Post – 2020-06-05

#शब्दवेध(54)
ठोस भी द्रव

दृषद
दृषद – पत्थर। यह शब्द भी योगिक है इसमें प्रयुक्त दोनों शब्दों – दृ और सत – का अर्थ पानी है। हम पहले यह बता आए हैं कि कौरवी में स्वरलोप की प्रवृत्ति थी। उसके प्रभाव से पूरबी ‘तर’ के दो रूप बने – 1. ‘त्-र’ जो त्र, स्थानवाची के रूप में स्वीकार किया गया। सच कहें तो यह भो. धर- जो (इ-/उ-/कि-/जि+धर) – स्थान, धरा का कौरवी प्रभाव में बदला रूप था धर>तर>त्र* । 2. तर जिसका अर्थ जल था जो तरंग मे मिलता है। इसके अंत्य और मध्य अकार का लोप हो गया – तर > त्+र् ।

व्यंजन प्रधान भाषाओं में स्वर लोप के कारण उच्चारण में समस्याएं पैदा होती हैं। एक ही लिखित शब्द को किताब, कुत्ब,कुतुब, कातिब रूपों में पढ़ा जाता है। तत्कालीन कौरव क्षेत्र के लोग इसका उच्चारण कैसे करते थे, इसका हमें सही ज्ञान नहीं। परंतु इस बात की पूरी संभावना है इसी से ‘ऋ’ स्वर की उद्भावना हुई जिसका उच्चारण कुछ लोग घर्षी ‘ऱि’ (ऱिषि/ रिसि) और कुछ दूसरे ‘ऱु’ (ऱुषि) के रूप में करते हैं। इसी प्रभाव में तर>तृ बना।

पूरब की ही किसी घोष-प्रेमी बोली में तर का श्रवण और उच्चारण दर के रूप में होता था। इसके कौरवी में तीन रूप बने। एक में अन्त्य स्वर का लोप हुआ – दर> दर् जो दर्प, दर्श में मिलता है। दूसरे में मध्य स्वर का लोप हुआ। इसे हम द्रव, द्रप्स में पाते हैं। तीसरे में दोनों स्वरों का लोप हुआ जो दृग, दृढ़ में मिलता है। यही ‘दृ’ दृषद में पाया जाता है जिसका अर्थ है, पत्थर, सिल (दृषद-उपल = सिल-बट्टा) और यही दृषद्वती में भी पाया जाता है जहां इसका अर्थ हमारी समझ से जल है।

सत् (सत्व, सत्य) का अर्थ पानी है, इस पर किसी बहस की जरूरत नहीं। इस तरह हम पाते हैं कि दृषद दो जलवाची शब्दों से बना है। पर पत्थर का अपना स्वभाव है जो पानी से संज्ञा लेने के बाद भी रहेगा तो पत्थर जैसा ही। पानी उसके स्वभाव के लिए भी शब्द लुटाने के लिए तैयार है तर >तड़कना, – दर > दरकना। परंतु सर्वत्र इनका अर्थ विकास समानांतर होते हुए भी कुछ विभिन्नता लिए हुए है जिसके कारण इससे नई परिघटनाओं और व्यंजनाओं के लिए शब्दावली के निर्माण में बहुत सहायता मिली है। तर > तड़ तंड/टंटा (वितंडा), > तांडव; दर>दाँट/ डाँट,डाँठ (ओषधियों का तना), दाँड़ (दाडिम) डाँड़/ दंड – किसी नदी या समुद्र का तटीट ऊँचा भाग (तु. रिज ridge से) । यूरोपीय भाषाओं मे तर( -जल) के घोषित रूप ‘दर’ अधिक पसंद किया गया – E. drop, drink, drip, drap, drain, *dr>dry, ड्रा (draw), ड्राफ्ट (draft), ड्रिफ्ट (drift) ड्राट (draught), ड्राट (drought) आदि, जब कि अ-घोषित ‘त’ भारत के विपरीत लाक्षिक आशयों में – trip, tray, train, true, track, trace, trim, trickle, trend, tip, tipsy, terror, term आदि में स्थान पा सका।
गिरि
गर – जल, गर्गरा (घग्घर/ घाघरा)- सुजला; फा. गर्क- जलमग्न, गीला, गलना, (सं. धातु- ग्लै), ग्लानि – गलना,, ग्रस, (gulp), glutton – one who eats to excess (गटकने वाला) ग्लिसिन(glisten- to shine,, ग्लास (glass), ग्लो(glow, gloss-brightness) ग्ली glee,, ग्लैड (glad), ग्लेज (glaze), ग्रस/ ग्रास (grass), जलवाची और जलीय शब्दों की एक पूरी श्रृंखला है जिससे गिरि का संबंध दिखाई देता है और दूसरा कोई स्रोत नहीं है, जिससे इसकी व्याख्या की जा सके।
पर्वत
पर्वत शब्द का प्रयोग बादलों (या ते अग्ने पर्वतस्येव धारा, – मेघस्य उदकस्य धारा, सा.) और पहाड़ों (दादृहाणं चिद् बिभिदुर्वि पर्वतम् -( पर्वतं शिलोच्चयम्, सा.) और शिलाखंडों (वि पर्वतस्य दृंहितान्यैरत्, ‘शिलाभिः दृढ़ीकृतानि द्वाराणि’. सा.) के लिए देखने में आता है। बताया यह जाता है कि इनका नामकरण – पर्व अर्थात गांठ के कारण पड़ा है। घुमड़ते हुए बादल गांठ के फन्दे का भ्रम पैदा करते हैं और ऊंचे नीचे पहाड़ धरती पर गाँठों की तरह दिखाई देते हैं। शिलाखंड तो गाँठ हैं ही।

