#शब्दवेध(43)
अंधेर तो यह है कि अंधेरे के लिए कोई शब्द ही नहीं
विश्वास नहीं होता? पहले मुझे भी नहीं हो सकता था। 50 साल पहले की बात है, कॉर्ल डार्लिंग बक (Carl D. Buck) द्वारा तैयार किया गया प्रमुख भारोपीय भाषाओं के कतिपय शब्दों के पर्यायवाची कोश (A Dictionary of Selected Synonyms in the Principal Indo-European Languages: A Contribution to the History of Ideas 1st Edition देख रहा था जिसमें प्रत्येक शब्द के सभी प्रमुख भाषाओं के पर्याय देकर उनको कुछ श्रेणी में बांटा गया है और फिर उनकी व्याख्या की गई है। उसमें मकान के लिए जो पर्याय थे सभी का अर्थ था प्रकाशित, जगमग। तब मुझे भी इससे हैरानी हुई थी, परंतु अचरज प्रकट करने के बाद, इसका समाधान उन्होंने इस रूप में निकाला है कि संभवत है आवास को आकाश के आवरण के रूप में कल्पित किया गया था और जगमगाते हुए आकाश से उनको मकान के लिए वे संकल्पनाएं सूझी हों। मैंने 1973 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में इसका उपयोग करते हुए, उन पर्यायों की अपने ढंग से व्याख्या की थी। लेकिन तब मेरे मस्तिष्क में भी यह बात नहीं आई थी कि आवरण के किसी रूप के लिए कोई ऐसा स्वतंत्र शब्द ही नहीं है, जिससे केवल अदृश्यता का बोध हो। यहाँ तक कि रात के लिए भी नहीं। इनके जो भी पर्याय हैं उन सभी का अर्थ या तो प्रकाश/चमक या जल है। रंगो के लिए जो शब्द हैं उनमें सभी का एक अर्थ जल होता है। ऐसा इसलिए है कि न तो अंधकार से कोई आवाज पैदा होती है न ही प्रकाश से। सच कहे तो अंधकार भी काले रंग से अभिन्नता रखता है यद्यपि सही मानी में वह प्रकाश का अभाव है।
हम कह आए हैं कि शब्दों का अर्थ अकेले में नहीं खुलता । अकेले में तो रूढ़ार्थ समझ में आता है, – रूढ़ का अर्थ है उपर से लादा हुआ, जिसके लिए बिल्ला अं. टैग/लेबल का प्रयोग होता है। स्वयं हमारा नाम भी एक बिल्ला ही है। वह किसी का हो सकता है। कुछ संस्थाओं में वस्तु या व्यक्ति के लिए एक संख्या नियत कर दी जाती है, व्यक्ति के रूप में हम एक संख्या में बदल जाते हैं पर हम संख्या नही हैं। सो, रूढार्थ शब्दार्थ नहीं। हमारे लिए एक ही शब्द है, मनुष्य। शब्दार्थ जातिवाची होता है, व्यक्तिवाची संज्ञाएं मात्र टैग हैं। किसी का कोई नाम रखा जा सकता है, पर उससे उसके बारे में इससे अधिक किसी बात का पता नहीं चलता जब कि शब्द नामित के रूप, गुण, (स्व-भाव) का परिचय देता है और उसे हम बिना किसी की सहायता के पहचान लेते हैं।
अब हम अंधकार के पर्यायों पर विचार कर सकते हैं।
कृष्ण
कृष्ण का प्रयोग काले के लिए होता है। इसके साथ आप को कृशानु – आग – की याद आनी चाहिए। इसके आदि मे आए ‘कृश्/कृष् का अर्थ है अंकन, रेखन। इसका प्रयोग बहुत पहले से साल के दिन आदि की गणना के लिए होता आया था और निशान के रूप में खिची रेखा और दिन दोनोे के लिए वार के प्रयोग का यह एक कारण हो सकता है। खेती आरंभ होने पर नम जमीन में लकीर खींच कर, चिड़ियों से बचाने के लिए बीज इसमें डाल कर मिट्टी से ढक दिया जाता था। खेती के लिए इसी से कृषि संज्ञा मिली। कृष भी पानी के लिए प्रयुक्त कर/किर निकला है, (कर- करमोना- भिगोना, करमुआ – पानी में उगने वाला एक साग) । प्रकाश रश्मि के लिए कर और किरण जल के इस कर/ किर मूल से ही निकला है। इसी तर्क से आग के लिए कृशानु का प्रयोग हुआ। कर, कर्ष – खींचना जल की गति की देन है जो कृषि के साथ अधिक लोकप्रिय हुआ लगता है। कृष्ण के तीन अर्थ हैं – जला हुआ, कट या जल कर क्षीण (कृश) हो चुका; कोयले के रंग का या काला और तीसरा आकृष्ट या मोहित जिसकी आदत के कारण वह कुछ बदनाम भी है और स्वयं मोहन और मनमोहन भी हैं।
हमें अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है, भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कला और साहित्य की आवश्यकता होती है, परंतु भाषा साहित्य और कला हमारे विचारों और भावनाओं को किस तरह नियंत्रित करते हैं इसकी ओर सामान्यतः हमारा ध्यान नहीं जाता। इसका एक उदाहरण राधा और कृष्ण का नाम और चरित्र है जिसकी कुछ चर्चा यहाँ संभव है।
राध शब्द का अर्थ है, ऋद्धि या संपन्नता लाने वाला (पैसा)। राध का प्रयोग ऋग्वेद में धन के लिए और हमारी समझ से ताँबे के उन पिंडों के लिए, और संभवतः उस रंग के लिए भी होता था, जिनके नमूने सिंधु-सरस्वती सभ्यता से मिले हैं। इसका प्रयोग इसीलिए बहुवचन में भी हुआ है – इन्द्रा वरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे, हे इन्द्र और वरुण हम तुम दोनों की विविध प्रकार की संपदा के लिए गुहार लगाते हैं, या ‘करतां नः सुराधसः’ ‘में राध का प्रयोग धन के सामान्य अर्थ में हुआ है। ‘स नो राधांसि आ भर’, वह हमें संपदाओं से भर दे, ‘ राधांसि याद्वानाम् – यदुओं की संपदाएँ में बहुवचन का प्रयोग देखने में आता है, पर इससे यह संकेत नहीं मिलता कि बहुवचन प्रयोग ताम्रपिंडों के लिए ही हुआ है। मेसोपोतामिया में इन पिंडों का नाम स्खलित हो कर संभवतः रूड हो गया था। मैलरी (1989) का मानना है कि अं. रूड- कठोर और रेड – लाल दोनों इसी से निकले हैं। भारत में इसके रंग से साम्य के आधार पर हल्दी का एक पर्याय राधा पड़ा जिसका राधा के गोरेपन से संबंध है ।
धन सदा किसी के पास नही रहता, मानवीकृत रूप में लक्ष्मी चंचला होती है, इन्द्र के लिए ‘राधानां पते’ का प्रयोग, यादवों की राधाएँ (राधांसि याद्वावाम्) और इन्द्र के अवतार कृष्ण के साथ राधाओं/ गोपियों की लीलाएँ। इन सभी को मिला कर एक चित्र तैयार करें तो चीरहरण तक समझ में आ जाएगा क्योंकि धातु कोई हो, लेन-देन के प्रत्येक चरण पर उनकी शुद्धता की जाँच की जाती थी।