Post – 2019-02-01

भारत का मतलब ब्राह्मण

जैसे विचित्रता का मतलब पिछड़ापन होता है, उसी तरह ब्राह्मण का मतलब भारत होता है, क्योंकि भारत के सभी निवासियों की तुलना में ब्राह्मण सबसे विचित्र है। वहीं इसका सही प्रतिनिधित्व कर सकता है। वह कुछ भी कर सकता है, कुछ भी हो सकता है। सत्य के उपासक से लेकर धूर्त तक, उत्कृष्ट और निकृष्ट दोनों एक साथ भी। भारत की समस्त बुराइयां उसके कारण है।

भेजे की जगह खोपड़ी से सोचने वालों की समझ से, उसी ने आक्रमण करके भारत के असली निवासियों को भगाकर पूरे देश पर कब्जा कर लिया, यह रहस्य यह जितना मिल को पता था उतना ही ज्योतिबा फूले को भी। अंबेडकर कुछ चूक बैठे थे। परंतु उनको किनारे डाल दिया गया। खरमंडल के लिए इससे पक्का विश्वास कोई दूसरा नहीं हो सकता इसलिए यही आज तक ब्राह्मण विरोधी, हिंदुत्व विरोधी, भारत विरोधी चिंतन का मेरुदंड बना हुआ है।

परंतु एक दूसरी जरूरत से, जिसके जनक कोसंबी हैं, वह भारत के बनैले (आटविक) जनों का मौज मस्ती में लीन रहने वाला ओझा हुआ करता था, जो पहले हड़प्पाकालीन नागरिकों को उल्लू बनाता हुआ, उनके नगर के बीच रास-लीला रचाया करता था। आर्यों का आक्रमण हुआ तो वह दूसरे नगर वासियों को क़त्ल होने के लिए छोड़ खुद अपने पुराने जंगल में भाग गया। कृतघ्नता की हद है।

आर्य थे तो ढोर पालने वाले, पर दिमाग के ढरकी थे। चरवाहों ने कभी शहरों को घास का मैदान नहीं समझा, उन्होंने समझ लिया, और नगरों पर हमला कर दिया, आक्रमण करने और नगरों को मिट्टी में मिलाने के बाद दो पीढियां नगर में बिताने के बाद उन्हें पता चला यहां सब कुछ तो है परंतु घास तो है ही नहीं। उनकी दो पीढ़ियों तक उनके ढोर भूखे प्यासे इस प्रतीक्षा में कहीं जीवित रहे कि कभी तो इनको हमारा ध्यान आएगा। ध्यान आया। वे शहर छोड़ कर फिर अपने ढोर संभाले हुए चा़रागाहों की ओर निकल पड़े । और ठीक इस मौके पर जंगल में शरण लेने वाले ब्राह्मणों को सही मौका मिला। उन्होंने जंगलों से निकल कर, आर्यों के बीच घुसपैठ करके चुपके से आर्यों की भाषा भी सीख ली और उन्हें उल्लू बनाने लगे।

परंतु आर्य ठहरे योद्धा, सच कहें तो गाय पालने के कारण, गउदम दिमाग के, इसलिए उल्लू बनने को तैयार नहीं थे। वे लगातार ब्राह्मणों से ब्राह्मण बनने के लिए संघर्ष करते रहे और अंत में उनकी विजय हुई, परंतु जीते तो बहादुरी की जगह अहिंसा का इतिहास, श्रमण आंदोलन आरंभ करके, जिंदगी से भाग करके। ऐसी बहादुरी, ऐसी जीत केवल भारत में हो सकती है और केवल भारतीय विद्वान अपने बलबूते पर इसे संभव बना सकते थे। धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे, पुराविदानो अधुनाभवो वा।

यदि ब्राह्मण का काम शिक्षा है और वह कुछ भी कर सकता है तो भारत के विषय में चिंतन करने वाले, देसी-विदेशी सभी विद्वान ब्राह्मण हैं क्योंकि वे सभी अपने बुद्धि बल से असंभव को संभव करते रहे हैं और इस योग्यता के कारण ही, इसके अनुपात में, अपनी महिमा को प्राप्त करते रहे हैं । ऐसे लोग कुछ भी कर सकते हैं और करते आए हैं।

ब्राह्मण झटपट किसी दूसरे की भाषा सीख ही नहीं सकता बल्कि उस भाषा को सीखने के बाद, जिसकी यह भाषा थी, उसे उस भाषा से वंचित भी कर सकता है, क्योंकि ज्ञान एक संपत्ति है और उस संपत्ति पर अधिकार करने वाला उसके पुराने मालिक को उससे वंचित कर सकता है, यह इतनी सीधी बात है जो इसे न समझ पाए उसकी समझ पर दया की जा सकती है, और दयावश उसे दरकिनार किया जा सकता है।