परंतु ध्वनि तो इनमें से किसी के पास नहीं होती या बादलों से जो ध्वनि पैदा होती है, उसका उसके नामकरण में कोई भूमिका दिखाई नहीं देती। इनके नामकरण का एक ही स्रोत रह जाता है और वह है जल। प्र /प्ल (प्रवण, प्लव, प्लावन), पल, पाल (पाला) सभी का अर्थ जल है। ‘पर’ ‘प्र’ का पूर्व रूप है और इसके साथ भी वैसी ही समस्या उपस्थित हुई जो ‘तर’ के साथ हुई थी और वैसे ही ‘पर्’, ‘प्र’ और ‘पृ’ (पृक्ष -अन्न; पृक्षमत्यं न वाजिनम् में द्रुतगामी आशय है, । सा. प्रसंगभेद से अन्न का अर्थ जल करते भी हैं।), रूप बने थे, यद्यपि अन्तिम (पृण् का स्थान पुर/पूर- ने ले लिया)। पर्जन्य में पर् – जन्य, जल उत्पन्न करने वाला, अर्थात बादल में, पर/प्र का जलवाची होना असंदिग्ध है। इस दृष्टि से पर्वत जलवत या जल वाला हुआ। इसी कारण यह बादल और पहाड़ दोनों के लिए प्रयोग में आया लगता है न कि गाँठ के कारण।

पर्व का एक दूसरा रूप था परु है, जो परुष्णी (ऋग्वेद में परिगणित नदी) में लक्ष्य किया जा सकता है। परुष का अर्थ कठोर या नम्रतारहित है। सभी नदियां पहाड़ों से निकलती हैं और उनकी धारा में दूरी के अनुसार विविध आकार के शिलाखंड पाए जाते हैं। यह किसी एक नदी की विशेषता नहीं और इसलिए यह जरूरी नहीं कि इसे किसी एक नदी की विशिष्टता मान कर उसका नामकरण इस आधार पर किया गया हो, पर नामकरण की समस्या ऐसी है कि इस पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती। फिर भी परुष और परुषता के लिए संज्ञा तो नाद के अक्षय स्रोत से ही आएगा इसलिए जल की भूमिका परुषता में भी बनी रहेगी।
शैल
शैल का शाब्दिक अर्थ है शिलोच्चय। शिला को शिर/शिल और इनके पूर्वरूप सिल, सिल्ली और सीलन से अलग करके देखने चलें तो समस्या होगी और हाथ कुछ न आएगा।
पहाड़
पहाड़ के विषय में हम सांकेतिक रूप में विचार करते आए हैं। यह उसी पह से बना है जिसे पहिया के पूर्वरूप पाहन में पाते हैं जिसमें गति का भाव अधिक स्पष्ट है, इसलिए पह (इया) को बहिया/ बह(ना) और वह/वाह(न) का रूपभेद मानना अधिक समझदारी की बात होगी। इसके बाद कहने को सिर्फ यह बच जाता है कि धारा में बह और घिस कर वर्तुलाकार हुए पत्थरों को जो संज्ञा दी गई थी उसी में संबंधसूचक (पह+अड़<अळ< अर = वाला) जोड़कर पहाड़ बना लिया गया। ऋग्वेदिक पहेली में कहें को पिता पुत्र बन गया, और पुत्र पिता - कविर्यः पुत्रः स ईमा चिकेत यस्ता विजानात् स पितुष्पितासत् । --------------------- *इसमें संभवतः पूरबी असर से अंतिम अक्षर हलन्त नहीं हुआ जो कौरवी में एक नियम सा है, इसलिए जिसमें लेखन में अकारांत शब्दों का भी उच्चारण निरकार या हलंत होता है। लिखित मन - पठित मन् । इसके उच्चारण में कोई समस्या नहीं थी ।

