चित्रलेखन
दुनिया आज दो तरह के देश में बटी हुई है एक सोचने वाले देश, दूसरे मानने वाले देश। कल तक सोचने वाले देश, लूटने वाले देश को करते थे, और मानने वाले देश लुटने के बाद भी उन्हें अपने उद्धारक की छवि देखा
करते थे। विश्वास ना हो तो नीरज चौधरी को पढ़ने पर हैं पास हो जाएगा। आदत पक्की हो जाने के कारण मानते हैं, जानने और बताने का काम उनका है। उनके तस्दीक किए बिना हम यह भी नहीं समझ सकते कि भारत में लेखन का इतिहास कितना पीछे जाता है; और यह गलती वे करेंगे नहीं। यदि आपको पता चल ही गया आप इसका दावा करने वाले को आत्मरत्ति ग्रस्त मान कर आए हुए पर अडिग रहेंगे। यदि ऐसा न होता
तो मुझे आज से 35 साल पहले लिखी कुछ इमारतों को दोहराना न पड़ता।
इस देश में औपनिवेशिक ज्ञान की इतनी महिमा है उस से विपरीत जाने वाली किसी मान्यता को या तो विरोध का सामना करना पड़ता है, या उपेक्षा का जो पहले से भी अधिक मर्मान्तक है।
मेरे बचपन तक नवविवाहित दंपति के कमरे की दीवार पर एक फलक पर चित्र रचना की जाती थी जिसे कोहबर कहते थे। कोह पुराना शब्द है जिसका एक तद्भव गुहा और उसका तद्भव गुफा तो दूसरा खोह। कोह का पूर्वरूप (कोख जिसका सं. कुक्षि किया गया), वैकल्पिक रूप कोत जो घोषप्रेमी समुदाय के प्रभाव से गोद बना। कोटर/कोतड़/कोतड़ा (पेड़ के तने में गिलहरी, कठफोड़वा द्वारा बनाया गया), खोता (लाल चींटे का) और खतौना/ घोंसला (घुसने/ छिपने का ठिकाना) आदि इसी के हीनार्थी रूप हैे। फारसी में कोह का प्रवेश ऐसा कि लगे यह मूलतः उसी का शब्द है। गुफाओ/ कन्दराओं के भित्तिचित्रों से चित्रलेखन की प्राचीनता की ओर ध्यान गया, पर यह भुला दिया गया कि वहाँ भी इसका लोप नहीं हो गया इनमें शौर्य, प्रेम आदि की कहानिउसमें इतिहासबोध न था। सचाई यह कि इसका इतिहासबोध इतना प्रबल था कि सांस्कृतिक प्रतीकों, विविध चरणों पर दर्ज कथाओं और भाषा-संपदा के योग से प्राचीनतम आहारसंग्रही चरण से सभ्यता के शिखर तक पहुँचने का क्रमबद्ध इतिहास लिखा जा सकता है।
इतिहासबोध को पहली बार अशोक के बाद के साहित्य में नष्ट किया गया जब कल्पित कथाओं, अतिरंजित विवरणों, लोक की श्रद्धा के पात्र ऐतिहासिक चरित्रों को पात्र बना कर भोंड़ी कहानियों की भीड़ खड़ी कर दी गई। इससे पहले हमारी जानकारी में ऐसा घालमेल देखने में नहीं आता। जातीय समृतिभ्रंश का ऐसा उदाहरण न अन्यत्र मिलेगा, न इससे पहले।