#शब्दवेध(13)
शब्द का उच्चारण उस उपादान यह स्रोत से निर्धारित होता है जिससे वह नाद उत्पन्न होता है जिसका वाचिक अनुकरण किया गया है। परंतु अर्थ उस वस्तु के गुण धर्म के अनुसार तय होता है जिसके लिए इसका प्रयोग किया जाता है । इस पहलू पर बहुत सावधानी से नजर रखनी होती है। तनिक भी असावधानी होने पर हमसे चूक हो सकती है। इसीलिए मैं स्वयं सावधानी बरतने के बाद भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पाता कि जिस नतीजे पर पहुंचा हूँ उसमें किसी तरह की खोट नहीं है।
मैंने आइंस्टाइन से दो बातें आज से 50 साल पहले सीखी थीं, मेरे लिए उनसे सीखने को इससे अधिक कुछ नहीं, परंतु इन दो उपदेशों ने मुझे शक्ति भी दी और अपनी ऊर्जा का सही इस्तेमाल करने का शऊर भी पैदा किया।
पहला मैं उनके उद्धरण के रूप में शेयर कर चुका हूं। परंतु जिस रूप में पढ़ा था, वह कुछ अलग था। पहली बार जब वह अमेरिका पहुंचे और अपना पदभार संभाला तो केयर टेकर ने उनके कक्ष में आकर पूछा, “किसी चीज की कमी तो नहीं है।” जवाब में उन्होंने कहा, “रद्दी की टोकरी बहुत छोटी है। यह बहुत बड़ी होनी चाहिए, मैं गलतियां बहुत करता हूं।”
उसी का नतीजा है मैं भी अपनी गलतियों से लज्जित नहीं होता, न ही यह मानता हूं कि उनमें से कुछ को मुझसे कम जानकारी का, यहां तक कि बहुत कम जानकारी का आदमी सुधार नहीं सकता।
यहीं मैं आइंस्टाइन से बड़ा सिद्ध होता हूं। उनकी गलती को कोई दूसरा सुधार नहीं सकता था 99 बार गलती करने के बाद भी सौवीं बार सही नतीजे उन्हें ही पहुँचना था, जबकि मेरे मामले में मेरे श्रोताओं या पाठकों में अनेक मेरी गलतियां सुधार सकते हैं, जैसे न्यूटन के अलावा कोई भी यह बता सकता था कि जिस खिड़की से बड़ी बिल्ली आ सकती है उस से छोटी बिल्ली भी आ सकती है, छोटी के लिए अलग खिड़की बनाने की जरूरत नहीं।
इसलिए बीच-बीच में मैं इस बात का अनुरोध करता रहता हूं कि आप लोग प्रशंसा करने की जगह मेरी गलतियों पर उँगली उठाएं, आलस्य बस या कहीं गलत सुझाव न दे बैठे इस डर से आपसे आपका दायित्व नहीं निभ पाता जबकि मैं अपने दायित्व के निर्वाह के विषय में शिथिलता नहीं बरतता। आइंस्टाइन का यह पाठ आपके भी काम आ सकता है। गलतियों से गुजर कर ही हम सही तक पहुँचते हैं। जो गलतियां नहीं करते वे कुछ नहीं कर पाते, दूसरों के किए को दुहराते रहते हैं। बस अपनी ओर से असावधानी नहीं होनी चाहिए, न ही मिथ्या ज्ञान प्रदर्शन के लिए ऐसा किया जाना चाहिए।
दूसरी नसीहत उनसे यह मिली जो बातें किताबों में उपलब्ध है उनका बोध होना चाहिए, उनको दिमाग में बंद करके दिमाग को कूड़ा घर बनाने की जरूरत नहीं। अधिकांश लोग अपने दिमाग को सबसे शानदार कूड़ा घर बनाकर ही काफी संतुष्ट अनुभव करते हैं।
जानने की लाख कोशिश करके केवल इतना ही जाना कि जानने के साथ अज्ञान का बोध भी बढ़ता जाता है, इसलिए किसी चीज को केवल उस सीमा तक ही जान पाया जिसके बाद मुझे इस बात का सही अनुमान हो सके कि उसके विषय में सही जानकारी कहां से प्राप्त की जा सकती है। इसलिए यह स्वीकार करते संकोच नहीं होता मैं किसी विषय का बहुत अच्छा ध्यान नहीं रखता, क्योंकि वह ज्ञान जी सो दिमाग में भरा जा सकता था उसे अपनी सही जगह पर रहने देना और जरूरत के समय वहां से निकाल लेना दिमाग को हल्का रखता है सोचने के लिए खुला भी।
ये दोनों बातें मैं नम्रता वश स्वीकार नहीं करता बल्कि यह मेरे जीवन सत्य हैं और इसके कारण मुझे बोलते समय परेशानी हो सकती है परंतु लिखते समय अपनी बात सही-सही पेश करने की स्थिति में रहता हूँ।
दो
इस भूमिका के बाद अब हम अपने विषय पर आएं। दो दिन पहले मुख से उत्पन्न होने वाली एक विशेष ध्वनि जो वायु के तेजी से बाहर निकलने की क्रिया से उत्पन्न होती है उसे मैंने पक, फक, बक, भक आदि रूपों में प्रस्तुत किया था और यह भी याद दिलाया था यही ध्वनि किसी चीज के फूटने ने किसी अन्य क्रिया के द्वारा भी उत्पन्न हो सकती है और ध्वनि में एक होते हुए भी स्रोत की भिन्नता के कारण स्वतंत्र शब्द है।
