Post – 2020-08-05

दिये जलाओ बातियों को तेजतर कर दो
यह शाम कितने अँधेरों के बाद आई है।

Post – 2020-08-05

#शब्दवेध(94)
सवाल हैं तो सही, सवाल हों तो सही

पहले यह सुझा आए हैं वर्णिक ( अल्फाबेटिक) और मात्रिक ( सिलेबिक) दोनों लिपियों का विकास सिंधु सरस्वती सभ्यता़ से संपर्क रखने वाले भारतीयों ने किया। यह सोच कर हैरानी होती है कि इसमें पहल आसुरी परंपरा से संबंध रखने वाले लोगों ने की, जिन्हें शूद्रों में गिना जाता है, न कि देव/ब्राह्मण परंपरा से आए और कृषि भूमि से लेकर संपदा और तंत्र पर अधिकार करने वालों ने।

यहां हम दो विरोधाभासी बातें कर रहे हैं : (1) हम यह सुझाव दे रहे हैं लिपि और लेखन का आविष्कार और विकास देव समाज ने नहीं किया, जबकि शिक्षा, लिखित साहित्य और सैद्धांतिक ज्ञान पर आज तक उसी का अधिकार बना रहा है। (2) जिनको हम लिपि के विकास का श्रेय दे रहे हैं वे श्रम और कौशल के कामों से जुड़े रहे हैं और शिक्षा से इस सीमा तक वंचित रहे हैं कि वे अपना नाम तक नहीं लिख सकते, इसलिए अपनी कृति की पहचान के लिए वास्तुकार अपने हस्ताक्षर के रूप में शिल्पी चिन्हों का प्रयोग किया करते थे (ब्रजमोहन पांडे)।

यह कुछ उसी तरह का विरोधाभास है जैसे यह कि सारा श्रम, कौशल और उत्पादन असुर परंपरा से जुड़े हुए लोग करते रहे हैं, पर उस पर अधिकार उनका रहा है जो शारीरिक श्रम और उपक्रम से इस सीमा तक परहेज करते हैं कि इससे वे जाति-बहिष्कृत हो सकते थे।

इस अंतर्विरोध को असुर परंपरा की उस वर्जना (हराम या टैबू) के समानान्तर रख कर ही समझा जा सकता है जिसके चलते उन्होंने खेती के लिए जरूरी विविध आयोजनों का प्राणपण से विरोध किया और खड़ी खेती को बर्वाद करने (यज्ञ-विध्वंस या मखनाश) का प्रयत्न करते रहे और संख्याबल कम होने के कारण देवों को अपने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए लगातार छल-छद्म का सहारा लेना पड़ा, जिसके लिए वे जातीय परंपरा में बदनाम भी रहे हैं। हजारों साल तक चलने वाले इस लंबे अन्तर्कलह के बाद देवों ने उत्पादन और समृद्धि का ऐसा स्तर पा लिया और अपनी संगठित शक्ति से बनांचलों को कृषिभूमि में बदलते हुए उन्हें आहार के लिए अपने ऊपर आश्रित बनने पर इसलिए बाध्य कर दिया कि वे कृषिकर्म के लिए तैयार न थे। उनमें से जिन्होंने देर-सवेर कृषि कर्म अपनाया वे अपने क्षत्रिय या ब्राह्मण होने का दावा करते हुए सवर्ण समाज का अंग बनते चले गए। जो अपने कौल पर दृढ़ रहे उन्हें अंततः कृषिश्रमिक बनने को बाध्य होना पड़ा और वही काम भूस्वामियों के सेवक बन कर करना पड़ा जिससे बचने के लिए वे अपने प्राण दे सकते थे या ऐसा करने वालों के प्राण लो सकते थे।

हम यहां आर्थिक सामाजिक ढांचे की बारीकी में जाना नहीं चाहेंगे,क्योंकि इससे विषयांतर होगा, यहां केवल लिपि के संबंध में अपनी बात रखना चाहेंगे। हमारा यह मत कि लेखन का आविष्कार और विकास असुरों (तथाकथित शूद्रों ने किया निम्न साक्ष्यों पर आधारित है:
1. जिन दो व्यक्तियों का नाम लेखन के संदर्भ में आता है वे हैं जमदग्नि और विश्वामित्र हैं जो, असुर परंपरा से संबंध रखते [1] इनके अतिरिक्त जिनका लेखन से लेकर आरेखन के सभी रूपों पर अधिकार था, वे हैं महिलाएँ. परन्तु औपचारिक शिक्षा से वंचित कर दिए जाने के बाद वे भी अपने कौशल में दक्षता और प्रतीकात्मक संचार के लिए चित्रलेखन तक ही रुकी रह गईँ।[2]

