Post – 2020-01-26

बात अपनी भी कहो, अहले वतन चाहते हैं (2)

घर में कोई रोटी पानी देने वाला और बच्चों की देख-रेख करने वाला होता तो, पिताजी ने विवाह भी न किया होता। वह अपने लिए नहीं, बच्चों के लिए ऐसा कर रहे थे। उन्होंने अपनी महिमा बताते हुए यही कहा था, जब कि उनकी उम्र 30 या 34 रही होगी, (कभी सुना था उनकी जन्म-तिथि 1904 थी, बाद में जब पत्रा-पंचांग स्वयं देखने लगे थे 1899 या 1901 बताते थे।) यह जानना कि जिस व्यक्ति से किसी बालिका का विवाह हो रहा है, वह विधुर तो है ही; उसकी संतानें भी हैं, किसी ऐसे समाज या स्थिति में जहाँ निर्णय उसके हाथ में न हो, कम दाहक नहीं होता, परंतु यह सूचना कि वह सन्यासी जी के घर में उनके सन्यास-पूर्व की संतानों की दाई बन कर जा रही है उस मर्मान्तक आघात से कम तो न होगी, जिसके लिए ‘कलेजा फटने’ का मुहावरा गढ़ा गया है।

दीदी या भाई साहब की शिकायत पर, बाबा माई को फटकार लगाने से पहले उनसे यह भी नहीं पूछते कि तुम्हारे साथ क्या अन्याय हुआ है ? पूछने की जरूरत ही नहीं थी। वे सारी कहानियाँ जो मैने सुनी थी, उन्हें वे भी जानते रहे होंगे। [ उनका कंठ-स्वर बहुत मधुर था, उनसे भी मधुर स्वर उनके ही समवयस्क दूधनाथ सिंह का था। दोनों बुढ़ापे में भी रामायण का तल्लीनता-भरे कंठ से युगल पाठ करते तो दरवाजे पर श्रोताओं की भीड़ लग जाती। रामायण दोनों को लगभग कंठस्थ था। मेरे जीवन को धन्य करने वाली स्मृतियों में एक दो बार वह युगलपाठ, एक बार रामकिंकर उपाध्याय का प्रवचन, नामवर जी का कोलकाता का भाषण, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिस्स में बीटी रणदिवे का भाषण और मैं पिया तेरी तू माने या न माने पर लता जी के स्वर के साथ पन्नालाल घोष का बाँसुरी वादन है। एक उम्र काटने के लिए इतनी दौलत काफी है।] सो मानस के रावण का मन्दोदरी पर व्यंग्य – नारि सुभाऊ सत्य कबि कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं। साहस, अनृत, चपलता, माया। भय, अबिबेक, असौच, अदाया। – कैसे न याद आ जाता होगा। फिर अपने जीवन में ऐसे जाने कितने किस्से सुने होंगे, जहाँ महिलाओं की, और खास करके विमाताओं की, नृशंसता के इतने और आँखों के सामने अहकते हुए आँसू बहाता कोई बच्चा, फिर संदेह की कोई गुंजाइश रह जाती है जो जिरह करें। उनकी फटकार सुनते हुए वह यह भी नहीं कह सकती थी कि उसने क्या किया, क्यों किया या किया भी था या नहीं, उसकी गलती थी भी या नहीं । बोल कर भी नहीं, और रो कर भी नहीं।

जवाब देना, यहाँ तक कि यह तक कहना कि वह बेकसूर है, मुँहजोरी थी। स्त्री का रोना तो तन कर जवाब देने से भी बड़ा अपराध था। इसे तिरियाचरित्तर कहा जाता था। अर्थ सर्वविदित था, स्रोत अल्पविदित था। पर – ‘त्रियाचरित्रं पुरुषस्य भाग्यं दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः’ का पहला शब्द बोलने से ही पूरे का अर्थसंचार हो जाता था।

औरतें बीमार नहीं पड़ती थीं, नकल पसारती थीं। जब तक यह तय हो कि नकल नहीं पसारा था, सचमुच बीमार थी, समस्या इतनी उग्र हो चुकी रहती कि बच गई तो और न रही तो भाग्य का खेल कहा जाता था। उन दिनों पुरुष कम गलतियां करता था, अधिकांश गलतियां नहीं हुआ करती थी, भाग्य का लेख हुआ करती थीं। और बड़ा बुजुर्ग तो सुप्रीमकोर्ट होता ही था। माई को उससे कठोर आचार संहिता का निर्वाह करना पड़ता था जिसका मुझे करना पड़ता था। जब बोलना ही वर्जित हो, तो बोल क्या पाओगे? इसलिए जब से महिलाओं ने बोलने की छूट पाई, उन्हें किसी ने चुप देखा ही नहीं, वे बोलने के लिए तो बोलती ही हैं, चुप रहने के लिए भी बोलती हैं, अपने समय का अपने हिस्से का तो बोलती ही हैं, पिछली अनगिनत पीढ़ियों का बकाया पूरा करने के लिए भी बोलती हैं।

