Post – 2020-06-29

#शब्दवेध(73)
भाषाविज्ञानी इन्द्रजाल

*प्रवाह-गति-स्थिरता, खाद्य-पेय-घ्राण, आनंद-विषाद, प्रकाश-रंगीनी-अंधकार, ज्ञान-अज्ञान, पांडित्य- मूढ़ता, पवित्रता-कलुष. सत्य-असत्य, पुण्य-पाप, सम्मान-अपमान, सुख-दुख, संपत्ति-विपन्नता, ऊपर-नीचे, सभी नीरव भावों, दशाओं, क्रियाओं, उनकी विशेषताओं और सर्गों-प्रत्ययो, अनुलग्नकों का नामकरण जल की वास्तविक और कल्पित ध्वनियों से हुआ है। इस बात को हम कई बार कई रूपों में दुहराते और इसके प्रमाण प्रस्तुत करते आए हैं। यदि इन सभी के लिए शब्द जल से निकले हैं तो शेष बचता क्या है? कुछ थोड़े शब्द जिनका पशु पक्षियों के नामकरण में एक सीमित भूमिका है।

बोलने वाले या किसी न किसी तरह की ध्वनि उत्पन्न करने वाले पशुओं- पक्षियों का नामकरण उनकी ध्वनि के आधार पर नहीं किया गया। उदाहरण के लिए गो, अज, गज, बाघ (व्याघ्र), मर्कट, रीछ आदि के नामकरण के पीछे भी उनके द्वारा उत्पन्न किसी ध्वनि का हाथ नहीं है अपितु उनका नामकरण भी जलपरक शब्दों से हुआ है। जीव जंतुओं द्वारा उत्पन्न ध्वनियों के अनुनादन पर बहुत कम शब्द पाए जाते हैं। इसलिए अनुनाद के आधार पर भाषा की उत्पत्ति और विकास को समझने वालों को निराशा का सामना करना पड़ा है और अपनी हताशा में वे असंख्य अंधी गलियों में अपना सर टकराने के बाद निराश होकर इस नतीजे पर पहुंचे भाषा की उत्पत्ति के सवाल पर विचार करना भाषा विज्ञान की समस्या नहीं है।

सचाई यह है कि भाषाविज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण समस्या उसी तरह भाषा की उत्पत्ति को समझना है जैसे किसी चिकित्सक के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि कोई व्याधि कब और कैसे पैदा हुई। इसे समझने के लिए रोग निदान विज्ञान की जरूरत पड़ी और उसकी रिपोर्टों के आधार पर ही चिकित्सक अपने निर्णय कर सकता है।

यदि भाषा विज्ञानी अपने इस दायित्व से भागता है और फिर भी अपनी शाखा को वह विज्ञान कहता है तो उसे न तो इस फरेब को विज्ञान कहा जा सकता है, न सत्य के अन्वेषण के लिए समर्पित शास्त्र। मैं निवेदन यह करना चाहता हूं कि तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के रूप में कुछ समय के लिए प्रतिष्ठा अर्जित करने वाले अध्ययन को इसकी सीमाओं को देखकर सस्युर ने ही भाषा विज्ञान की सभा से बाहर निकाल दिया था। इसे पहले भाषा शास्त्र के जिस नाम से पुकारा जाता था उसी नाम से दुबारा पुकारा जाने लगा, परंतु मैं इसके वर्तमान रूप में इसे भाषाशास्त्र की गरिमा से भी वंचित मानता हूं। इसके लिए सही नाम भाषाई इंद्रजाल है। पहले निश्चित रूप से यह भाषा शास्त्र की संज्ञा का अधिकारी था, परंतु पश्चिमी वर्चस्व की कामना, औपनिवेशिक हितों की रक्षा, और ग्रंथि के रूप में सक्रिय रंगभेद ने इसे उस गरिमा से भी नीचे उतार दिया। जालसाजी, दर जालसाजी. दर जालसाजी। हैरानी होती है यह सोच कर कि इतने घटिया काम के लिए इतनी महान विभूतियों ने इतनी निष्ठा से इतने लंबे समय तक काम कैसे किया जिनमें से कोई ऐसा नहीं जिसका शिष्य बनने में मुझे गर्व का अनुभव न होता।

