Post – 2020-07-06

#शब्दवेध(77)
अकादमिक प्रवंचना

मुझे बात भाषा पर करनी है, जिन लोगों का हवाला देते हुए अभी तक अपनी की बात की है, वे भी भाषा पर ही बात कर रहे हैं। उनके पास -उनमें किसी के पास – एक भी, तथ्य और साक्ष्य नहीं थे, केवल दृढ़ संकल्प था कि साक्ष्य जो कुछ भी कहें, प्रमाण जो कुछ सिद्ध करें, हमें वही मानना है जो हमारी श्रेष्ठता और प्रभुत्व के लिए जरूरी है। चित या पट, जीत हर हाल में हमारी। हम खेल के नियमों का पालन करते हैं, खेल के नियम बनाते हैं। पैमाइश की जरीब का सिरा कहीं भी गिरे, खूँटा वहीं गड़ेगा जहां तक की जमीन दखल करने का हमारा इरादा है। इसे जबरदस्त का ठेंगा कहा जाता है। यूरोप की सभी भाषाओं में यह न्याय की परिभाषा रही है।

‘हम खेलते हैं, खेलने से पहले नियम भी बनाते हैं, खेलने के बाद नियम में सुधार भी करते हैं। नियम ऐसे बनाते हैं जिससे जीत हमारी ही हो फिर भी जिस नियम के पालन से हार से बच नहीं सकते, उनको बदल देते है और इस तरह हार को जीत में बदल देते हैं। हार हमें गवारा नहीं, इसलिए जीत के लिए नियम बलदना बाध्यता है। ऐसा खेल के नियम में ही नहीं होता, समाज के नियम में भी होता है, प्रशासन में भी होता है, राजनीति में भी होता होता है, कूटनीति में भी होता है और ज्ञानशास्त्र में भी होता है। इसे पाश्चात्य रैशनलिज्म कहा जाता है। इसे विश्वसनीयता की कीमत पर किया जाता है और खो रही विश्वसनीयता की रक्षा के लिए प्रचार माध्यमों का इतनी चतुराई से से प्रयोग किया जाता है कि सचाई की परिभाषाएँ बदल जाती हैं।

मैं किसी को गलत सिद्ध करने की जगह सचाई को प्रस्तुत करना चाहता हूं जिससे यदि आप चाहे तो अपने विचारों में परिवर्तन कर सकते हैं या उतने ही स्पष्ट शब्दों में मेरा विरोध कर सकते हैं।

1- सत्य क्या था? सच यह था कि जिस विलियम जोन्स भारत आने से 14 साल पहले से यह मानते थे कि संस्कृत ग्रीक और रोमन में गहन समानताएँ हैं। इसके लिए भारत आने की जरूरत न थी:
More than a hundred years ago, in a letter written to Prince Adam Czartoryski, in the year 1770, he says: “Many learned investigators of antiquity are fully persuaded, that a very old and almost primeval language was in use among the northern nations, from which not only the Celtic dialect, but even Greek and Latin are derived; in fact, we find πατήρ and μήτηρ in Persian, nor is θυγάτηρ so far removed from _dockter_, or even ὄνομα and nomen_ from Persian _nâm_, as to make it ridiculous to suppose that they sprang from the same root. We must confess,” he adds, “that these researches are very obscure and uncertain, and you will allow, not so agreeable as an ode of Hafez, or an elegy of Amr’alkeis.” In a letter,
dated 1787, he says: “You will be surprised at the resemblance between Sanskrit and both Greek and Latin.”

इसके लिए उन्हें भारत आने की जरूरत नहीं थी। भारत आगमन मात्र पहले से बनी हुई धारणा को कहने के लिए उपयुक्त पर्यावरण की तलाश से अधिक से कुछ न था।

2. सच यह है यूरोप की सभी जातियों के विषय में उनकी परंपरा स्वयं यह बताती थी कि वे बाहर से आए हुए हैं। कुछ मामलो में पुराने ठिकानों की याद भी है। इसी के आधार पर मैक्समुलर ने आर्यों के निवास से यूरोप के सभी जनों को एक-एक करके रवाना होने की कल्पना की थी। परंतु भारतीय परंपरा के अनुसार सृष्टि के आरंभ से सभी भारतीय यहीं निवास करते आए हैं उनमें अंतर बाहर से आने वालों और स्थानीय लोगों का नहीं था,अपितु उत्पादन पद्धति और मूल्यों मान्यताओं के बीच टकराव का था। जोन्स ने यूरोपीय परंपरा को भारत पर आरोपित कर दिया, जो उनकी जरूरत थी, भारतीय परंपरा का सच नहीं

3. जोंस ने संस्कृत की प्रशंसा करते हुए जब कहा था कि The Sanscrit language, …is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more copious than the Latin, and more exquisitely refined than either, yet bearing to both of them a stronger affinity, both in the roots of verbs and the forms of grammar, इसलिए ऐसा तभी हो सकता था जब ये एक ही मूल से निकली हों जो संभव है आज कहीं हो ही नहीं तो वह संस्कृतज्ञों को खुश करते हुए दलील यह दे रहे थे कि ये सारे गुण बोलचाल की भाषा में संभव नहीं, यह भारत में ब्राह्मणों को छोड़ किसी दूसरे द्वारा बोली नहीं जाती, इसलिए इसका चलन कहीं अन्यत्र रहा होगा। भाषा की निखोटता और परिष्कृति भाषा को अव्यावहारिक सिद्ध करने की दलीलें थीं और इसी के आधार पर उस भाषा के साथ ही इसे बोलने वालों को अपने घर से ही बेघर कर दिया गया। इसके लिए कुछ धन, मान, पद, पुरस्कार भी जुड़ा था इसलिए ब्राहमणों ने इसे मान लिया या चुप्पी साध गए। वह प्राचीन भाषा – वैदिक – भी भारत में बोली जाती थी जिससे संस्कृत को मानक रूप दो ढाई हजार साल बाद पाणिनि ने दिया यह कहने का साहस किसी ब्राह्मण नें नहीं किया। जिन्होने दूसरों को वेद पढ़ने के अधिकार से वंचित कर दिया वे स्वयं भी केवल वेद की दुहाई देते रहे, पढ़ने और समझने वाले गायब थे।