2. वेद और ज्ञान पर एकाधिकार रखने की चिंता करने वाले गूढ़ता पर बल देते थे, यहाँ तक कि व्यक्ति के भी दो नाम। एस असल, दूसरा नकली जिसे पुकार नाम कहते हैं। वे अपने ज्ञान को किसी ऐसे माध्यम में लाने के पक्षधर नहीं लगते जिस तक दूसरों की पहुँच हो सके।

3. कविगण अपनी रचनाओंं में उसी दक्षता और सतर्कता का दावा करते हैं जो शिल्पियों में पाई जाती है अर्थान अपनी तुलना में उनकी प्रतिभा की विलक्षणता के कायल हैं। वैसी ही काट, छाँट, सही जोड़ की महत्वाकांक्षा से प्रेरित हैं -इमां ते वाचं वसूयन्त आयवो रथं न धीरः स्वपा अतक्षिषुः सुम्नाय त्वामतक्षिषुः; अभि तष्टेव दीधया मनीषां; एतं ते स्तोमं तुविजात विप्रो रथं न धीरः स्वपा अतक्षम् ; वस्त्रेव भद्रा सुकृता वसूयू रथं न धीरः स्वपामतक्षम्; इयं ते अग्ने नव्यसी मनीषा युक्ष्वा रथं न शुचयद्भिरङ्गैः; अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय इत्यादि।

4. ऋभुओं के विलक्षण चमत्कारों में अपने बुद्धिबल से बिना चमड़े का गाेरू बनाना, निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभिः तो शामिल है ही, फिर बछड़े के साथ माता का सृजन करने की क्षमता भी आती है, निश्चर्मणा ऋभवो गामापिंशत संवत्सेनासृजता मातरं पुनः, जो मात्रायुक्त अक्षरों के अंकन का द्योतक है। अर्थात् लेखन का कार्यभार क्रतुविद शिल्पियों का ही था। मुद्राओ का उत्खचन उनके ही वश का काम था, अतः लेखन का प्रचलन हो जाने के बाद इसका लाभ सभी को मिल सकता था, परन्तु इसमें नए प्रयोग वे ही कर सकते थे। वास्तव में मुद्रण के बाद जो भूमिका प्रेस की थी वही मुहरों आदि के मामले में शिल्पियों की थी।

5. फिनीशियन के साथ जिन विद्याओं प्रवेश भूमध्यसागर के तटीय देशों में हुआ था वे उनके वहाँ पहुँच कर किए गए आविष्कार न थे, अपितु वे अपनी दक्षता अपने पूर्ववर्ती निवास से ले कर पहुँचे थे। फिनीशियनों पर विकापीडिया के लेख में उद्धृत जर्मन विशेषज्ञ Hans G. Niemeyer के अनुसार the Phoenicians “sparked Western civilization” through their “transfusion of Eastern goods, technologies, and ideas that, in turn, became the foundations of Greco-Roman civilization. कहें यह ग्रीक-रोमन सभ्यता की नींव भले हो, वे जहाँ से गए थे वहाँ के वे उत्पाद थे, यह दूसरी बात है कि वहाँ पहुँच जाने के बाद नई परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने पर क्षेत्र में अपने हजार डेढ़ हजार साल के इतिहास में बहुत सारे नए प्रयोग किए जिनमें लिपि को पश्चिम एशिया की सामी भाषाओं की व्यंजनप्रधानता के अनुरूप अपनी मात्रिक लिपि को वर्णिक बनाना भी शामिल था।

फिनीशियन
राजबली पांडे ने फिनीशियन को पणि का अपभ्रंश माना था। पणि का पण्, पणन और वणन अर्थात् वाणिज्य से संबंध बहुत साफ दिखाई देता है। ऋग्वेद में पणि के दो चित्र उभरते हैं। एक की पहचान हमने विस्तार में जा कर उत्तरी अफगानिस्तान के उन जनों के की थी जो अपनी खनिज संपदा के दोहन से परिचित न थे पर दूसरा कोई उनके प्रभावक्षेत्र में किसी प्रकार हस्तक्षेप करे तो इसका विरोध करते थे। इनकी पहचान में हिल्लेब्रांट की पणियों पर की गई लंबी टिप्पणी और पार्नियन कबीलों की पहचान का भी प्रभाव रहा हो सकता है । परन्तु पणि का शाब्दिक अर्थ था धनी व्यक्ति या समूह । ऋग्वेद सें यह शब्द निंदापरक है। इससे उनकी जो विशेषताएँ प्रकट होती हैं वे हैं कि वे कंजूस थे, क्रूर थे, दान और उपहार नहीं करते थे, वैदिक समाज के प्रभावशाली वर्ग से उनका संबंध तनावपूर्ण था। इसी का लाक्षणिक विस्तार उत्तरी अफगानिस्तान के उन घुमंक्कड़ कबीलों के लिए वैदिक उद्यमियों ने किया था।