यह तय करने में मुझे समय लगा कि बड़ों के सामने किसी अन्याय के विरुद्ध बोलना चाहिए या नहीं, और यह तय पाया कि अन्याय अपने प्रति हो तो चुप रहना होगा पर किसी अन्य के प्रति अत्याचार का विरोध तो करना ही होगा। बहुत बाद में जब लोको शेड में काम करना हुआ और स्टीम रिलीज कॉक की भूमिका समझ में आई तो लगा कि दूसरों के प्रति अन्याय का विरोध स्वयं मेरे प्रति होते आए अन्याय से संचित आंतरिक दबाव को कम करने का भी एक रास्ता था।मेरा हस्तक्षेप एक झटके के साथ हुआ जिसकी दूसरों को आशा न थी। अब किसी अन्याय पर चुप रह जाना मुझे अपना अपमान लगता है, परंतु स्वयं मेरे प्रति अन्याय हो तो लगता है इससे मेरा कुछ नहीं बिगड़ता ।

गांव का एक सुशिक्षित परिवार था। उसके मकान को डिप्टी साहब की कोठी कहा जाता था। सदस्यों में सभी एक गांव की नजर से सुशिक्षित और ऊंचे पदों पर विराजमान थे। एक सज्जन जो पद से रीजनल इंस्पेक्टर के पद पर पहुंचे थे, उनके परिवार का वहां एक दूसरे सजातीय एडीएम के परिवार से आत्मीय संबंध हुआ, जो स्वाभाविक था. और उनके लड़के का परिचय उस परिवार की अपनी समवयस्क की लड़की से हुआ। यह परिचय आकर्षण की परिणति तक पहुँच गया था।

जब इस महान अपराध का पता चला तो लड़की के पिता ने उपचार का प्रस्ताव रखा। लड़की ने इंकार कर दिया दिया। लड़के से कहा गया क्या गर्भवती लड़की से शादी करेगा। उसने कहा, उसी से और किसी से नहीं। दोनों परिवारों ने अपमान का घूँट पीते हुए, समय सीमा में विवाह कर दिया। संतान पेट में लिए बहू ने ससुर गृह में प्रवेश किया। गांव बड़ा था। उनका घर हमारे घर से लगभग 1 किलोमीटर दूर था। परंतु गांव तो अपना ही था। लोग किसी के भी गलत काम से डरते थे । वे उसी पूरे गांव की इज्जत के लिए डरते थे, इसलिए समस्या भले किसी एक परिवार की हो, चिंतित पूरा का पूरा गांव होता था। उस बहू का अपने घर में जिस तरह अपमान किया जाता था उसकी कहानियां हमें मालूम थीं। किशोर वय की कोई एक परिभाषा तो नहीं हो सकती, परंतु ऐसे किशोरों की संख्या बहुत अधिक होती है जो अपने विवेक से काम करने की जिद ठान लेते हैं।

मेरे घर में एक नई नई सी बैठक बनी थी उसमें एक बैठक जो खुले जंगलों और 4 दरवाजों और ऊँचे पलंग के साथ इसलिए बंद रहता था कि उसके बगल में एक खुली दालान थी जो उससे भी बड़ी थी, जिसमें एक के साथ एक 8-10 चारपाइयाँ बिछ सकती थीं और 4- 5 सदा बिछी रहती थी। गर्मी के दिनों में समय काटने के लिए दोपहर के बाद लोग एकत्र होते बैठकर ताश खेलते और समसामयिक ग्रामीण घटनाओं पर चर्चा करते।

उस दिन इसी को लेकर एक से एक भर्त्सना वाक्य उछाले जा रहे थे। मैं सटी तिनदुआरी में दरवाजे बंद किए लेटा हुआ। उम्र तेरह चौदह की हो चली पर इतने नाज़ुक सवाल पर बड़ों के बीच एक बच्चे का मर्यादा के सवाल पर बोलना। मैंने पल्ले हटाए, बाहर निकला और, “यदि एक गलती के बाद उसने एक पाप किया होता तो आप लोगों की नजर में वह ठीक था। लड़की और लड़के दोनों ने तय किया कि गलती हुई सो हुई, इसकी जिम्मेदारी लेंगे, पर आगे कोई पाप नहीं होने देंगे तो बुरे हो गए? इस पर तो उनकी तारीफ करनी चाहिए।” सोचिए मैं अपने पिता जी और उनकी उम्र के लोगों को झिड़क रहा था। उल्टी गंगा। दो ने झिड़कना शुरू किया तो पिता जी मेरे साथ हो गए, “ठीक तो कहता है।” सब की जबान बंद।

इसके बाद कितनी बार कितने खतरे उठाए हैं और कितनी तरह के और कभी कभी तो देखने में निरे किताबी कि जो उनके गवाह रहे हैं उनमें से कुछ को लगता होगा, लगा भी, कि यह आदमी सिरफिरा तो नहीं। स्वभाव से खड़जंगी तो नहीं।