Post – 2020-06-04

#शब्दवेध(53)
ठोस भी द्रव

पर्वतों, नदियों, स्थान-नामों और यहां तक कि अपनी जातीय पहचान के लिए प्रचलित शब्द किसी क्षेत्र में किसी नई भाषा के वर्चस्व से बदल नहीं जाते हैं। वे पहले से होते हैं, महत्व के केंद्र यदि पहले से रहे हों तो उनके नाम बदल भी दिए जायँ, पर नगण्य स्थान नामों आदि में परिवर्तन संभव नहीं होता। वर्चस्वी संस्कृति के प्रभाव के बाद इनके लिए जो नए केंद्र और संस्थान बनते हैं उनको जो नाम दिए जाते हैं, वे अवश्य इस भाषा के अनुरूप होते हैं। ऐसी स्थिति में पहाड़ आदि पर विचार करते समय यह भय बना रहता है कि कहीं, इन पर विचार करते हुए, किसी तरह का अन्याय न हो जाए।

यहाँ एक भेद अवश्य करना होगा। यह है व्यक्तिवाचक और जातिवाचक के बीच। जहाँ व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ प्राचीन बोलियों की बनी रह जाती हैं, वहीं जातिवाचक संज्ञाएँ नई वर्चस्वी भाषा के अनुरूप होती हैं।

किसी भाषा के आदिम क्षेत्र को पहचानने की दृष्टि से, इस पहलू पर विचार किया जाना चाहिए कि उसके व्यक्तिवाचक स्थान नाम, नदियों के नाम, पर्वतों के नाम, बोलचाल की भाषापरोपरा के हैं या नहीं। यदि इनमें विरोध है तो व्यावहारिक भाषा और उसे बोलने वाले प्रभावशाली लोग अन्यत्र से आए हुए हैं, यदि अविरोध है तो यह इस बात का निर्णायक साक्ष्य है कि भाषा का जन्म उसी क्षेत्र में हुआ है और यह उस भू-भाग में फैली है जिसके व्यक्तिवाचक स्थाननाम, नदी नाम, जाति नाम वर्तमान भाषा से अनमेल पड़ते हैं।

