने वादों को तोड़ते हुए विश्वासघात करके विरोधियों का संहार किया था और जो विश्व विजय करने निकला था, उसने पोरस को बंदी बनाने के बाद उससे संधि कर के उसका राज्य कैसे लौटा दिया और यहीं से उसे छोड़ कर वापस क्यों भागना पड़ा था। बयान कुछ भी कहें घटना क्रम और औचित्य कहानी का उल्टा पक्ष पेश करते हैं।

मेरा इरादा इतिहास को सही करने का नहीं था। मैं जिस विषय पर लिख रहा हूं वह दूसरे देशों और समाजों के मन भारत और हिन्दुत्व के प्रति जो नकारात्मक छवि बनाई गई, और जिसको आज हमारे बुद्धिजीवी बहुत उत्साह से अपना लेते हैं, उसका आधार समझा जा सके। मेगास्थनीज का भारत का वर्णन पढ़ते हुए, मुझे क्षतिपूर्ति के रूप में गढ़ी गई एक कहानी ने इस इतिहास पर पुनर्विचार करने को बाध्य किया।

मेगास्थनीज के अनुसार भारतीय विद्वान भी मानते हैं कि बहुत प्राचीन काल में हरकुलिस और डायोनिसस ने भारत पर विजय प्राप्त की थी। इसे भारतीय पुराण परंपरा में दर्ज नहीं पाया जाता। उसने भोग विलास के पौराणिक चरित्र बैकस को भी भारत में पहुंचा दिखाया और शिव के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। उसे इस आविष्कार की आवश्यकता नहीं थी। दो कारण हो सकते हैं, एक महाभारत के चरित्रों से परिचय के बाद भीम दुर्योधन आदि की कहानियों से ग्रीक चरित्रों का साम्य देखकर उसने यह मानने की जगह कि भारतीय दर्शन का ही नहीं, पौराणिक चरित्रों का भी साम्य है, उसने अति प्राचीन काल में भारत पर इसके प्रभाव का अनुमान करते हुए एक कहानी गढ़ी और इसे भारतीय ब्राह्मणों द्वारा भी अनुमोदित दिखा दिया।
इस कहानी को और भी विस्तार देते हुए दूसरे यूनानी लेखक इसे दोहराते रहे। इसके अंश हम इससे बाद की पोस्ट में देने का प्रयत्न करेंगे।

ये वे स्थितियां हैं जिनमें इतिहास का उल्टा पाठ जरूरी हो जाता है। इसलिए मैंने यह जानने का प्रयत्न किया की सिकंदर के आक्रमण के विषय में उसके साथ आए हुए इतिहासकारों के क्या विचार हैं। मैं सीधे उन लेखकों तक नहीं पहुंच सका, परंतु एक एक लेख Zhukov’s view of Alexander जो Russia Beyond में प्रकाशित है उसके कुछ उद्धरणों को बिना व्याख्या या अनुवाद के प्रस्तुत करना चाहूँगा:
Plutarch, the Greek historian and biographer, says there seems to have been nothing wrong with Indian morale. Despite initial setbacks, when their vaunted chariots got stuck in the mud, Porus’s army “rallied and kept resisting the Macedonians with unsurpassable bravery”.

Says Plutarch: “The combat with Porus took the edge off the Macedonians’ courage, and stayed their further progress into India. For having found it hard enough to defeat an enemy who brought but 20,000 foot and 2000 horse into the field, they thought they had reason to oppose Alexander’s design of leading them on to pass the Ganges, on the further side of which was covered with multitudes of enemies.”

According to Plutarch, the courage of the Macedonians evaporated when they came to know the Nandas “were awaiting them with 200,000 infantry, 80,000 cavalry, 8000 war chariots and 6000 fighting elephants”.
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In 1957, while addressing the cadets of the Indian Military Academy, Dehra Dun, Zhukov said Alexander’s actions after the Battle of Hydaspes suggest he had suffered an outright defeat. In Zhukov’s view, Alexander had suffered a greater setback in India than Napoleon in Russia. Napoleon had invaded Russia with 600,000 troops; of these only 30,000 survived, and of that number fewer than 1,000 were ever able to return to duty.

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In the first charge, by the Indians, Porus’s brother Amar killed Alexander’s favourite horse Bucephalus, forcing Alexander to dismount. This was a big deal. In battles outside India the elite Macedonian bodyguards had not allowed a single enemy soldier to deliver so much as a scratch on their king’s body, let alone slay his mount. Yet in this battle Indian troops not only broke into Alexander’s inner cordon, they also killed Nicaea, one of his leading commanders.
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According to the Roman historian Marcus Justinus, Porus challenged Alexander, who charged him on horseback. In the ensuing duel, Alexander fell off his horse and was at the mercy of the Indian king’s spear. But Porus dithered for a second and Alexander’s bodyguards rushed in to save their king.
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जाहिर है घबरा कर सिकंदर ने बन्दी बनाए जाने पर पोरस द्वारा यह पूछे जाने पर कि बोलो, अब तुम्हारे साथ क्या सलूक किया जाय, वह प्रसिद्ध कूटनीतिक चातुरी का वाक्य, “जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।” उसने बोला था जिस पर पोरस ने उसे जीवनदान दिया था। नन्द के विशाल सैन्यबल की कहानी उसने भले सुन रखी हो, पर वापस जान बचाकर भागने और भागते समय भी मालवों, क्षुद्रकों, कठों द्वारा प्रताड़ित होना, मरणान्तक रूप में घायल होना, प्रमाणों, भारतीय राजाओं की सदाशयता, सिकंदर के गिरे हुए मनोबल सभी के अनुरूप है।