4. वेद की खोज ईसाई कर रहे थे जिससे किसी न किसी तरह उसकाे विकृत करके ईसाइयत को सर्वोपरि मत सिद्ध किया जा सके, जिस काम में बंसेन के आग्रह पर मैक्सुलर भी कंपनी को यह आश्वासन देते हुए कि इससे तुम्हारा ही काम ही सिद्ध होगा, जुड़ गए थे। पर जब वह प्राचीन भाषा जिससे उन सभी बोलियों का जिनका उल्लेख जोंस ने किया था, मिल गई और उसके भौगोलिक क्षेत्र को भारत से बाहर कहीं पाया ही नहीं जा सकता था तो समस्या का हल तो निकल गया। हम अपने शब्दों में नहीं, मैक्समुलर के शब्दों में ही इसे देखें
If a botanist writes on germs, has he to defend himself, because he does not write on flowers? Why, it is simply because the Veda is so different from what it was expected to be,… it stands alone by itself, and reveals to us the earliest germs of religious thought, such as they really were; it is because it places before us a language, more primitive than any we knew before; it is because its poetry is what you may call savage, uncouth, rude, horrible, it is for that very reason that it was worth while to dig and dig till the old buried city was recovered, showing us what man was, what we were, before we had reached the level of David, the level of Homer, the level of Zoroaster, showing us the very cradle of our thoughts, our words, and our deeds.
वह भाषा जिससे दूसरी भाषाएँ निकली थीं, वह तो भारत में ही मिल गई, फिर इतने लंबे समय तक आर्यों और उनके आदि देश की खोज क्यों की जाती रही? इस खोज में मैक्समुलर कैसे शामिल हो गए? हमारे प्रकांड पंडित क्या करते रहे? अपने पहामहोपाध्याय की बारी की प्रतीक्षा?

Post – 2020-07-05

एक व्यवधान के कारण समय की कमी हो गई। आधा ही लिख पाया,पन्ना खाली न रह जाए इसलिए :

वह क्षण

कैसे आता है वह बेआवाज
चितकबरी खाल ओढ़े
झाड़ियों में दुबका
खुली रोशनी
और गहन अँधेरे से बचता हुआ
एकटक आँखें गड़ाए
कैसे लेता है उछाल
हवा को चीरता
गड़ाता दूर से ही अपने पंजे
सीने के भीतर
और निहारता दूर खड़ा
अपने नाखूनों को
पंजों से अलग।

वह आखिरी क्षण
जिसका रहता है उम्र भर इंतजार
कितना डरावना लगता है
कितना खूँखार
फिर भी कितना अपना।
4.1.97
————

दिशाहारा

वह उत्तर गया
उत्तर बनने
प्रश्न बना लौटा
उत्तर कहाँ है?

वह पश्चिम गया
पहाड़ बनने को
रेत बना लौटा
विराटता कहाँ है?

वह पूर्व गया
दूसरों से आगे बढ़ने
पछाड़ खाकर लौटा
गति किधर है?

वह दक्षिण गया
अद्यतन बनने को
प्रदक्षिणा करता लौटा
वर्तमान कहाँ है?

वह धँस गया
जहाँ था वहाँ
जो भी था, जैसा भी
बने रहने को
खूँटे सा तना
दिशा किधर है?
——-

Post – 2020-07-04

##शब्दवेध(76)

संस्कृत से परिचय ने रंगभेद, क्रूस, यूरोकेन्द्रता से ग्रस्त और औपनिवेशिक विस्तार के साथ तकनीकी अग्रता से उद्धत यूरोप को पहला झटका दिया था जिसमें जननी भाषा के ‘खयाल’ काे बे मानी करते हुए संस्कृत को ही संदर्भबिंदु बना दिया था:
Sanskrit certainly forms the only sound foundation of Comparative Philology, and it will always remain the only safe guide through all its intricacies.A comparative philologist without a knowledge of Sanskrit is like an astronomer without a knowledge of mathematics. He may admire, he may observe, he may discover, but he will never feel satisfied, he will never feel certain, he will never feel quite at home.

पर भारत छोड़ कर इसे कहीं भी, अनर्गल से अनर्गल कोने मे उत्पन्न सिद्ध करने की व्यग्रता को भी बढ़ा दिया था। दूरी एसी होनी चाहिए जो शेखचिल्ली की उड़ान न लगे, पर उसका विरोध न होने पर इसे क्रमशः पश्चिम की ओर सरकाते हुए सभ्य आर्यों को दरिंदों की जमात में बदली जा सकता था।

संस्कृत व्याकरण से परिचय ने दूसरा झटका दिया था और यह झटका अचूक था, क्योंकि किसी भी तर्क से यह सिद्ध नहीं किया जा सकता था पाणिनि भी भारत में बाहर से आए थे। उनके तथा दूसरे भारतीय वैयाकरणों के सामने पश्चिम का समग्र भाषा चिंतन बचकाना सिद्ध हो रहा था। यह सोने का वह हँसिया था जिसे न उगलते बन रहा था ना निगलते बन रहा था। इसकी आश्चर्यजनक परिपक्वता और पूर्णता का निषेध उन भारतीय संस्कृत विदों के सम्मोहन को भी तोड़ सकता था, जिन्हें बहला फुसलाकर इस बात के लिए राजी कर लिया गया था कि वे अपनी भाषा के साथ किसी दूसरे देश से आए हो सकते हैं।
There are but few among our very best comparative philologists who are able to understand Pâ{n}ini. .that it treats language not as a vehicle of literature, but for its own sake.