भारोपीय भाषा की उत्पत्ति को लेकर इतने लंबे समय तक विचार होता रहा परंतु इस अचूक मानदंड को कभी काम में नहीं लाया गया, जबकि अमेरिका से परिचय के बाद यह सभी विद्वानों को आईने की तरह साफ दिखाई देता रहा हो। हम इस विषय पर यहां इससे अधिक चर्चा जरूरी नहीं समझते। यह भूमिका अंग्रेजी में पहाड़ और चट्टान के कतिपय पर्यायों पर विचार करने के लिए जरूरी थी।
रिज (ridge)
रज- 1. पानी, 2. धूल, 3. चमकीला/ आभासित > ऋज्र (गतिशील, प्रवाही) > 1. ऋजु – सीधा, 2. रज्जु, 3. रंज/रंग, रेच/रेक (अतिरेक)> रेकु- रिक्त, रेक्ण- धन आदि पर ध्यान दें। अंग्रेजी में रज के निकट का कोई शब्द हमें दिखाई नहीं देता। इस मूल से निकले रजत के प्रतिशब्द अर्जेंटम को अवश्य भारत से बाहर तलाशा जा सकता है। रज के इसी आभा वाले पक्ष से राजा शब्द निकला है। अंग्रेजी में सीधे राजा शब्द नहीं है, परंतु रानी के लिए रेजिना (regina- queen, < L. regina) मिलता है। ला. में राजा के लिए रेक्स (rex), राजसी के लिए रीगल (regal- kingly), रेजस (regius- royal), राजसत्ता के लिए रिजीम (regime < L. regimen), राज के लिए रिजन (region, L. regio- to rule), राज्यकाल के लिए रेन (reign<ला. regnum<रिगेर regere- to rule ) राजसत्ता के लिए रेजीमेंट(regiment< L. regimentum < regere-to rule), सातत्य के लिए रज्जु के विकल्प रेन (rein - briddle )- फा. रास (वै. रश्मि, हिे. रस्सी) देखने में आता है। पानी वाला भाव रिंज (rinse-to wash lightly by pouring, shaking and dipping) में, और गति वाला, राइज ( rise- to extend upwards, to surmount); रेज. (raise- to make higher or greater), राइड (ride-to be borne by an animal, vehicle), और उठान रिज (ridge- the earth thrown up by the plough between the furrows, a long narrow top or crest, a hill range). रॉक (rock) रक/लक- पानी > रक्त/लक्त (आ-लक्तक) > अं. लैक्ट -(lact- ) – दूध-> लैक्टोमीटर ( lactometer) – दुग्धमापी; लैक्टियल (lacteal)- दूधिया; रुक (रोचन, लोचन) >. लुक (look तु. हि. लू, लुकाठा, भो. लुक्का, लुक्क- उल्कापात का प्रकाश, फा. रू, रुख); लेक(lake-a large or considerable body of water within land) – तालाब; लाइक (like- 1.identical, 2. to approve, enjoy) – सदृश, चाहना; लेकु ( OE. lacu- stream> ME. lac.> lanne; *a small stream or water channel); लैक्टियल (E. lacteal – of milk, L. lac, lactis- milk) दूध का बना; लैकस्ट्राइन ( lacustrine- pertaining to lakes-) झील विषयक, लिक (lick) चाटना; लीक (leak) चूना; लिक्विड (liquid)- द्रव; लैक (lac -) लाख >लाक्षा*; लक(luck, look) रॉक (rock- a large outstanding natural mass of stone), रेक ( raik – course, journey, range, pasture) रुक (ruck- 1. wrinkle, fold or crease)- रुक्षता, 2. heap, stack, a multitude) – जमाव, जमाकड़ा, और राक ऐंड रोल – नृत्य विशेष। इस तरह हम पाते हैं कि रक, लक, रिक, लिक, लीक, रुक, लुक, रेक, लेक, लैक (रेचन), और नृत्य का रॉक या दोलन सभी जल और जलीय आशय रखते हैं फिर रॉक पत्थर की विशाल चट्टान बन भी जाये तो उस नियम को नहीं उलट सकती जिसके अनुसार मूक को वाचाल जल अपने किसी नाद से बनाता है।