अपनी ज्ञान सीमा में कितना हास्यास्पद लगता है, ऐसी विभूतियों का उपहास करना। परंतु उसी ज्ञान सीमा में कितने हास्यास्पद वे लगते हैं जो यह जानते और मानते हुए कि जिसे वे बुनियाद मानते हैं उसकी खोज वे दो सौ साल के अथक परिश्रम के बाद भी नहीं कर सके और चोटी को ही बुनियाद मानने को बाध्य होकर उसी के आधार पर इतनी तन्मयता से अपने विवेचन और विश्लेषण करते आ रहे हैं। बात यहीं समाप्त नहीं होती। इस प्रयत्न में वे लगातार इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे हैं कि इस भाषा की बुनियाद यूरोप से बाहर नहीं जानी चाहिए और इसलिए सचेत रूप में भारत की उपेक्षा करते रहे हैं भारतीय साक्ष्यों की उपेक्षा करते हैं, नकली साक्ष्य गढ़ते रहे हैं और उन साक्ष्यों वरीयता देते रहे हैं जिससे इस वर्चस्व को आंच न आने पाए। मेरे लिए आश्चर्य की बात यह रही है इतने पूर्वाग्रहों के बाद, इतनी तल्लीनता से, इतने सारे विद्वान, इतने लंबे समय तक काम कैसे करते रहे। यह आश्चर्य मुझे उनके विज्ञान को भाषा का इंद्रजाल मानने का एक और कारण प्रदान करता है।

इस विषय पर मेरा अब तक का लेखन तथ्य संकलन का रहा है। यह अध्ययन का सबसे रूखा, सबसे थकाने और उबाने वाला काम होता है, परंतु इसी से वह अविचल शिलाधार तैयार होता है जिस पर बुलंदियां खड़ी होती हैं और जिन्हें भूचाल भी डाँवाडोल नहीं कर पाते।

अगला आश्चर्य मुझे इस बात का रहा है कि चालीस-पचास और कई बार इससे भी अधिक मित्रों ने इस बेस्वाद पाठमाला को इस तल्लीनता से पढ़ा जिसकी मुझे कदापि आशा न थी। आंकड़े उन सभी पहलुओं से पेश किए जा सकते हैं जिनका हमने पहले वाक्य में उल्लेख किया है, परंतु इतनी लंबी यात्रा मेरे लिए संभव नहीं और दूसरों के लिए काम्य न होगी। और कल हम यह दावा पूरे विश्वास के साथ कर सकते हैं कि हमारी भाषा का वह संस्कृत हो या बोलियां, कोई ऐसा अक्षर-युग्म न होगा जिसका अर्थ जल न होता हो। अर, इर, उर, एर, ओर, और, अल, इल, उल, एल, ओल, औल, कर, खर, गर, घर, चर, छर, जर, झर,टर, ठर, डर, ढर, तर, थर, दर, धर, नर, पर, फर, बर, भर, सर, हर, कल, खल, गल, घल, चल, छल, जल, झल, टल, ठल, डल, ढल, तल, थल, दल, धल, नल, पल, फल, बल, भल, मल, सल, हल सभी का एक अर्थ जल है। इस खेल को आगे बढ़ाते हुए इन वर्गीय ध्वनियों के आद्य अक्षर को इकारयुक्त, उकारयुक्त बना लिया जाए तो परिणाम वही रहेगा। इनके अन्त्य रकार या लकार के स्थान पर इन्हें स/ष/शकारान्त बना दिया जाय, अक्षरों का क्रम उलट दिया जाय(पल>लप, पर>रप), मध्य स्वर का लोप कर दिया जाय (प्ल/प्र) तो भी अन्य अर्थों के साथ जल का एक आशय बना रहेगा। दूसरे अक्षरों के साथ युग्म बनाने पर भी निराशा नहीं होती।

इसका अर्थ बताने पर, वह अर्थ समझ में आने के बाद भी आप के गले उतर न पाएगा, क्योंकि दासता के लंबे अनुभव और अधिक चालाक लोगों द्वारा दासमूल्यों को आत्मसात् करते हुए अवसर तलाश करते हुए अविरोध समर्पण ने इस विश्वास को कि हमारे किए कोई युगान्तरकारी काम हो ही नहीं सकता सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय बना दिया है, जिसमें इसकी अवज्ञा करने वालों का उपहास बौद्धिक दायित्व बन जाता है।

मैं जिस तथ्य को रेखांकित करना चाहता हूँ वह यह कि जल में उत्पन्न जैव द्रव्य (प्रोटोप्लाज्मा) से समस्त जीव जगत की उत्पत्ति हुई है, डार्विन के इस सिद्धान्त की समकक्षता नहीं तो उससे निकटता रखने वाली है यह खोज कि समग्र भाषा की उत्पत्ति अपने परिवेशीय नैसर्गिक नाद के अनहद संगीत से हुआ था और भारोपीय भाषाओं की उत्पत्ति और विकास जलबहुल परिवेश में हआ था इसलिए इसमें जल से उत्पन्न नाद की भूमिका सर्वोपरि थी। साक्ष्य इतने आ चुके कि आप इस सिद्धान्त से असमत नहीं हो सकते, पर क्या यह मान सकते हैं कि आपके सामने डार्विन के बाद का दूसरा इतिहास पुरुष उपस्थित है? नहीं न! मैं आप सबकी ओर से शीशे के सामने खड़ा हो कर स्वयं तालियाँ बजाने को बाध्य हूँ।