आज की पोस्ट अधूरी रह गई, इसलिए पिछले नब्बे के दशक की कुछ इबारतें जिन्हें रोक न पाता था, पर कवितानुमा कुछ बनाने में रुचि न थी। इतिहास से बेदखल लोग अपने बचाव में कहते, वह तो साहित्यकार हैं। साहित्य उपन्यासों तक सीमित था। कवि बनने की कोशिश बदनामी को चार दाग लगाने जैसा था। फिर भी एक अलग फाइल मे टाँक कर छोड़ देता था। यह समझने मे देर लगी कि जिसके दबाव से बच नहीं सकता वही तो मेरी मूल प्रकृति थी। अनगढ़ खुरदरा पाठ:
#यदि_न_हुई_कविता
यदि न हुई कविता
मैं तो हूँ
आग और पसीने के साथ
अपने शब्दों में
शिखा सा लुप-दुप
बदहवास मौसम में।
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कुछ भी न करते हुए
जरूरी काम है
कुछ न करना
किसी की प्रतीक्षा तक नहीं
और व्यस्त रहना
सिर्फ होकर ही
अपने को शव की तरह ढोने की चिंता तक से मुक्त
कुछ भी न होने से अलग
विराट के एक पुर्जे सा।
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जरूरी कामच
जरूरी काम है
केवल अपने बारे में इस तरह सोचना
कि सोच को कोई कोना तक न दिखे
सिवाय अपने अक्स के
जिसमें गुम हो जाएँ आप
और फिर भी कौंधते रहें
विचार पुंज की तरह।
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एक साथ
बहुत कुछ होता है
एक साथ
इस दुनिया में
बहुत से लोग हँसते हैं
एक साथ
एक दूसरे पर।
बहुत से लोग सोचते हैं
कितना बुरा है समय
ऐसा तो कभी न था।
बहुत से लोग भरते हैं आहें
किसी न किसी के लिए
किसी न किसी बात पर।
बहुत से लोग सोचते हैं
काश, एक दूसरे को काटते
बाँटते बिखरे हुए लोग
धरती को धरती
इंसान को इंसान
हवा और धूप को
हवा और धूप
पानी को निर्मल बनाने के संकल्प से जुड़ते
दुनिया वही नहीं रहती जो वह है।
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यदि सुबह हुई
सुबह होगी तो वह जगेगा।
यदि सुबह हुई तो वह जगेगा।
सोता रहेगा
सुबह होने तक।
यदि सुबह न होने पाई
तो सोता रहेगा
रात की पूरी लंबाई में पाँव ताने
सूरज को पावों से ढकेलता।
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1 नवंबर 1984
हवा सुर्ख है
रक्तकणों को सोख रहे हैं
ओषजन के कण
जमीन पर जगह जगह खून के धब्बे।
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कविता में अकाल
अकाल से अधिक भयानक लगता है
कविता में अकाल
पर इतना यातना-विहीन
कि आहों के बीच
कर उठें आप वाह! वाह!
मरहवा! मुकर्रर इर्शाद!
कुछ यूँ कि पड़ता रहे अकाल
कविता के अकाल से बचाने के लिए।
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वसन्त
जैसे कठफोड़वा बनाता है कोटर
चोंच के ठक् ठक् से
किसान बनाता है अमोले का थाला
जैसे लोहार तपाता लोहे को पीटने से पहले
जैसे बढ़ई मिलाता है चूल
जैसे कवि गलाता है सपने
दुनिया बदलने के लिए
ताप और श्रम और धैर्य के ऊर्ध्वकोण पर
कोई है जिसके इशारे पर
सर्दी की मार से दुबक कर
अपने भीतर चला जाता है पेड़
अपने को तलाशता अपने गाढ़े रस में
और सहसा फूट पड़ता है आँखों में बन कर प्रहार
चतुरंग उदासी पर
वसंत भी कविता है
कविर्मनीषी की।
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दिल्ली
इतने सारे जंगल हैं
दिल्ली के भीतर
हर जंगल के साथ
एक दिल्ली
अपनी भव्यता में ध्वस्त
निशाचर दिन में भटकते हैं दिल्ली में
इतने हैं अदृश्य अंधकार
दिल्ली की रोशनी में
सड़क फुटपाथ पर भी मिल जाएगा जंगल
लोग कितने भाग्यवान हैं
जंगल के लिए जंगल नहीं जाना पड़ता
जंगल ही आ जाता है
अपने जंतुओं के साथ।
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फुटपाथ पर सोने वाले
मैं अँधेरे की हँसी हूँ, मै उजाले की लकीर
अँधेरे के आसमानों में मेरा परवाज है
मेरे होने से हुआ करती हैं कुछ बर्वादियाँ
मेरे होने से ही दुनिया खुशनुमा कुछ आज है
मेरी सुगबुग से मचल जाते हैं तूफानों के पर
मेरे उठने से बदलते जुल्म के अंदाज हैं।
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