माउंट/ माउंटेन (mount/ mountain)
माउंट शब्द सुनकर आपको अमाउंट की याद आनी चाहिए। याद तो माड़, मंडप, मड़ई, मंत. और अंत की भी आनी चाहिए, परंतु आपको लगेगा यहां कुछ ज्यादती हो रही है। उत्साह में बहक जाने या चौंकाने के लिए दूर की कौड़ी खींच कर लाने का आरोप लगाना अनुचित प्रतीत न होगा, परंतु सचाई जितनी आश्चर्यजनक होती है उतनी कभी कभी कवि कल्पना भी नहीं होती। चैंबर्स डिक्शनरी में दर्ज निम्न शब्दावली पर ध्यान दें:
अमाउंट ( amount – to go up, to come in total) 1. ऊपर जाना, 2. राशि। इसकी व्युत्पत्ति प्राचीन फ्रेंच और उससे पीछे लातिन से दी गई है (O.Fr. amonter -to ascend < L. ad, to mons, montis- a mountain) , अर्थात, अकाउंट भी उसी मूल से निकला है, जिससे माउंट और माउंटेन। माउंट को प्राचीन अंग्रेजी में मंत लिखा और बोला जाता था ( mount -O.E. munt) जो श्रीमंत, बलवंत आदि में प्रयुक्त मंत और वंत से अभिन्न दिखाई देता है। आगे की व्युत्पत्तियां पूर्ववत हैं (O.Fr. mond < L. mons, montis- mountain)। माउंट के कुछ और भी अर्थ जो इन्हीं में समाहित हैं, ऊपर चढ़ना, सवार होना, पार पाना, यहां तक कि जिल्दसाजी में ऊपर से कोई आवरण मढ़ना या चिपकाया जाना आदि हैं। ऐसे में क्या मूल अर्थ-योजना में भो. माड़, माड़ो, मड़ई, मेड़ - खेत के चतुर्दिक ऊँचा बाँध, मेठ - किसी कार्य दल का सरदार, सं. >मंडन, मंडप, मंदिर (देखें L. mundus – the world, E. mundane- earthly worldly और तुलना करें बक के व्युत्पत्तिकोश से जिसका हवाला हम पहले दे आए हैं) और मन्त को उचित स्थान मिलेगा या नहीं। ला. में दो रूप मिलते हैं, एक मन्स और दूसरा मोन्तिस (L. mons, montis) जो सं. मन (श्रीमन/ श्रीमान) और मन्त से अभिन्न हैं।

माउंट से मिलता-जुलता शब्द माउंड है, जिसकी व्याख्या पश्चिमी भाषाविदों को असमंजस में ड़ाल देती है (mound – boundary-fence, a bank of earth or stone,(orig. obscure) पर हमें चकित नहीं करती, क्योंकि हमारी बोलियों में मेढ़, मेठ, मढ़ना जैसे शब्द हमारी सहायता के लिए उपलब्ध है। इस शब्द का दूसरा अर्थ है ऊपर जाना, जाना (to go up, to climb) जिसकी उत्पत्ति फ्रेंच और लातिन के सहारे की गई है ( रसा/लसा/लासा > लाख> लाक्षा। रस का प्रकाश : रस > लस (इ. लश्चर लूसे) > लख >सं. लक्ष/ लक्षण,, लक्ष्य अदि।

Post – 2020-06-03

#शब्दवेध(52)
ठोस भी द्रवसंज्ञक

मुहावरा तो यह है कि पत्थर नहीं पसीजता, पत्थर नहीं पिघलता, पत्थर का कलेजा नहीं फटता, परंतु प्रकृति का विधान कुछ ऐसा है कि पानी पत्थर (उपल) हो जाता है और द्रवित भी होता है, पसीजता भी है और बाहर की चोट के बिना ताप और शीत के प्रभाव से दरकता भी है। जहां तक संज्ञा का प्रश्न है, मनुष्य के हस्तक्षेप से उससे ध्वनियाँ भी पैदा होती है, परंतु यह हैरान करने वाली बात है कि पत्थर और पहाड़ का नामकरण इन ध्वनियों पर नहीं जल की ध्वनियों पर आधारित है।