पणि महत्वाकांक्षी वैदिक व्यापारियों के लिए चुनौती हैं, प्रतिस्पर्धा में वैदिक उपक्रमों को मात देने में सक्षम हैं, वे कामना करते हैं कि होड़ में वे पणियों के बाजी मार ले जाएँ – पणिं गोषु तरामहे। पणि स्वभाव से अहंकारी हैं या ऐसा प्रतीत होते हैं और इसलिए वैदिक कवि पूषा (पालनहार) देव से उनके हृदय को कोमल और अपने अनुकूल बनाने की याचना करते हैं । वे धनी हैं, परन्तु आस्था के मामले में एक भिन्न परंपरा से जुड़े हैं – न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रोऽसुन्वता सुतपाः सं गृणीते। आस्य वेदः खिदति हन्ति नग्नं वि सुष्वये पक्तये केवलो भूत्। 4.25.7

हमारे सामने पूरी स्थिति इतनी धुँधली है कि हम कुछ संभावनाओं का उल्लेख बिना दावे के कर सकते है पर इनका फलितार्थ स्वतः एक दावा बन जाता है। इस संदर्भ में कुछ तथ्यों पर प्रकाश डालना ही पर्याप्त होगा। पहला यह कि फिनीशियन उनका अपना नाम न था अपितु एक अटकलबाजी पर ग्रीकों द्वारा दिया गया नाम था। इसका विस्तार जरूरी तो है पर आज संभव नहीं।
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[1] आविष्कार, सूझ और निष्पादन के क्षेत्र में- चाहे वह धातु विद्या हो, काष्ठकला हो, नौवहन हूं, यातायात हो, वन्य पशुओं को ने पालने प्रशिक्षित करने और उनसे आम लेने का सवाल हो, रेशम, ऊन, सूत के उत्पादन और बुनाई का प्रश्नों गृह निर्माण निर्माण और उसके पशुपालन हो, यहाँ तक कि मनोरंजन के लिए साँप, रीछ, बंदर, खरगोश, तोता, मैना, पकड. कर उन्हें काबू करके सिखाने और इच्छित व्यवहार कराने और अपने पर निर्भर कराने की सूझ, पहल और निपुणता केवल, शहद, चिकित्सा के लिए जड़ियों, बूटियों, खनिजों, रसायनों की खोज, सारे काम वे करते आए थे जिन्हें कृषि उत्पाद में अपना हिस्सा (रोजी-रोटी) पाने के लिए विविध रूपों में योग्यताएं पहचान करनी पैदा करनी पढ़ रही थी और प्रतिस्पर्धा में उन कौशलों को अधिक से अधिक उन्नत बनाने की प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही थी। वे सब कुछ करने को तैयार थे, केवल ऐसी करने को तैयार नहीं उनके लिए जघन्य कर्म था। और विडंबना यह कि यह कर्म भी उन्हीं को करना पड़ा।

[2] महिलाओं के अधिकाश व्रतों और आयोजनों में चित्रांकन, अल्पना, रंगोली अथवा अंतर्कथाएँ जो पहले के रेखांकनों से जुडी लगती हैं, आज तक देखने में आती हैं।
आप यदि ऐसे क्रांतिकारी हैं जिसकी न अपनी जमीन है न अपना दिमाग, तो भारतीय समाज अमानवीयता और अन्याय का मूर्त रूप मिलेगा, परंतु धैर्य से काम लें तो पता चलेगा यह केवल भारत की समस्या नहीं, पूरे विश्व की समस्या है। संपदा पर केवल कुछ लोगों का अधिकार, संपदा से वंचित शेष समाज को अमानवीय यातना में रख कर उसका उसी तरह अपने हित में उपयोग जैसे मनुष्य पशुओं का करता है, विश्व के सभी सभ्य कहे जाने वाले देशों में होता रहा। उनका तुलना में भारत में यह उतना क्रूर न था। हम इसके विस्तार से बच कर ही अपना ध्यान अपने विषय पर केंद्रित रख सकते हैं। इतने विस्तार में भी इसलिए जाना पड़ा कि यह मैंने पहले कभी सोचा ही न था कि लेखन के विकास में असुर परंपरा के उन उत्तराधिकारियों का योगदान है जिन्हें शूद्रों में परिगणित माना जा सकता है और जिन्हें अपने ही आविष्कार के लाभों से वंचित कर दिया गया।