भाषा आक्रमण करने वाले गावदी लोगों की थी परंतु इतनी परिष्कृत कि दुनिया की श्रेष्ठतम सभ्यताओं ने अपने उत्थान काल में उसी से काम चलाया। उस पर ब्राह्मणों का कब्जा हो जाने के बाद, जिन की भाषा थी उन्हें उससे वंचित कर दिया गया। वे अपनी भाषा ब्राह्मणों से ही सीख सकते थे और वे उन्हें सिखाने को तैयार नहीं थे। उन्हें शिक्षा के नाम पर धनुष बाण चलाने, गदा भांजने, और गुरु के पांव दबाने से आगे की, यहां तक कि उनको उनकी जबान जिसे उन्होंने छीन लिया था, सिखाने को तैयार नहीं थे।

ब्राह्मण हथियार नहीं उठाता, और इसी के बल पर यह दावा करता है कि वह नि:शस्त्र होता है इसलिए उस पर हथियार नहीं उठाया जा सकता, फिर भी वह धनुर्विद्या और गदायुद्ध की शिक्षा उनको दे सकता था, जो लड़ने झगड़ने के अलावा कुछ जानते ही नहीं थे। समय की मांग होने पर वह कुछ भी पैदा कर सकता है। देवता से लेकर दानव तक। द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, परशुराम जैसे आचार्य पैदा करना उसके बाएं हाथ का खेल था। पैदा भी कर दिया और दफन भी कर दिया, क्योंकि भारत में किसी के गोत्र नाम के साथ इनमें से किसी का नाम नहीं जुड़ा है।

ब्राह्मण इतना धूर्त होता है कि वह मामूली परिचय से ही किसी की भाषा सीख सकता है उसकी नकल करते हुए पूरी भाषा गढ़कर तैयार कर सकता है। यह विचार भी किसी ऐरे गैरे का नहीं है, एक दार्शनिक का है जिसने भाषा की प्रकृति पर गहन चिंतन और लेखन लेखन किया थाऔर जिसके पांडित्य के प्रति मेरे मन में सम्मान है।

उसका तर्क निराधार नहीं था। तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञानियों को थप्पड़ मारते हुए उसने कहा था, संस्कृत और ग्रीक में समानता के जो कारण आप लोग बताते हैं वे मूर्खतापूर्ण हैं। यह किसी मूल भाषा की शाखाओं में बंटने और फैलने का मामला नहीं है, यह एक ही भाषा है जो एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैली हुई है, इसलिए या तो यह भाषा भारत से ग्रीस में या ग्रीस से भारत पहुंची। यहां तक उसकी तर्कश्रृंखला को चुनौती नहीं दी जा सकती।

इससे आगे वह पूरी तरह अविश्वसनीय नहीं है। तार्किक आधार पर किसी एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंचने वाले किसी जनसंपर्क का प्रमाण जरूरी था। उसे पता नहीं था कि भारत के लोग यूरोप के किनारे तक पहुंचे थे, और सच कहें तो यूरोप और एशिया का विभाजन इस आधार पर हुआ था जहां तक संस्कृत का प्रसार है वह एशिया है और आगे का भाग यूरोप है। यह मेरी सूझ है, इसे जांचने के बाद माने और समझें।

गूगल स्टीवर्ट जिनके विचारों का हमने उल्लेख किया है उनको भारत के यूरोप तक पहुंचने का कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध था, जबकि सिकंदर के भारत पर आक्रमण करने का प्रमाण उपलब्ध था। इसलिए भारत से परिचित ग्रीक विद्वानों ने ब्राह्मणों के जिन अद्भुत कारनामों का वर्णन किया है उसमें कुछ भी असंभव नहीं था। आप स्वयं सोचें कि जो भाषा केवल ब्राह्मणों के पास थी और भाषा चिंतन में जहां पाणिनी जैसी अविश्वसनीय प्रतिभाएं हो चुकी थी, वे क्या नहीं कर सकते थे। उन्होंने ग्रीक भाषा को सीखा ही नहीं, उसको इस तरह बदल दिया कि चोरी पहचान में न आए। धूर्तता की हद है।

यदि आपको ऊपर का विवरण चंडूखाने की गप लग रहा हो तो इस बात का ध्यान रखें कि इसी चंडूखाने में भारत का इतिहास लिखा जाता रहा है और विद्यालयों को चंडूखाने का संजाल बनाकर पढ़ाया और नशेड़ी बनाया जाता रहा है। अपनी पड़ताल कीजिए कि चंडूखाने का कितना असर आप पर पड़ा है और उससे बाहर आने का प्रयत्न आपने कभी किया है या नहीं।