कड़
पहली नजर में ऐसा लगता है कि यदि दूसरे नाम जल पर आधारित हों भी हो तो कड़ की ध्वनि तो पत्थर के पत्थर से टकराने की ही पैदा हो सकती है। यह संज्ञा मनुष्य ने इसे पाषाण युग में अपने औजार बनाते समय उत्पन्न ध्वनि की नकल करते हुए दी होगी। पहले हम स्वयं भी यही सोचते थे परंतु कतिपय तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हमें अपनी पुरानी धारणा बदलनी पड़ी। पहला यह कि तमिल में ‘कल’ का अर्थ पत्थर है। लातिन में calx / calcis – lime stone को कहते हैं।, इस रोशनी में विचार करने पर हम पाते हैं चूना पत्थर के लिए हिंदी में भी कल्ली का प्रयोग होता है। दूसरा पक्ष यह है कि ‘कल’ का उच्चारण बोलियों में कल, कळ, कड़ रूपों में होता है। इसलिए आरंभ जहां से भी हुआ हो, किसी एक रूप से सभी का अलग-अलग बोलियों में प्रयोग संभव था । कल के अनेक आशयों में सबसे प्रधान जल है, पत्थर ठीक उसके बाद आता है। इन दोनों का संकल्पनाओं के नामकरण और अर्थ विकास में सहयोगी भूमिका है। कड़ की आवर्तिता से कंकड़ बना है, परंतु कंकड़ के कंक – को हड्डी के लिए प्रयोग में लाया गया, जिससे यह कंकाल – अस्थि-पंजर -के लिए प्रयोग में आया और पंजर ने मानव शरीर को एक पिंजड़े के रूप में कल्पित करने में प्रेरक की भूमिका निभाई, जिसमें आत्मा और परमात्मा पक्षी के रूप में कैद हैं और इनमें से एक पिजड़े का आराम, बिना कुछ किए खाने-पीने की लालच को त्याग नहीं पाता और दूसरा अपनी मुक्ति चाहता है, परंतु जब तक यह पंजर टूटता नहीं है वह मुक्त नहीं हो सकता।

भारतीय मनीषा में यह अवधारणा इतने गहरे उतरी हुई है और इसे इतने रूपों में दुहराया गया है कि जिसे समझने में सुपठित लोगों को जितनी कठिनाई होती है उससे बहुत कम आयास से अनपढ़ लोग इनका मर्म समझ लेते हैं। इसका दूसरा बिंब – एक डाल दो पंछी बैठे एक गुरु एक चेला वाला है। जो इन पंक्तियों में डाल है वह ऋग्वेद में एक वृक्ष के रूप में कल्पित किया गया है – (द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति, अनश्नन अन्यो अभि चाकशीति) । यदि आप जानना चाहें कि वृक्ष क्यों? तो इसका उत्तर है कि वक्ष, वृक्ष और अंग्रेजी के box में अर्थसाम्य है। वृक्ष का एक पुराना नाम वन था, जो आगे चल कर जंगल का पर्याय बन गया, और फिर वन में विचरने वाले दो प्राणियों की कल्पना पक्षी के रूप में नहीं की जा सकती थी, इसलिए पक्षी का स्थान दो हिरनों ने ले लिया – हिरना समुझि समुझि बन चरना।
पाषाण
पाषाण का नाम लेने पर पाखंड अर्थात पाषंड का ध्यान आता है। इसका प्राचीन अर्थ करुणा, दया हुआ करता था। जैनमत और बौद्ध धर्म को पराजित करने के लिए ब्राह्मणों ने भर्त्सना को अपना हथियार बनाया तो उनकी मूल्य-परंपरा से जुड़े हुए आस्थापरक शब्दों को भी गाली में बदल दिया। उसके विस्तार में न जाएंगे, परंतु यह बताना जरूरी है कि दया भाव के लिए प्रयुक्त इस शब्द को वह अर्थ दे दिया जिससे हम सभी परिचित हैं पाषाण शब्द का जल से क्या संबंध है इसे समझने में यह इतिहास सहायक है। अब यदि हम पस/पश > (पसावन), पसिजल , पसेव/पसीना>प्रस्वेद, पसरल> प्रसार, पास (किण्वित पेय), पशु, पूषा, पूष, पौष, पासी,पसंद जैसे शब्दों पर ध्यान दें तो ऊपर की धारणा को समझने में मदद मिल सकती है। जल से जुड़ी अवधारणाओं को – प्रकाश >*पश > पिंश – सजना, पेशस्-रूप, स्पश- spy, ओपश – आभामंडल, गति – पेस (pace), पास (pass), पैसेज (passage), पुश (push), पैसन (passion) और मवाद के लिए पस( पस/पश मूल से निकले हैं। इनमें से एक-एक की राम कहानी बयान करना हमारे लिए भी अपनी सीमाओं को देखते हुए संभव नहीं लगाता। और कुछ का आविष्कार किया।