Post – 2020-08-02

#शब्दवेध(93)

संक्रमण कालीन लिपि

हम लिपि पर विचार नहीं कर रहे। सभ्यता की विकास धारा पर विचार कर रहे हैं, लिपि एक निर्णायक चरण के बाद के विकास को समझने की कुंजी है।

भारत में बहुत प्राचीन काल से कई प्रकार की लेखन पद्धतियां चलती रही हैं और लेख सामग्री और लेखन के यंत्र भी कई तरह के रहे हैं। मैजिक स्लेट अभी हाल में देखने में आई है, लिखा और बुझा दिया। धूल/ रेत पर लेखन और फिर मिटा कर नया लेखन, इसका परदादा है।

कमल की पत्ती, ताड़ की पत्ती, वस्त्र, भित्ति, भोजपत्र की छाल से लेकर काठ की पटरी, पत्थर और धातु (ताँबा, चाँदी, सोना) पत्र, शिला, स्तंभ, और लिखने के लिए रंगीन मिट्टी, चूरा, नाखून, पथरी, उंगली, सरकंडा, पतली बेंत(किरिच), नरकुल, साही के काँटे के दोनों सिरे, धातु की नुकीली कील, छेनी, उकेरनी, तूली, कूची आदि। रंग के लिए चावल की पीठी, हल्दी, फूल और पत्ती का रस, गेरू रामरज, कालिख की स्याही आदि। भारतीय लेखन के इतिहास को समझने के लिए इस वैविध्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए और इसके साथ साहित्यिक उल्लेख और पुरातात्विक सामग्री का महत्व तो है ही जिनसे क्रम-व्यवस्था को समझने में आसानी होती है।

सेंधव लिपि की सभी पूर्वापेक्षाएं ऋग्वेद की साहित्यिक सामग्री में पूरी होती दिखाई देती है। पूषा से पणियों के पत्थर जैसे हृदय पर आरा से अपना अनुरोध टंकित करा कर उसे कोमल और अपने अनुकूल बनाने की याचना की गई है:
आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे । अथ ईं अस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.7
आरा की व्याख्या करते हुए सायणाचार्य ने इसे लोहे के पैने नोक वाला दंड – तीक्ष्णाग्र लौह दंड – कहा है। सेंधव मुद्राओं को उकेरने के लिए इससे उपयुक्त कोई यंत्र नहीं हो सकता।

इससे आगे की ऋचा में ही आरा के लिए एक अन्य विशेषण का प्रयोग किया गया है। यह है ब्रह्मचोदनी । ब्रह्म का अर्थ है मंत्र। इसमें आरा को मंत्रों को उद्भासित करने वाला कहा गया है। और इसके माध्यम से सभी के ह्रदय को विनम्र बनाने का आग्रह किया गया। पूषा के लिए जाज्वल्यमान (आघृणि) विशेषण का प्रयोग किया गया है: “यां पूषन् ब्रह्मचोदनीं आरां बिभर्षि आघृणे । तया समस्य हृदयं आरिख किकिरा कृणु ।। 6.53.8″

प्रसंग वश कह दें कि सायण ने ब्रह्म का अर्थ अन्न किया है जो इतना बेतुका है कि न तो संदर्भ से मेल खाता है न ब्रह्म के सामान्य प्रयोगों से। इसका अर्थ है मंत्र – विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम् ।। 3.53.12

विश्वामित्र का यह मंत्र भारत जन की रक्षा करता है। एक अन्य प्रसंग में यही बात दूसरे ढंग से दोहराते हुए मंत्र को वर्म की तरह सुरक्षा प्रदान करने वाला बताया है- ब्रह्म वर्म ममान्तरम्।