साहित्य के माध्यम के रूप में भाषा के अध्ययन की जगह भाषा के लिए भाषा के अध्ययन में जो अंतर है उसे समझना जरूरी है। इसे शुद्ध वैज्ञानिक अध्ययन कहते हैं। परंतु यहां भी पश्चिमी श्रेष्ठता का कोई ना कोई बहाना तलाशना जरूरी था :
It would be far more accurate to say that the Indian and Greek systems of grammar represent two opposite poles, exhibiting the two starting-points from which alone the grammar of a language can be attacked, viz., the theoretical and the empirical. Greek grammar begins with philosophy, and forces language into the categories established by logic. Indian grammar begins with a mere collection of facts, systematizes them mechanically, and thus leads in the end to a system which, though marvelous for its completeness and perfection, is nevertheless, from a higher point of view, a mere triumph of scholastic pedantry.

जिसे तरह का परिरक्षणवादी तरीका पश्चिमी विद्वानों ने अपनाया, उनकी आलोचना करते समय हमसे कोई अन्याय न हो जाए इसलिए हम वस्तुस्थिति का सही चित्र प्रस्तुत करना जरूरी समझते हैं:
1.जैसा कि विलियम जोंस ने अपने अभिभाषण में स्वीकार किया था संस्कृत भाषा का यूरोप में प्रवेश बहुत प्राचीन काल में ( वास्तव में हड़प्पा सभ्यता के दौर में) दो केंद्रों से हुआ था . एक भूमध्य सागर का पूर्वी तट; दूसरा इथोपिया। ये भारतीय नौवहन में आगे बढ़े हुए थे। और उन्होंने समुद्री मार्ग से ही इटली और ग्रीस में प्रवेश किया था जिसका समर्थन यूरोपीय परंपरा करती है और जिसका उल्लेख विलियम जोंस ने आइज़क न्यूटन को भी बनाते हुए दिया था।

2. इससे पहले यूरोप पशुचारण की अवस्था में था। चरवाहे सारी संपदा लेकर खुलेआम चलते हैं जिनको कोई भी छीन या हांक कर ले जा सकता है। इसलिए स्वभाव से वे उद्दंड होते हैं और अपनी उद्दंडता को एक मूल्यवान विरासत मानकर उनके सामने भी झुकने को तैयार नहीं होते जिनके अधीन होने को विवश या जिनके ज्ञान के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है।

3. यूनानियों में इसी के कारण दुहरी प्रतिक्रिया देखने में आती है। एक ओर एक श्रेष्ठतर सांस्कृतिक दाय का शिष्य भाव से अनुकरण और वैसा बनने की उत्कट लालसा और दूसरी ओर इतना ही उग्र प्रतिरोध, जिसमें ईरानियों से भी अधिक उग्रता से भारतीयता विरोध दोखने में आता है। इन्हें वे एशियाटिक रूप में जानते थे, उनसे नफरत भी करते थे। एशियाटिक और भारतीय उसी समय से एक दूसरे के पर्याय हैं। उनके पास अपनी हीनता ग्रंथि से मुक्ति का यही एकमात्र उपाय था, यद्यपि इसका ही दूसरा नाम कृतज्ञता है।

4. यह सांस्कृतिक विद्वेष होमर के कृतित्व में है। होमर स्वयं एशियाई ग्रीक था। पहले इस शब्द के उच्चारण पर ध्यान दें। ग्रीक में ‘ह’ का उच्चारण नहीं होता। अब होमर ओमर या ओम: हो जाएगा। इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। ग्रीक किसी भाषा के किसी भी शब्द का सही उच्चारण नहीं कर पाते थे और अंग्रेज उनसे भी आगे थे, जो ग्रीक नामों को भी बिगाड़ कर पेश करते रहे, और अरब अपनी व्यंजन प्रधान भाषा के कारण दूसरे ढंग से पेश करते रहे। ऐसे में ग्रीक नामों का सही उच्चारण पता नहीं है और यदि भाषा की अनन्यता थी तो सुकरात को सुकर्त/ सुक्रतु, अफलातून को अभ्रतन, अरस्तू को अरिस्त्रात के रूप में उसी तरह याद किया जा सकता है जैसे सिकंदर को राहुल जी ने अलीक सुंदर के रूप में चित्रित किया था। परंतु इससे कोई नई बात सिद्ध नहीं होती इसलिए इसका पार्श्विक महत्व ही है। इससे अधिक सार्थकता इस बात में है कि ग्रीक का आदर्श रूप एशिया में विकसित हुआ और उस हीनता ग्रंथि का भी उद्घाटन सबसे पहले एशियाई ग्रीकों के माध्यम से हुआ।

5. सटे पास में विश्व विख्यात मिस्री सभ्यता, दूसरी निकटस्थ मेसोपोटामियाई सभ्यता को तिरस्कृत करती हुई भारतीय सभ्यता इन सबको घेर कर छाई रही । दूसरी सभ्यताएं अपनी भौगोलिक सीमा में सिमटी रहीं और यह अकेली सभ्यता अपने सांस्कृतिक उपादान, भाषा, उपाख्यान, पुराण, मिथक, देव शास्त्र, विचार और दर्शन के साथ इतने बड़े भौगोलिक क्षेत्र में व्याप्त रही यह प्राचीन विश्व सभ्यताओं की तुलना में भारतीय सभ्यता के वर्चस्व का अकाट्य प्रमाण है, जिसका ज्ञान आरंभ से आज तक पश्चिमी जगत को रहा है और जिसे नकारने की चेष्टा में उसने मानविकी के सभी क्षेत्रों के अध्ययनों को विषाक्त कर दिया फिर भी जिस झूठ का बचाव नहीं कर सकी।