Post – 2020-06-02

#शब्दवेध(51)
ठोस भी जल है
बात पहेली की नहीं है, कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो एक तापमान पर द्रव में न बदल जाए। प्राचीन मनीषियों ने इसे इस रूप में समझा या नहीं परंतु यह विचार भारतीय चिंतन में केंद्रीय रहा है कि आदि में केवल जल था परंतु वह जल होकर भी जल नहीं था। वह स-सार जल था, अप्रकेत सलिल जिसमें सब कुछ समाहित था। वह ब्रह्म (महत ताप) भी जिसमें सृष्टि की कामना पैदा हुई, होते हुए भी न होने की तुच्छता में समाहित विराट! (तम आसीत् तमसा गूळ्हं अग्रे अप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् । तुच्छ्येन अभ्व अपिहितं यदासीत् तपसः तत् महिना अजायत् एकम्) था। प्रकाश भी उसी से पैदा होना था।

परंतु हम जिस जल की बात कर रहे हैं वह उससे भिन्न, जिसमें अप्रकेत रूप में समग्र ध्वनियाँ, समग्र भाषा निहित थी, जो मूक को भी वाचाल कर रही थी। परंतु इसकी एक सीमा थी और है। यह सीमा उस भाषा की सीमा है जिसका जन्म आर्द्र भूभाग में हुआ। इसे हम भारोपीय की संज्ञा देते हैं। यह संस्कृत नहीं थी, वैदिक नहीं थी, एक अर्थतांत्रिक भाषा थी जिसमें प्रमुखता उस भाषा की थी जिसने संस्कृत का रूप लिया, परंतु साथ ही साथ, इसकी गतिविधियों में अनेक दूसरे समुदायों और उनकी बोली बानी भी योगदान था, अतः इसके लिए सबसे उपयुक्त नाम भारोपीय ही लगता है, यह हम पहले कह आए हैं। हमने पीछे द्रवों के नाम पर विचार किया। उनके लिए सामान्य जल के ही पर्यायों मे से किसी का निर्धारण किया गया और लंबे समय तक सामान्य और विशेष दोनों अर्थ में प्रयोग में रहने के बाद उनका उन रूपों में स्थिरीकरण हुआ।

ठीक यही ठोस पदार्थों के साथ हुआ। जिन पर हम विचार करने जा रहे हैं, परंतु हम चाहेंगे कि इस चर्चा में अंग्रेजी के माध्यम से सुलभ यूरोपीय प्रतिरूपों पर इस बात की चिंता किए बिना शामिल करें कि उनकी क्या व्युत्पत्ति उनके कोशों में दी गई है। उनकी उपेक्षा करने का हमारा कोई इरादा नहीं है, कारण यह है कि उनमें जहाँ यह दावा किया जाता है कि शब्द विशेष की उत्पत्ति (origin) अमुक है वहाँ भी केवल सजात (cognate) शब्दों का हवाला दिया जाता है, जिससे मूल का पता नहीं चलता। दूसरे, भाषाविज्ञान की जिस समझ पर उनको असाधारण श्रम से जुटाया गया है, वह उनकी समझ से भी गलत है।

मूल उस संभावित बोली या उन बोलियों में तलाशा जाना चाहिए जिसका विकास कतिपय इतर बोलियों के परिवेश में और अनेक के सहयोग से किसी विशेष कारण से हुआ और जहां संभव हो, विकास के उन निर्णायक मोड़ों का आभास मिलना चाहिए, जिनसे उस मानक, समृद्ध, परिनिष्ठित चरण पर पहुँचने के बाद किसी सुसंगत तंत्र के माध्यम से उस विशाल भूभाग में इसका प्रसार हुआ। इसका इस भाषाविज्ञान में आभास तक नहीं मिलता, इसलिए उसमें जो गलत है वह तो गलत है ही, जिसे सही माना और इस रूप में प्रचारित किया जाता है, वह भी गलत है, यद्यपि त्याज्य वह भी नहीं। वह मूल्यवान आँकड़ों का सत्ता और प्रचार के बल पर श्रम और सलीके से सजाया गया ऐसा मलबा है जो संरचना का भ्रम पैदा करता है। उसका उपयोग तो किया ही जा सकता है।