हम नहीं जानते कि लिखित मंत्र की भाषा के लिए ब्राह्मी शब्द का प्रयोग उस काल में भी होता था या नहीं। इस पर अधिक खींचतान करना ठीक न होगा यद्यपि ब्रह्मा की लिखावट के विषय में कठोर फलक पर टंकन करने और उनकी लिपि के सामान्य बुद्धि से परे होने का विश्वास इस बात की संभावना जगाता है कि यदि ब्रह्म और ब्रह्मा और ब्राह्मी की संगति पर ध्यान दें तो यह उस मिश्र संकेत चिन्ह वाली टंकित भाषा के लिए प्रयुक्त हो सकती थी या उस समय से ही इसका प्रयोग होता आ रहा था जिसमें सही अर्थ जानने के लिए किसी सुयोग्य व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता होती थी।

विश्वामित्र स्वयं कहते हैं कि उन्हें ससर्परी का ज्ञान जमदग्नि से प्राप्त हुआ था । यूं तो शिक्षा और अक्षर ज्ञान गुरु के अभाव में संभव नहीं है और इसका एकमात्र अर्थ यह नहीं किया जा सकता कि लिपि के गूढ़ संकेतों से जमदग्नि ने उनको परिचित कराया था, परंतु इन दो ऋचाओं का तेवर यही है:
ससर्परीरमतिं बाधमाना बृहन्मिमाय जमदग्निदत्ता ।
आ सूर्यस्य दुहिता ततान श्रवो देवेष्वमृतमजुर्यम् ।।
ससर्परीरभरत् तूयमेभ्योऽधि श्रवः पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु ।
सा पक्ष्या नव्यमायुर्दधाना यां मे पलस्तिजमदग्नयो ददुः ।। 3.53.15-16

यहां कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए:
1. ससर्परी का अर्थ सायण ने “शब्दरूपतया सर्पणशीला वाक्” किया है, अर्थात् ध्वनि और आकृति युक्त वाणी। लिखित भाषा। बोलचाल की भाषा के लिए किसी एक व्यक्ति की जरूरत नहीं पड़ती । इस न्याय से भी यह लिखित भाषा है।
2. परंतु एक दूसरी व्याख्या के अनुसार यह “सर्वत्र गद्यपद्यात्मकेन सर्पणशीला वाग्देवता” है । मैं सर्पणशीला का अर्थ टंकलिपि से अलग, ‘हस्तलिपि’ या नश्वर लेख्य सामग्री – वस्त्र, ताड़पत्र, भूर्जपत्र आदि – पर लिखे पाठ के आशय में, जब कि टंक लेख को ब्राह्मी के आशय में ग्रहण करना चाहता हूँ।
3. इस वाणी को अज्ञान को दूर करने वाली कहा गया है और इसकी आवाज अधिक दूर तक – जहाँ बोलने वाला नहीं होता है या चुप रहता है वहाँ भी जानकारों तक पहुँचती है, जो लिखित भाषा की विशेषता है।
4. जिस तरह उषा का प्रकाश अंधकार का विनाश कर देता है उसी तरह यह अनिश्चय को दूर कर देती है। दृश्य होने के कारण इसकी तुलना उषा से की गई है।
5. इसमें निबद्ध प्रशस्ति या विरुद अजर और अमर होता है। वचनीय बोलने के साथ ही शेष हो जाता है, स्मृति में रहा तो कुछ अंश भूल जाता है, पर लिखित वाणी सर्वत्र यथातथ्य बनी रहती है।
6. इसको पक्ष्या कहा गया है। हम जानते हैं कि अंग्रेजी के पेन का मूल अर्थ पंख है क्योंकि हस्त लेखन पंख के दंडमूल से आरंभ हुआ।

इस संदर्भ में यह भी याद रखा जाना चाहिए कि ऋग्वेद में वाणी को अक्षर से मापने की बात आई है। छन्द के वाक, पद (चरण) का उसी क्रम में उल्लेख है। यह लिखित वाणी में ही संभव है। गेय में इस तरह का विभाजन संभव न था-
यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभाद् वा त्रैष्टुभं निरतक्षत ।
यद्वा जगज्गत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः ।। 1.164.23
गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् ।
वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाऽक्षरेण मिमते सप्त वाणीः ।। 1.164.24

यदि इसके बाद भी किसी को संदेह बना रहता है कि वेदिक समाज लेखन से परिचित न था तो इसका इलाज तो अश्विनीकुमार ही तलाश सकते हैं।