6. यह नहीं भूलना चाहिए कि ग्रीक सभ्यता का उन्मेष इस सभ्यता के यूनान में प्रवेश के लगभग 1000 साल बाद आरंभ होता है जिसमें अपना अतीत तक विस्मृत हो चुका या अप्रिय टीस होने के कारण अवजेतन में जा चुकी है।

7. एक अन्य बात यह कि पश्चिमी एशिया में अपनी सत्ता कायम करने वाले अपने भारतीय पूर्वजों की तुलना में अनेक नए अनुभवों से गुजरने के कारण अधिक प्रखर थे और वे पद्य की अपेक्षा गद्य में अपनी बात कहते थे। इसका परिणाम यह कि छन्द और मात्रा के दबाव में अभिव्यक्ति जिस तरह बाधित हो जाती है उस तरह की बाधा उनके विचारों और अभिव्यक्ति में नहीं दिखाई देती।

इस परिपेक्ष में ही हम यूनानी सहित यूरोपीय भाषाचिंंतन की तुलना कर सकते हैं, परन्तु यह काम कल ही हो सकता है।

Post – 2020-07-03

#शब्दवेध(75)
संस्कृतियुद्ध

रोम ने ग्रीस पर विजय पाई इसके साथ ही सांस्कृतिक स्तर पर उनको पराजय का सामना करना पड़ा। ग्रीक रोम के अधीन हो गया, रोमन ग्रीस के शिष्य बन गए।

यूरोप में जो घटना एक बात हुई, भारत में इसे कितनी बार दोहराया गया, इसका सही अनुमान कर पाना कठिन है। विजेताओं ने अपनी क्रूरता, धूर्तता, विश्वासघात और जासूसी, और कुछ मामलों में आयुधों में अग्रता के योग से, उस देश को अनेक बार परास्त किया जो युद्ध और आपदा में भी प्राणपण से नैतिकता का निर्वाह करता था और जो ऐसा नहीं कर पाते थे उनका तिरस्कार करता था। यह प्रतिक्रिया किसी वर्ग या हैसियत तक सीमित न थी, सार्विक थी अतः विजय के कुछ ही वर्षों के भीतर वे विजेता शिष्य भाव से उन्हीं जीवन मूल्यों के लिए अपने प्राण उत्सर्ग करने को तैयार हो जाते थे, जिनके कारण कभी उन्हें भारतीयों को परास्त करने में आसानी हुई थी।

हैवानियत की सीमाओं को पहचान कर, मानवमूल्य अपनाने वालों में केवल मध्य एशिया और मंगोलिया के वहशी ही नहीं थे, वे ग्रीक भी थे, जो सिकंदर की सेना के साथ आए थे, उसके अंग थ् और किसी कारण वापस नहीं लौट सके थे।

डूगल्ड स्टीवर्ट की यह उद्भावना कि यूनानी यों के प्रभाव से संस्कृत भाषा का जन्म हुआ था जितना भी हास्यास्पद क्यों न हो, यह तो सच है ही कि भारत में रह गए यूनानियों ने अपने को ब्राह्मणों की कोटि में लाने के लिए उस समय तक उपेक्षित तंत्र-मंत्र के संग्रह अथर्ववेद को चौथा वेद सिद्ध करते हुए, अपने को इस नए वेद का भी ज्ञाता होने का दावा करते हुए, उन ब्राह्मणों से जो केवल त्रयी का ज्ञाता होने का दावा करते थे, अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए चारों वेदों का अधिकारी ही सिद्ध नहीं किया, हिंदू धर्म पर आने वाली आपदाओं में अनन्य बलिदान देते हुए उसकी रक्षा की।

यदि इसे कसौटी बनाया जाए तो, यूरोप में जिस समाज ने राजनीतिक पराजय का मुंह देखने के बाद भी सांस्कृतिक विजय प्राप्त की वह ग्रीक थे, और सार्वभौम फलक पर अगर उसी कसौटी को अमल में लाया जाए तो वे भारतीय थे, जिनके सामने ग्रीकों को भी समर्पण करना पड़ा।

यह निर्विवाद है कि ब्रिटेन ने, और दूसरे यूरोपीय देशों के जिन अन्य देशों ने भारतीय भूभाग के किसी भी हिस्से पर अधिकार जमाया उनमें शौर्य कहीं नहीं दिखाई देता, कपटाचार औ र विश्वासघात हर मोड़ पर दिखाई देता है।

विजय उन्हें प्राप्त हो गई परंतु विजेताओं में उनके प्रति सम्मान भाव नहीं पैदा हुआ,, आतंक अवश्य पैदा हुआ। किसी विजेता के लिए इससे अधिक अपमान की बात क्या हो सकती है कि उसका वशवर्ती उसे इतना तुच्छ समझे कि वह मृत्युभय होने के बाद भी उसके हाथ का पानी पीने से इन्कार कर दे, उसके स्पर्श तक से अपने को अपवित्र समझे।

इस सांस्कृतिक अपमान बोध से आरंभ हुई थी मूल्य व्यवस्था की उस शक्ति के स्रोत की खोज और इसी से पैदा हुई थी वेदों और पुराणों के प्रति जिज्ञासा जिन्हें समझने वाले तो विरल थे, परंतु जिसके मूल्य, वर्ण निरपेक्ष रूप में ,अशिक्षित और अल्प शिक्षित जनों में सर्वाधिक व्याप्त थे। यहीं से उत्पन्न हुई थी उस भाषा में दिलचस्पी जिसमें ये ग्रंथ लिखे हुए थे और हम कह सकते हैं “ज्यों ज्यों ज्ञान गहन भयो, त्यों त्यों घटो गुमान।”