पत्थर के सभी पर्याय जल की ध्वनियों से निकले हैं यह हम कुछ संदर्भों में देख आए हैं, यद्यपि विस्तार भय से वहाँ न तो हम सभी भारतीय भाषाओं में सुलभ प्रतिरूपों को ले सके न अंग्रेजी में सुलभ रूपों को। यदि समस्या भारोपीय की है तो इसमें यूरोपीय पक्ष को शामिल करना जरूरी है।

हम समस्या पर तनिक उलट कर विचार करें। क्या चर/कर/शर का विकास यूरोपीय भाषाओं में परिलक्षित होता है। दूसरी बात, क्या पेबल pebble के साथ वैसी विकास रेखा – जल> प्रवाह/गति> पत्थर के खंड> गोलाकृति, दिखाई देती है जो इसके प्रचलित भारतीय प्रतिरूपों में देखने में आती है।

हम पेबल से ही आरंभ करे – प/पी/पे/पो – जल, *pup,> प्रप(प्रपा, प्रपात) pulp- फल या लता के भीतर का गूदा; बृबु* (अधि बृबुः पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धन् अस्थात् , उरुः कक्षो न गांग्यः, 6.45.31> bub> bubble, पीवर – (युंजाथां पीवरीरिषः, पीवरी वावयित्री स्थूलो वा, सा.- solid) peb -pebble; पव (त. पो- जाना) गति > bob- to move quickly up and down; भस/ भास – दलदल bog- marsh, बग्गी (वह/बघ) >bogie/ bogey- a low heavy truck [origin unknown)

वट/बट-pebble, bat,> batter, battle, beat > bead- a little ball strung with others in a rosary; beadle – a mace bearer) <वर/वृ> वर्त (वृत, वृत्त, वृत्ति, वर्त्म, वर्तमान)- verse वीर्य – वीरता, पुरुषार्थी (virile), वृत-पेशस >वोल्ट-फेस ( volt-face – turning round), (जल)आवर्त – भँवर vortex- a whirling motion of a fluid forming cavity in the center.

चर्कर/चक्कर > शर्कर यौगिक शब्द है जिसके घटकों (चर/शर और कर) का अर्थ जल है इसलिए अंग्रेजी के माध्यम से car> carry, carriage, carrier, current, currency, courier, chariot, character, shirk, shrink, circle इत्यादि). कर/कळ/कड़ > करका- ओला, कड़ा (कन- जल+कड़ >कंकड़), कड़ाके की सर्दी का अर्थ हुआ – जमा देने वाली ठंड। L. calx, E. clash,कलेश, क्लिष्ट, E..creep, creek, crawl, crag, crash, crust, crest, crack, krank, crude, cruel, creed) । श्र> श्रव, स्र स्रव, स्रुवा, shrink, slink slip, slink- दबो पाँव जाना, to go sneakingly, slow, sloth, slop- spilled, liquid, slope, slide.

स्टोन . सत/स्त -जल, >स्तन; > स्थ < थ/ थन, थान, E. stir, stick, stare, steer, steep, step, stair, still, stay, stone. प्रश्न यह किया जा सकता है कि इस तरीके में पहले के व्युत्पादनों से क्या अंतर है, इसका उत्तर यह है कि पहले शब्द प्रतिशत तलाश करते हुए सजात शब्दों से पीछे नहीं जाया जा सकता था, इसमें उस बोली तक, शब्दों के आदिम तर्क और बिंब तक पहुँचने के प्रयत्न में रहते है इसलिए हम शब्द से नहीं शब्द और अर्थ के परिवेश को सामने रखते हैं अकेले शब्दों को उनके परिवेश से अलग करके नहीं समझा जा सकता, जिस तरह एकल मनुष्य को उसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य को समझे बिना नहीं समझा जा सकता क्योंकि एक भाषा से दूसरी में पहुँचने पर शब्दों के रूप, उच्चारण और अर्थ में भिन्नता आ जाती है। ------------------------------ *बृबु और बृबुतक्ष का प्रयोग व्यक्ति नाम में हुआ है। साम्य स्वर-व्यंजन विन्यास में है।