परन्तु मैं सोच कर कुछ करता ही नहीं। (दिमाग हो तब तो सोचूँ, या किताबों का ज्ञान हो, विद्वज्जनों के साथ वैचारिक विमर्श हो तो, पर इसके लिए अकादमिक परिवेश, अध्ययन और ज्ञान के लिए आदर और पुस्तकालय की समीपता ही नहीं, घर पर मनचाही पुस्तक लाने की और यथेच्छ अपने पास रखने की सुविधा भी होनी चाहिए थी, {नामवर जी के बारे में, उनके शिष्य मार्क्सवादी छात्रों का आरोप यह था कि वह अच्छी किताबों को आते ही अपने नाम से जारी करा लेते थे और पूरे साल अपने पास रखते थे कि कोई दूसरा उनकी जानकारी न पा सके [इन पट्ठों को जो सीपीएम से जुड़ाव रखते, इसलिए वही ऐसे पट्ठों को पैदा कर सकती है, परन्तु मेरा खयाल है, जो गलत भी हो सकता है, यह रोमिला थापर आयोजित और उनकी काम-दिलाऊ-संपर्क-साधना-जनित गुरुत्वशक्ति से आकर्षित मार्क्सवादी छात्रों का दल था जिसे रोमिलाथापर ने जेएनयू की प्रतिभा प्रतिस्पर्धा में नामवर सिंह की प्रतिभा और बढ़ते प्रभामंडल से आतंकित हो कर अपनी कुटिलता से तैयार किया था।] उनका कथन कि नामवर जी कुछ किताबें आते ही अपने नाम जारी करा लेते थे और पूरे साल अपने पास रख लेते थे, सही होना चाहिए। मैंने यह जताने के लिए कि एक अध्यापक को पुस्तकालय की पुस्तकें अपने समय और सुविधा के अनुसार कितने लंबे समय तक रखने की छूट थी जो दौड़ धूप के बाद भी मुझे न थी। जिस अधूरी बात का वे प्रचार करते थे उसका पूरा सच यह कि वे किताबें नामवर जी के अनुरोध से ही मँगाई गई होती थीं।

नामवर जी में अपने को कुछ समझने वालों से पंगा लेते हुए उनको सतह पर लाने की प्रबल लालसा थी। इसी से प्रेरित वह चतुरता से रोमिला जी से इनकी चर्चा करते थे और वह इनके सम्मुख अपने को हेय अनुभव करती हुई जब लाइब्रेरी से वही किताबें अपने नाम लेने पहुँचतीं तो पता चलता कि अभी वे किताबें नामवर जी ने लौटाईं ही नहीं और इसका भी दुष्प्रचार वह अपने गिर्द मँडराने वाले नामवर जी के छात्रों से करके उनके प्रति दुर्भावना पैदा करते हुए वह उन्हें सीपीआई के लोगों को घटिया सिद्ध करते हुए इन्हें सीपीएम की दिशा में मोड़ती थीं, जब कि स्वयं न तो कम्युनिस्ट थीं, न ही इसका दावा करती थीं।

मैं ऐसे छात्रों से नामवर जी के पक्ष में बोलता, वे इसीलिए इसे छेंड़ते भी थे। मेरा प्रतिवाद गुण-दोष-परक होता था, पर अपने ही छात्रों से नामवर जी की मलामत से भीतरी तुष्टि होती थी क्योंकि नामवर जी ने उन्हीं हथकंडों का प्रयोग रामविलास जी के विरुद्ध किया था और इसकी हानि मुझे भी हुई थी। }

मैं न केवल इन सुविधाओं से वंचित था अपितु जिस परिवेश में काम करता था उसमें इसे दोष माना जाता था और चरित्रपंजी में यह दर्ज किया जा सकता था कि यह तो किताबें पढ़ते रहते हैं, काम में मन ही नहीं लगता। पर नाराज ऊपरी अधिकारियों को भी उसका साहस न हुआ, क्योंकि मेरी मेज पर कोई फाइल रुकती ही न थी, आरोप लिखित रूप में लगाने वाला मारा जाता।)

मेैं यह बताना चाहता था कि जब ज्ञान भी नहीं, साधन भी नहीं, मेधा भी नहीं – मैं नम्रता वश नहीं, दूसरे विचारकों की सापेक्षता में अपनी अवरता की बात कर रहा हूँ – मेरी वह कौन सी पूँजी है, जिस पर मुझे इतना विश्वास है कि मैं दूसरे सभी बुद्धिजीवियों को तुच्छ मानता हूँ और वे सभी एक साथ खड़े हो जाए, अपने समूचे ज्ञानतंत्र, दुष्प्रचारतंत्र और प्रहारशक्ति के साथ तो भी मुझे विचलित नहीं कर सकते, तो वह मेरे बचपन की वही यातना है जिसे कभी न भूला और उसका विस्तार – परदुख कातरता। मैं सोचता नहीं, जानता नहीं, अब भोगता नहीं, न चाहता हूँ कि दुबारा किसी को भोगना पड़े, इसलिए मरजीवड़ा के से दुस्साहस से, सताए और यातना भोग रहे, संकटग्रस्त और अन्याय के शिकार लोगों के साथ खड़ा हो जाता हूँ। मेरे शैशव और बचपन की पीडा और उसकी यादें मेरी एकमात्र पूँजी है और वही मुझे द्रष्टा बनाती है, बुद्ध की तरह, किसी तपस्वी की तरह।