प्रश्न यह नहीं है वैदिक समाज लेखन से परिचित था या नहीं, हमारे सामने प्रश्न यह है कि यदि विश्वामित्र को भाषा का ज्ञान जमदग्नि से प्राप्त हुआ था, तो उनका क्या योगदान था कि यह विश्वास बना रहा है कि ब्रह्मा की सृष्टि के समानांतर उन्होंने हर चीज की रचना की। इसका एक ही अर्थ निकलता है कि पहले की बहुमिश्र भाषा के शब्द संकेतों, चित्र संकेतों और भाव लेखों को हटाकर उन्होंने पहली बार एक नई मात्रिक या सिलेबिक लिपि माला का आरंभ किया जो अपनी सफलता के कारण बहुत शीघ्र ही लोकप्रिय हो गयी। यही लिपि हमें ज्ञात सैंधव लिपि और ब्राह्मी के बीच की संक्रमण कालीन लिपि प्रतीत होती है।

Post – 2020-08-02

चित्रलेखन
दुनिया आज दो तरह के देश में बटी हुई है एक सोचने वाले देश, दूसरे मानने वाले देश। कल तक सोचने वाले देश, लूटने वाले देश को करते थे, और मानने वाले देश लुटने के बाद भी उन्हें अपने उद्धारक की छवि देखा
करते थे। विश्वास ना हो तो नीरज चौधरी को पढ़ने पर हैं पास हो जाएगा। आदत पक्की हो जाने के कारण मानते हैं, जानने और बताने का काम उनका है। उनके तस्दीक किए बिना हम यह भी नहीं समझ सकते कि भारत में लेखन का इतिहास कितना पीछे जाता है; और यह गलती वे करेंगे नहीं। यदि आपको पता चल ही गया आप इसका दावा करने वाले को आत्मरत्ति ग्रस्त मान कर आए हुए पर अडिग रहेंगे। यदि ऐसा न होता
तो मुझे आज से 35 साल पहले लिखी कुछ इमारतों को दोहराना न पड़ता।
इस देश में औपनिवेशिक ज्ञान की इतनी महिमा है उस से विपरीत जाने वाली किसी मान्यता को या तो विरोध का सामना करना पड़ता है, या उपेक्षा का जो पहले से भी अधिक मर्मान्तक है।

मेरे बचपन तक नवविवाहित दंपति के कमरे की दीवार पर एक फलक पर चित्र रचना की जाती थी जिसे कोहबर कहते थे। कोह पुराना शब्द है जिसका एक तद्भव गुहा और उसका तद्भव गुफा तो दूसरा खोह। कोह का पूर्वरूप (कोख जिसका सं. कुक्षि किया गया), वैकल्पिक रूप कोत जो घोषप्रेमी समुदाय के प्रभाव से गोद बना। कोटर/कोतड़/कोतड़ा (पेड़ के तने में गिलहरी, कठफोड़वा द्वारा बनाया गया), खोता (लाल चींटे का) और खतौना/ घोंसला (घुसने/ छिपने का ठिकाना) आदि इसी के हीनार्थी रूप हैे। फारसी में कोह का प्रवेश ऐसा कि लगे यह मूलतः उसी का शब्द है। गुफाओ/ कन्दराओं के भित्तिचित्रों से चित्रलेखन की प्राचीनता की ओर ध्यान गया, पर यह भुला दिया गया कि वहाँ भी इसका लोप नहीं हो गया इनमें शौर्य, प्रेम आदि की कहानिउसमें इतिहासबोध न था। सचाई यह कि इसका इतिहासबोध इतना प्रबल था कि सांस्कृतिक प्रतीकों, विविध चरणों पर दर्ज कथाओं और भाषा-संपदा के योग से प्राचीनतम आहारसंग्रही चरण से सभ्यता के शिखर तक पहुँचने का क्रमबद्ध इतिहास लिखा जा सकता है।
इतिहासबोध को पहली बार अशोक के बाद के साहित्य में नष्ट किया गया जब कल्पित कथाओं, अतिरंजित विवरणों, लोक की श्रद्धा के पात्र ऐतिहासिक चरित्रों को पात्र बना कर भोंड़ी कहानियों की भीड़ खड़ी कर दी गई। इससे पहले हमारी जानकारी में ऐसा घालमेल देखने में नहीं आता। जातीय समृतिभ्रंश का ऐसा उदाहरण न अन्यत्र मिलेगा, न इससे पहले।

Post – 2020-08-01

,यदि आप अपना टीवी स्क्रीन तोड़ना नहीं चाहते तो टीवी खोलना बंद अवश्य कर सकते हैं,. यह आज की सबसे बड़ी सलाह है।

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यदि