धर्मयुद्ध के अपमानजनक अनुभव के बाद पूर्व के ज्ञान, और पूर्व के अनुसंधान से मिली संजीवनी और अपने यूनानी अतीत के पुनराविष्कार से नवोदित, ऊर्जस्वित, विश्व विजय की लालसा से उद्वेलित पश्चिम की सबसे अमूल्य सांस्कृतिक पूँजी थी ग्रीक सभ्यता जिसके समकक्ष, उनकी तब तक की दृष्टि में , विश्व में कहीं कुछ हो ही नहीं सकता था।

संस्कृत की खोज के साथ उनका ग्रीकभाषा की श्रेष्ठता का अभिमान, संस्कृत मनीषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और दर्शन की श्रेष्ठता का अभिमान, संक्षेप में कहें तो सांस्कृतिक वर्चस्व का अभिमान, ध्वस्त हो रहा था। इस्लाम के विस्तार के विरुद्ध यूरोप ने धर्म युद्ध लड़ा था, भारत में उसे सांस्कृतिक युद्ध लड़ना पड़ रहा था। धर्म युद्ध मे हथियार की भी भूमिका होती है, सांस्कृतिक मुठभेड़ में एक का दूसरे के सामने उपस्थित होना ही इतनी बड़ी चुनौती बन जाता है कि कोई हथियार, यहां तक कि तर्क और न्याय का औजार भी बेकार हो जाता है। इस मोर्चे पर या तो समर्पण किया जा सकता है जो पराजय दिखाई देने के बाद भी परम विजय है या विषवपन किया जा सकता है और बड़े पैमाने पर योजनाबद्ध रूप में विषप्रचार किया जा सकता है जिसमें मोर्चा संभालने वाले योद्धा भी विषभक्षी बनकर समर्पण के लिए प्रतिस्पर्धा करने लगें और विजेता स्वयं भी इसका आदी बन जाए और अपनी भावी पिढ़ियों को भी इसका आदी बनाता चला जाए।

यह युद्ध कभी समाप्त नहीं होता, इसमें किसी भी चरण पर शिथिलता नहीं बरती जाती। यूरोप के साथ भारत को धर्म युद्ध नहीं लड़ना पड़ा, परंतु सांस्कृतिक युद्ध वह आज तक लड़ रहा है। जो भी इस व्यक्ति बुनियादी सचाई को नहीं जानता वह न तो अपने आत्मसम्मान की रक्षा कर सकता है, न ही राष्ट्राभिमान की बात कर सकता है। तदगतेन मनसा वह मालिकों, पुरस्कर्ताओं और संरक्षकों के पांव के नीचे जगह अवश्य तलाश कर सकता है।

बाबा साहब ने भी अस्पृश्यता के सामाजिक पक्ष पर ध्यान दिया, मूल्यव्यवस्था के प्रभावी औजार के रूप में नहीं देखा जिसमें यह निहित था कि यदि स्वच्छता, आचार, खानपान के एक मर्यादित स्तर पर आप खरे नहीं उतरते तो आप अस्पृश्य हैं और इसी कारण किसी परिजन की मृत्यु के बाद एक निश्चित अवधि एतक पूरा परिवार अस्पृश्य बना रहेगा, उस परिवार का भी वह व्यक्ति जिसने दाह कर्म किया है अपने परिवार के दूसरे सदस्यों के लिए, शाकाहारी परिवार में आमिषभक्षी और उसके उपयोग में आने वाले पात्र, रजस्वला स्त्री और सूतक काल में प्रसवा, चेचक आदि के प्रकोप को झेलता परिवार अस्पृश्य बना रहेगा। आईसीयू में सभी बाहरी लगभग अस्पृश्य थे और आज तो कोरोना ने इसे इस तरह रेखांकित किया है कि इसकी आरोग्यपरकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। यदि उन्होंने इसकी गहनता को समझा होता तो उनके आन्दोलन ने आर्थिक न्याय के लिए संघर्ष का रूप ले लिया होता जिसके कारण ही समाज के एक बड़े हिस्से को नारकीय जीवन जीना और अस्पृश्य वन कर रहना पड़ता है।

Post – 2020-07-02

#शब्दवेध(74)
दूसरा पहलू

अभी तक हमने भारतीय स्रोत सामग्री के आधार पर अपनी बात कही है। सिक्के के दूसरे पहलू पर भी विचार करना जरूरी है, परंतु साथ ही यह भी याद रखना है कि तुलनात्मक भाषा विज्ञान के क्षेत्र में आरंभ से ही विचार के नाम पर धाँधली से काम लिया जाता रहा है।

हमें केवल इस बात का लाभ है कि सच झूठ के सिर पर सवार होकर बोलता है – लाख कोशिश के बाद भी उसमें ऐसी असंगतिया बनी रह जाती हैं, जिनसे उस फरेब का भी तिलिस्म टूटता है, जिसे इतने श्रम और सावधानी से तैयार किया गया था, कि कोई पोच न रह जाए।