Post – 2019-02-01

भारत का मतलब ब्राह्मण

जैसे विचित्रता का मतलब पिछड़ापन होता है, उसी तरह ब्राह्मण का मतलब भारत होता है, क्योंकि भारत के सभी निवासियों की तुलना में ब्राह्मण सबसे विचित्र है। वहीं इसका सही प्रतिनिधित्व कर सकता है। वह कुछ भी कर सकता है, कुछ भी हो सकता है। सत्य के उपासक से लेकर धूर्त तक, उत्कृष्ट और निकृष्ट दोनों एक साथ भी। भारत की समस्त बुराइयां उसके कारण है।

भेजे की जगह खोपड़ी से सोचने वालों की समझ से, उसी ने आक्रमण करके भारत के असली निवासियों को भगाकर पूरे देश पर कब्जा कर लिया, यह रहस्य यह जितना मिल को पता था उतना ही ज्योतिबा फूले को भी। अंबेडकर कुछ चूक बैठे थे। परंतु उनको किनारे डाल दिया गया। खरमंडल के लिए इससे पक्का विश्वास कोई दूसरा नहीं हो सकता इसलिए यही आज तक ब्राह्मण विरोधी, हिंदुत्व विरोधी, भारत विरोधी चिंतन का मेरुदंड बना हुआ है।

परंतु एक दूसरी जरूरत से, जिसके जनक कोसंबी हैं, वह भारत के बनैले (आटविक) जनों का मौज मस्ती में लीन रहने वाला ओझा हुआ करता था, जो पहले हड़प्पाकालीन नागरिकों को उल्लू बनाता हुआ, उनके नगर के बीच रास-लीला रचाया करता था। आर्यों का आक्रमण हुआ तो वह दूसरे नगर वासियों को क़त्ल होने के लिए छोड़ खुद अपने पुराने जंगल में भाग गया। कृतघ्नता की हद है।

आर्य थे तो ढोर पालने वाले, पर दिमाग के ढरकी थे। चरवाहों ने कभी शहरों को घास का मैदान नहीं समझा, उन्होंने समझ लिया, और नगरों पर हमला कर दिया, आक्रमण करने और नगरों को मिट्टी में मिलाने के बाद दो पीढियां नगर में बिताने के बाद उन्हें पता चला यहां सब कुछ तो है परंतु घास तो है ही नहीं। उनकी दो पीढ़ियों तक उनके ढोर भूखे प्यासे इस प्रतीक्षा में कहीं जीवित रहे कि कभी तो इनको हमारा ध्यान आएगा। ध्यान आया। वे शहर छोड़ कर फिर अपने ढोर संभाले हुए चा़रागाहों की ओर निकल पड़े । और ठीक इस मौके पर जंगल में शरण लेने वाले ब्राह्मणों को सही मौका मिला। उन्होंने जंगलों से निकल कर, आर्यों के बीच घुसपैठ करके चुपके से आर्यों की भाषा भी सीख ली और उन्हें उल्लू बनाने लगे।

परंतु आर्य ठहरे योद्धा, सच कहें तो गाय पालने के कारण, गउदम दिमाग के, इसलिए उल्लू बनने को तैयार नहीं थे। वे लगातार ब्राह्मणों से ब्राह्मण बनने के लिए संघर्ष करते रहे और अंत में उनकी विजय हुई, परंतु जीते तो बहादुरी की जगह अहिंसा का इतिहास, श्रमण आंदोलन आरंभ करके, जिंदगी से भाग करके। ऐसी बहादुरी, ऐसी जीत केवल भारत में हो सकती है और केवल भारतीय विद्वान अपने बलबूते पर इसे संभव बना सकते थे। धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे, पुराविदानो अधुनाभवो वा।

यदि ब्राह्मण का काम शिक्षा है और वह कुछ भी कर सकता है तो भारत के विषय में चिंतन करने वाले, देसी-विदेशी सभी विद्वान ब्राह्मण हैं क्योंकि वे सभी अपने बुद्धि बल से असंभव को संभव करते रहे हैं और इस योग्यता के कारण ही, इसके अनुपात में, अपनी महिमा को प्राप्त करते रहे हैं । ऐसे लोग कुछ भी कर सकते हैं और करते आए हैं।