स्रोत की ओर से ध्यान हट जाने से बक – स्फोट या प्रकृत ध्वनि, बकना- कुछ भी कह देना; बक- वह पक्षी जो यह ध्वनि करता रहता हो; बकवास = व्यर्थ कथन (यह 2 शब्दों (बक+ वास=वाणी) के योग से बना योगिक शब्द है; बूकना (बढ़- बढ़ कर बातें करना); भो. बेकारि – आवाज फूटना > वाक्य ; बं. बोका = मूर्ख, जो अपना बात कायदे से रख न सके; भो. ब(उ)क; भकुआ- अवाक्> भकुआना; भकभेल्लर = नितान्त मूर्ख, भाखल = कहना> सं. *बक्षति;>वक्षति, भक्खल= खाना > सं. भक्ष, भक्षण; भूख > सं. *भुक्षा > भुक्षाभुक्षा> बुभुक्षा; भीख > भिखारी – भिक्खु; सं. भिक्षा/भिक्षुक/ भिक्षु आदि जिनको हम पहले गिना आए है।
यहां हमारे सामने दो समस्याएं हैं। पहला कि जिन शब्दों के संस्कृत रूप मिलते हैं, जिनको हम तत्सम कहने के इसलिए अभ्यस्त हैं, क्योंकि संस्कृत आचार्यों की धारणा यह थी कि प्राकृत भाषा संस्कृत से निकली हैं न कि एक विशेष बोली का संस्कृतीकरण हैं, जिनकी नकल पर सचमुच संस्कृत में सोचने वाले ध्वनि परिवर्तन से उन्हें प्राकृतिक बनाते रहे। इसका यह नतीजा निकाला गया यदि बोली के शब्द संस्कृत के प्रति रूपों से निकटता रखते हैं तो वे उनके तद्भव रूप हैं, अर्थात मूल संस्कृत है और बोली का रूप उनका बिगड़ा हुआ रूप। यही इस मान्यता का आधार बना कि प्राकृत, अपभ्रंश आधुनिक उत्तर भारतीय बोलियां संस्कृति में संस्कृत में क्रमशः आए विकार का परिणाम है।
यह खेल कुछ टेढ़ा है । इसके दो चरण हैं। पहला जिसमें बोलियों के निसर्गजात शब्द या नित्य कही जाने वाली ध्वनि (स्फोट) के अनुकरण से बने हुए शब्द, बोलियों की अपनी पूँजी हैं, जिनका क्रमिक संस्कृतीकरण या रूपान्तर कई भाषाओं के प्रभाव से गुजरने के कारण होता है। इन परिवर्तनों में पंडितों की भूमिका नहीं है। यह है पूर्वी बोली का सारस्वत क्षेत्र में पहुंचने तक ध्वनिमाला में हुए परिवर्तन का चरण। उदाहरण के लिए यह सभी मानते हैं मूल भारोपीय में और क-वर्ग था च- वर्ग नहीं था। अंतर केवल इतना ही है कि वे मानते रहे हैं यह अंतर उच्चारण स्थान में बदलाव के कारण आया। हम पाते हैं कि यह ध्वनि मगों की बोली की है जिनकी ध्वनि माला में कवर्गीय ध्वनियाँ नहीं थीं इसलिए वे देवों भाषा की ध्वनियों का उच्चारण अपने ढंग से करते थे। वे दंत्य स का उच्चारण भी च रूप में करते थे। आज की परिस्थिति में यह आश्चर्य की बात लगेगी कि देव भाषा ने दूसरी चवर्गीय ध्वनियाँ अपनाई परंतु तालव्य श को नहीं अपना सकी, और मगों ने क्रमशः दूसरी ध्वनियाँ अपनाईं परंतु दंत्य स का उच्चारण करने में चूक करते रहे।
इस बात के पक्के प्रमाण हैं सारस्वत भाषा में घोष महाप्राण ध्वनि या नहीं थी। हम क्रमशः एक ऐसी स्थिति में पहुंचते हैं जिस का सही अनुमान तमिल को ध्यान में रखकर किया जा सकता है। यह संभव है कि कुछ बोलियों में घोष ध्वनियों का भी अभाव था और कुछ में अघोष अल्पप्राण अर्थात वर्ग की पहली ध्वनियों का अभाव था। इसमें हम जितना भी भीतर प्रवेश करें उलझते जाने की संभावना बढ़ती जाएगी।
बोलियों की बहुत छोटी सी ध्वनिमाला से आदिम कृषि की अवस्था में काम चल जाता था। कृषि प्रौद्योगिकी विकास सामाजिक जटिलता के समानांतर हुआ है और इस बीच में कृषिकर्म अपनाने वालों की ध्वनि माला भी अधिक समृद्ध होती गई और आरंभिक आवश्यकता इनके योगदान से पूरी होती रही। इसके बाद औद्योगिक विकास का चरण आता है और जिस तरह यंत्रों और प्रसाधनों में जोड़-तोड़ करके नई चीजें बनाई जाने लगी भाषा के घटकों से नई आवश्यकताओं के अनुसार शब्द निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हुई और यहां से संस्कृतीकरण के उस चरण पर पहुंचते हैं जहां से बोलियां उनके लिए कच्चा माल प्रस्तुत करने वाले स्रोतों में बदल गई और नए ढंग के उपसर्ग अंतःसर्ग और प्रत्यय आदि जोड़कर कृत्रिम शब्दावली गढ़ी जाने लगी। यहां पहुंचकर नैसर्गिक ध्वनियों के घटक धातु के रूप में प्रयोग में आने लगे। यह प्रक्रिया वैदिक भाषा के निर्माण के समय तक पूरी हो चुकी थी यद्यपि इसमें ठहराव नहीं आया था।