विलियम जोंस के व्याख्यानों को यदि ध्यान से पढ़ें तो विवेचन के स्थान पर एक छटपटाहट दिखाई देती है जो डूबने से बचने के लिए हाथ पाँव मारते हुए आपदा ग्रस्त व्यक्ति में दिखाई देती है जो बचने की लाख कोशिश के बाद भी डूब जाता है। भारत को संस्कृत की मूल भूमि मानने से कतराने की सारी कोशिशों के बाद विलियम जोंस अपने अंतिम अभिभाषण में यह मानने को बाध्य होते हैं कि भारत से ही और भारतीयों के द्वारा ही संस्कृत भाषा और भारतीय सभ्यता और संस्कृति का और ग्रीस में प्रवेश हुआ था और फिर पूरे यूरोप में इसका कई चरणों में कई रूपों में विस्तार हुआ था। इसके उजागर हो जाने के बाद बहस करने के लिए कुछ बचा नहीं था, परंतु विलियम जोंस के समूचे अध्ययन में से केवल उस एक वाक्य को जो उनकी व्याख्या में गलत सिद्ध हो चुका था, आधार बनाकर सारी बहस की जाती रही, हर मौके पर झूठ पकड़ा जाता रहा और फिर बयान बदला जाता रहा। एक छोटा सा नमूना मैक्समूलर के उसी चौथे खंड से उन्हीं के शब्दों में:
Similar coincidences and divergences have been brought to light by a comparative study of the history of astronomy, of music, of grammar, but, most of all, by a comparative study of philosophic thought. There are indeed few problems in philosophy which have not occupied the Indian mind, and nothing can exceed the interest of watching the Hindu and the Greek, working on the same problems, each in his own way, yet both in the end arriving at much the same results.Such are the coincidences between the two, that but lately an eminent German professor, published a treatise to show that the Greeks had borrowed their philosophy from India, while others lean to the opinion that in philosophy the are the pupils of the Greeks.
अर्थात् “इसी तरह की समानताएँँ और भिन्नताएँ ज्योतिर्विज्ञान, संगीत, व्याकरण, के इतिहास के तुलनात्मक अध्ययन से, और सबसे अधिक दार्शनिक विचारों के तुलनात्मक अध्ययन से उजागर हुई हैं। सच कहें तो दर्शन की शायद ही कोई ऐसी समस्या हो जिस पर भारतीय मेधा ने विचार न किया हो, और भारतीयों और यूनानियों को उन्हीं समस्याओं पर विचार करते हुए और लगभग एक जैसे निष्कर्षों पर पहुँचते हुए देखने से अधिक रोचक कोई दूसरा काम नहीं हो सकता। दोनों के बीच पारस्परिक समानताएँ ऐसी हैं कि अभी कुछ ही समय पहले एक विख्यात जर्मन आचार्य ने एक मीमांसा प्रकाशित की है जिसमें उसने सिद्ध किया है कि यूनानियों ने अपना दर्शन भारतीयों से लिया है, जबकि कुछ दूसरे लोग यह मानते हैं कि दर्शन के क्षेत्र में भारतीय यूनानी यों के शिष्य हैं।”

इस पैराग्राफ को बहुत ध्यान से पढ़ें। अंतिम पंक्ति “जबकि कुछ दूसरे लोग यह मानते हैं कि दर्शन के क्षेत्र में भारतीय यूनानी यों के शिष्य हैं”, और भी ध्यान से। कारण जिन दूसरे लोगों का हवाला उन्होंने दिया है उनमें ऐसे हिम्मती लोग भी थे जो मानते थे कि भारत के धूर्त ब्राह्मणों ने सिकन्दर के हमले के बाद यूनानी भाषा की नकल पर एक पूरी भाषा ही रच डाली। संस्कृत वही भाषा है इसे तर्क कहें या हुड़दंग, यह तय करना कठिन हो जाता है परंतु ऐसा ही हुड़दंग भारत और एशिया के विषय में पश्चिम के पूरे चिंतन में देखने में आता है जो आज तक बना रह गया है और इसी को रट कर हमारे विख्यात विद्वान हमें पाठ पढ़ाते रहे। इस खुराफात की तर्कपद्धति को समझना जरूरी है इसलिए हम अपने समय के सबसे विख्यात दार्शनिक और अध्यापक, जेम्स मिल के अध्यापक डूगल्ड स्टीवर्ट (वर्क्स, 1823, तीसरा खंड में संस्कृत भाषा की उत्पत्ति के विषय में कुछ अँटकलबाजियाँ शीर्षक से लिखे निबंध के लंबे उद्धरण का, विस्तार से बचने के लिए, हिंदी अनुवाद दिए बिना उद्धृत करना जरूरी समझते है। इसे औरभी ध्यान से पढ़ें:
These conjectures were suggested to me by a remark thrown out by Mr. Gibbon in his history. “I have long harboured a suspicion” he observes, “that some, perhaps much, of the Indian science was derived from the Greeks of the Bactriana.” To this hint, however I paid little attention, till I found the same opinion stated with considerable confidence by the very learned Meiners…who refers to…. The proofs alleged by Bayer in his Historia Regni Graecorum Bactriani. But on looking into this work of Bayer, I was much disappointed to find that it embraces only a very narrow corner of Indian science; relating almost entirely to the names of numbers; the division of time into minutes, hours, weeks and months, etc, the Hindoo calender ; and certain astronomical cycles; which he labours to show that the Indians derived from the Greeks and not the Greeks from Indians….

It is universally known that after the conquests of Alexander in Asia it was one great object of his policy to secure the possession of his new empire by incorporating and assimilating, as for as possible, his Asiatic and his European subjects… On the other hand, he encouraged the Persian nobles to learn the Greek language and to cultivate a taste for Greek literature. We find him in prosecution of the same design, not only marrying one of the daughters of Darius, but choose ing wives for hundreds of his principal officers in the most illustrious Persian families. The example was so eagerly followed by the lower ranks, that, we are told, above ten thousand Macedonians married Persian women, and received marriage gifts from Alexander, as a mark of his approbation.75-76

If these facts be duly weighed, the conjecture of Meiners will not perhaps appear extravagant that, that it was in consequence of this intercourse between Greece and India, arising from Alexanders conquests, that the Brahmins were led to invent their sacred language. “For, unless,” he observes, “they had chosen to adopt at once a foreign tongue,” against which obvious and unsurmountable objections must have presented themselves, “it was necessary for them to invent a new language, by means of which they might express their newly acquired ideas, and, at the same time, conceal from other Indian castes their philosophical doctrines, when they were at variance with the commonly received opinions.” I cannot, however agree with Meiners, in thinking that this task would be so arduous as to require labor of many generations, for with the Greek language before them as model, and their own language as their principal raw material, where was the difficulty of manufacturing a different idiom, borrowing from the Greek the same, or nearly the same system, in the flections of the nouns and conjugations of the verbs, and thus disguising, by new terminations and a new syntax, their native dialect? If Psalmanazar was able to create, without any assistance, a language, of which not a single word had a previous existence but in his own fancy, it does not seem very bold hypothesis, that an order of men, amply supplied with a stock of words applicable to all matters connected with the common business of life, might, without much expense of time and ingenuity, bring to a systematic perfection of an artificial language of their own, having for their guide the richest and most regular tongue that was ever spoken on earth; – a tongue too abounding in whatever abstract and technical words their vernacular speech was incompetent to furnish…..