ब्राह्मण झटपट किसी दूसरे की भाषा सीख ही नहीं सकता बल्कि उस भाषा को सीखने के बाद, जिसकी यह भाषा थी, उसे उस भाषा से वंचित भी कर सकता है, क्योंकि ज्ञान एक संपत्ति है और उस संपत्ति पर अधिकार करने वाला उसके पुराने मालिक को उससे वंचित कर सकता है, यह इतनी सीधी बात है जो इसे न समझ पाए उसकी समझ पर दया की जा सकती है, और दयावश उसे दरकिनार किया जा सकता है।

भाषा आक्रमण करने वाले गावदी लोगों की थी परंतु इतनी परिष्कृत कि दुनिया की श्रेष्ठतम सभ्यताओं ने अपने उत्थान काल में उसी से काम चलाया। उस पर ब्राह्मणों का कब्जा हो जाने के बाद, जिन की भाषा थी उन्हें उससे वंचित कर दिया गया। वे अपनी भाषा ब्राह्मणों से ही सीख सकते थे और वे उन्हें सिखाने को तैयार नहीं थे। उन्हें शिक्षा के नाम पर धनुष बाण चलाने, गदा भांजने, और गुरु के पांव दबाने से आगे की, यहां तक कि उनको उनकी जबान जिसे उन्होंने छीन लिया था, सिखाने को तैयार नहीं थे।

ब्राह्मण हथियार नहीं उठाता, और इसी के बल पर यह दावा करता है कि वह नि:शस्त्र होता है इसलिए उस पर हथियार नहीं उठाया जा सकता, फिर भी वह धनुर्विद्या और गदायुद्ध की शिक्षा उनको दे सकता था, जो लड़ने झगड़ने के अलावा कुछ जानते ही नहीं थे। समय की मांग होने पर वह कुछ भी पैदा कर सकता है। देवता से लेकर दानव तक। द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, परशुराम जैसे आचार्य पैदा करना उसके बाएं हाथ का खेल था। पैदा भी कर दिया और दफन भी कर दिया, क्योंकि भारत में किसी के गोत्र नाम के साथ इनमें से किसी का नाम नहीं जुड़ा है।

ब्राह्मण इतना धूर्त होता है कि वह मामूली परिचय से ही किसी की भाषा सीख सकता है उसकी नकल करते हुए पूरी भाषा गढ़कर तैयार कर सकता है। यह विचार भी किसी ऐरे गैरे का नहीं है, एक दार्शनिक का है जिसने भाषा की प्रकृति पर गहन चिंतन और लेखन लेखन किया थाऔर जिसके पांडित्य के प्रति मेरे मन में सम्मान है।

उसका तर्क निराधार नहीं था। तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञानियों को थप्पड़ मारते हुए उसने कहा था, संस्कृत और ग्रीक में समानता के जो कारण आप लोग बताते हैं वे मूर्खतापूर्ण हैं। यह किसी मूल भाषा की शाखाओं में बंटने और फैलने का मामला नहीं है, यह एक ही भाषा है जो एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैली हुई है, इसलिए या तो यह भाषा भारत से ग्रीस में या ग्रीस से भारत पहुंची। यहां तक उसकी तर्कश्रृंखला को चुनौती नहीं दी जा सकती।

इससे आगे वह पूरी तरह अविश्वसनीय नहीं है। तार्किक आधार पर किसी एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंचने वाले किसी जनसंपर्क का प्रमाण जरूरी था। उसे पता नहीं था कि भारत के लोग यूरोप के किनारे तक पहुंचे थे, और सच कहें तो यूरोप और एशिया का विभाजन इस आधार पर हुआ था जहां तक संस्कृत का प्रसार है वह एशिया है और आगे का भाग यूरोप है। यह मेरी सूझ है, इसे जांचने के बाद माने और समझें।

गूगल स्टीवर्ट जिनके विचारों का हमने उल्लेख किया है उनको भारत के यूरोप तक पहुंचने का कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध था, जबकि सिकंदर के भारत पर आक्रमण करने का प्रमाण उपलब्ध था। इसलिए भारत से परिचित ग्रीक विद्वानों ने ब्राह्मणों के जिन अद्भुत कारनामों का वर्णन किया है उसमें कुछ भी असंभव नहीं था। आप स्वयं सोचें कि जो भाषा केवल ब्राह्मणों के पास थी और भाषा चिंतन में जहां पाणिनी जैसी अविश्वसनीय प्रतिभाएं हो चुकी थी, वे क्या नहीं कर सकते थे। उन्होंने ग्रीक भाषा को सीखा ही नहीं, उसको इस तरह बदल दिया कि चोरी पहचान में न आए। धूर्तता की हद है।

यदि आपको ऊपर का विवरण चंडूखाने की गप लग रहा हो तो इस बात का ध्यान रखें कि इसी चंडूखाने में भारत का इतिहास लिखा जाता रहा है और विद्यालयों को चंडूखाने का संजाल बनाकर पढ़ाया और नशेड़ी बनाया जाता रहा है। अपनी पड़ताल कीजिए कि चंडूखाने का कितना असर आप पर पड़ा है और उससे बाहर आने का प्रयत्न आपने कभी किया है या नहीं।