But although a very moderate degree of industry might have been sufficient to bring this language to such a degree of perfection as would fit for the essential purposes which its framers had in view, it was perhaps the work of successive ages to bestow on it all the improvements of which it was susceptible. It is difficult to conceive how far these improvements might be carried in the unexampled case of a language, which was never contaminated by the lips of the vulgar, and which was spoken only by men of contemplative and refined habits, peculiarly addicted to those abstract speculations which are so nearly allied to the the study of grammar and philology. 79-80

रोचक बात यह है कि मैक्समुलर ऐसे लोगों का उपहास भी करते हैं और ग्रीक या यूरोपीय श्रेष्ठता की हिमायत में दबे स्वर में इनका सहारा भी लेते हैं। इतने ही से संतुष्ट न हो कर वह स्वयं इसी तरह के कुतर्क और फतवेबाजी से वहाँ काम लेते हैं. जहाँ भारत की पश्चिम से तुलना करनी होती है, इसे हम आगे की पोस्टों
मे देखेंगे।

दुर्भाग्य से उसी पाठ को स्वायत्त कर लेने के बल पर हमारा बुद्धिजीवी वर्ग अपने को बुद्धिजीवी समझता है। दुर्भाग्य यह नहीं है कि यह सीमा केवल स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के बुद्धिजीवी वर्ग की है जिसने उत्साह से पश्चिम के वैचारिक और कला आंदोलनों को आत्मसात करने के प्रयत्न के साथ उनकी बराबरी पर आना चाहा और यह भूल गया कि अनुकर्ता अनुकरणीय की समकक्षता में कभी आ नहीं सकता, अपितु इससे पहले स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले बुद्धिजीवियों में भी कोई इस फरेब को भाँप नहीं पाया, क्योंकि उनको पद, प्रतिष्ठा और संरक्षण दे कर संभ्रांत अनुचर तो बनाया ही जा चुका था, ब्राह्मणों में यह मिथ्या बोध पैदा करने मैं उन्हें सफलता मिली थी कि वे भी शासक वर्ग से, कुछ दूर से ही सही, रिश्ता रखते हैं। अतः इससे तिलक भी मुक्त न हो पाए थे। भारत का नवजागरण भी जमुहाई से आगे नहीं बढ़ पाया। ऐसे में अकेले प्रकाशस्तंभ के रूप में खड़ा केवल एक व्यक्ति दिखाई देता है जो पाश्चात्य फरेब से मुक्त दिखाई देता है और वह हैं स्वामी दयानंद सरस्वती जिनकी भूमिका का सही मूल्यांकन आज तक हुआ ही नहीं। उस गहन तिमिर में एक मात्र जलती मशाल।

Post – 2020-07-01

#शब्दवेध(73)
दंडवत प्रमाण
दंडवत प्रणाम से आप परिचित हैं, दंडवत प्रहार का अर्थ समझने में समय लगता है, परंतु अर्थ सही निकलता है। एक में अपने स्वाभिमान का इसलिए समर्पण कि आप की गिरावट का प्रशस्तिगान किया जाता है। दूसरे में किसी ग्रंथ या विचार या मान्यता को डंडे की तरह ऐसे विचारों, स्थापनाओं और खोजों को दबाने या खतरनाक सिद्ध करने की चेष्टा की जीती है, जिनका खंडन नहीं हो पाता। दोनों में आभासिक अंतर है, पर समर्पण का भाव दोनों में एक जैसा है।

दंडवत प्रमाण का सहारा लेने वाले बहुत पढ़े-लिखे लोग होते हैं, पर के वे दिमाग को सूचनाओं के गोदाम की तरह उपयोग में लाते हैं। उनकी नजर में कुछ व्यक्ति मान्यताएं और ग्रंथ इतने आप्त होते हैं कि उनसे किसी तरह की विचलन को इसी आधार पर गलत सिद्ध किया जा सकता है।

डंडा भाँजने के सभी रूप सत्य तक पहुँचने में बाधक है, परन्तु सबसे खतरनाक है आत्मप्रमाण – अपने सही होने पर इतना विश्वास की आप किसी विषय, व्यक्ति या मान्यता पर अपने सुविचारित या अविचारित मत की घोषणा कर दें और यह मान लें कि आप के विषय में पहले से बनी राय के कारण लोग इसे मान लेंगे।

जहां तक मानने का प्रश्न है लोग मानते तो इन सभी प्रमाणोंं को हैं परन्तु इनमें जो चीज गायब होती है वह है प्रमाण और जो प्रयोग में आता है वह है डंडा। पर्याप्त साक्ष्य, प्रमाण और संगत तर्क पेश किए बिना यदि आप अपना सुविचारित विचार प्रकट करते हैं तो आप अपना इस्तेमाल एक डंडे के रूप में ही करते हैं।

हमने दो दिन पहले एक बहुत विवादास्पद बात कही थी, परंतु प्रसंग ऐसा था उनके समर्थन में प्रमाण प्रस्तुत न कर सका था। मैं इसे अकादमिक लेखन का एक बड़ा दोष मानता हूं इसलिए उसका विवेचन जरूरी था। यह कथन था के भारोपी अध्ययन आरंभ होने से पहले का भाषाशास्त्र, (फिलालॉजी), भाषाशास्त्र था, और कहते हैं संस्कृत से यूरोपीय भाषा की खोज के साथ तुलनात्मक भाषाशास्त्र का जन्म हुआ (it was the study of Sanskrit which formed the foundation of Comparative Philology, मै. मु, चिप्स खंड 4). और इसको भाषा का विज्ञान बनाने का प्रयत्न किया गया ( My principal object in claiming for the Science of Language the name of a physical science, was to make it quite clear, once for all, that Comparative Philology was totally distinct from ordinary Philology, …, वही). इससे पहले भाषा के किसी अध्ययन को विज्ञान नहीं कहा जाता था इसलिए यह एक तरह से भाषाविज्ञान का आरंभ था, (One of the great charms of this new science is that there is still so much to explore, so much to sift, so much to arrange. वही)। हैरानी की बात यह है कि जो बहुत कुछ खोजा जाना था उसने कुछ ऐसा गुल खिलाया कि भाषा अध्ययन की इतनी वैज्ञानिक शाखाएँ विकसित हुईं कि वे अपनी सटीकता में भौतिकी और ज्योतिर्विज्ञान से प्रतिस्पर्धा करती हैं जब कि उस अधीति को ही जिससे भाषाविज्ञान का जन्म हुआ था उसे भाषाविज्ञान के दरबार से इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि वह विज्ञान की अपेक्षाओं पर सही नहीं उतर सकी। यह फैसला सस्युर का था, और अपनी परिणति में यह सही था। परन्तु इसके लिए उन्होंने जो तर्क गढ़ा था वह गलत था, वास्तविक कारण की उन्हें समझ न थी या समझ थी तो वह स्वयं भी उससे इतने ग्रस्त थे कि उसे सही नाम नहीं दे सकते थे। जो कारण बताया था वह इतना गलत था कि भाषा की प्रकृति की उनकी समझ पर संदेह होता है और वह भी इस सचाई को स्वीकार करते हुए कि मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ।

उनका मानना था कि द्विकालिक आँकड़ों के बीच तुलना संभव नहीं। जो विज्ञान में संभव नहीं वह शास्त्र में कैसे मान्य हो सकता था। पहले वह शास्त्र था, अब वह शास्त्र भी नहीं रह गया। इसके बाद भी इसके सुर अलापे जाते रहे, और इसके बाद भी अलापे जाते रहे कि इस कोरस में वे भी शामिल थे जो सस्युर को सही मानते थे, क्योंकि किसी ने सस्युर का खंडन नहीं किया था।

मैं इस इकहरी समझ के लिए सस्युर को इसलिए गलत पाता हूँ कि प्रकृति की तरह भाषा में नया दिखने वाला भी न तो नया होता है न नया नहीं होता। इस रहस्य को रूसी भाषाविदों ने समझा था जिसका सार भाषा पर स्तालिन के विचारों में प्राप्त होता है जिसमें उन्होंने घोषित किया था कि भाषा के मामले में आधार और अधिरचना के सवाल नहीं पैदा होते क्योंकि इनमें आने वाले परिवर्तनों के बाद भी भाषा नहीं बदलती। मुहावरा बदल कर देखें तो पता चलेगा कि भाषा में जो कुछ उपलब्ध है, किसी भाषा में किसी चरण पर सुलभ है वह विद्यमान है, वर्तमान है और इसके बीच तुलना संभव हैं।

यह कैसे संभव है कि जिस अधीति के गहन विमर्श से भाषाविज्ञान की उत्पत्ति हुई उसी को वैज्ञानिकता का गरिमा से वंचित कर दिया गया। जिसके ध्वनि आदि के कतिपय नियमों को आज तक चुनौती नहीं दी गई उनके निष्कर्ष उन मान्यताओं के विपरीत थे । इससे आश्चर्यजनक बात क्या हो सकती है कि विलियम जोंस ने यह मान कर कि कोई भाषा किसी ऐसे देश की नहीं हो सकती जिसमें वह बोली न जाती हो, भारत में संस्कृत केवल ब्राह्मण बोलते हैं इसलिए इस भाषा को बोलने वाले अपनी भाषा लिए बाहर से आए होंगे। ईरान को ऐसा केन्द्रीय देश मान कर खोज आरंभ की पर पाया कि फारसी का संस्कृत से वही संबंध है जो अपभ्रंशों का। नवें और अपने अंतिम व्याख्यान में उन्होंने घोषित किया कि जिस जननी भाषा की वह तलाश कर रहे थे वह नोआ तक पीछे जाने पर नहीं मिली। मिली वह भाषा जिसकी प्रकृति भारतीय थी और जिसके बोलने वाले पूर्वी भूमध्यसागर के तट पर और इथोपिया पर हावी थे और इन्हीं लोगों ने जो नौवहन में भी अग्रणी थे इटली और ग्रीस पर अपना, आपनी भाषा और संस्कृति का आधिपत्य स्थापित किया था।

उनका यह अध्ययन पुराणकथाओं पर आधारित था। इसके शताधिक वर्ष बाद हूयूगो विंकलर ने हत्तूसा से उपलब्ध कीलाक्षर में अंकित पट्टिटों का पाठ करके यह सिद्ध किया था कि यहाँ सचमुच भारतीय आर्यभाषा बोली जाती थी। फिर तो ज्ञान और विज्ञान कुछ कहता है, आप इसकी चुनौती स्वीकार नहीं कर सकते फिर भी लगातार उल्टे नतीजे निकालते हैं। इससे हैरानी की बात क्या हो सकती है। हैरानी की व्याख्या भी मैक्समुलर से ही समझ लें: Wonder, no doubt, arises from ignorance, but from a peculiar kind of ignorance; from what might be called a fertile ignorance: an ignorance which, if we look back at the history of most of our sciences, will be
found to have been the mother of all human knowledge हम इसमें ‘समस्त धुप्पलबाजी की जननी’ अपनी जानकारी के आधार पर जोड़ सकते हैं।