Post – 2019-10-23

आर्य वचन या आर्य मौन

मैं अपने ज्ञान से संतुष्ट नहीं हूँ। अक्सर मुझे इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध सूचनाओं का भी उपयोग करना होता है जिनमें से कुछ की विश्वसनीयता सीमित होती है। ऐसा व्यक्ति अपना पांडित्य प्रकट करने के लिए नहीं लिखा करता। जो है ही नहीं उसे प्रकट क्या करना।

जिस चीज ने मुझे कुछ लिखने और लिखते रहने का अधिकार दिया है वह एक मोटी समझ है जो समझ से अधिक एक पीड़ा है। अपने पाठकों से मैं इसे ही साझा करना चाहता हूं, पर कर नहीं पाता। कर पाता तो इसका निवारण स्वतः हो जाता।

इस विफलता से लगता है लिखना विलासिता का एक रूप जिसकी आदत पड़ जाती है तो छूटती नहीं। यह सब तब लगता है जब मैं अपने लेखों को नियमित रूप से पढ़ने वालों पर इनका कोई असर होते नहीं देखता ।

मैं शिक्षक और मनोचिकित्सक के रूप में लिखता हूं। यदि कोई शिक्षक कुछ समझाएं और जांचने पर उसे पता चले कि उसके श्रोताओं की समझ में वह बात नहीं आई है, वे जैसे थे वैसे ही रह गए हैं तो लिखने की अपनी योग्यता पर और शैली पर विश्वास कम हो जाता है।

कुछ मोटी बातें जिनका मैं स्वयं भुक्तभोगी भी हूं, उनसे बचने का अनुरोध मैं लगातार करता आया हूं। उनका नुकसान भी बताता आया हूं। मैं किसी से नफरत नहीं कर सकता। नफरत कमजोर दिमाग के लोगों का हथियार है जिनके पास किसी का विरोध करने की क्षमता नहीं होती। इसकी तुलना मैं उन जानवरों से करता हूं जो अपने बचाव के लिए इतनी तीखी दुर्गंध छोड़ते हैं की उन पर प्रहार करने वाला उसे सहन न कर पाता है और दूर हट जाता है। यह मात्र एक उपमा हुई। असलियत यह है नफरत, लोभ, क्रोध, काम जैसे उग्र आवेगों में मनुष्य का दिमाग काम नहीं करता। काम के साथ तो आतुर, क्रोध के साथ उन्मत्त विशेषण प्रत्यय के रूप में लगा कर कामातुर, क्रोधोन्मत्त, जैसे शब्द भी बनाए गए हैं जिनका मतलब है कि इनकी प्रबलता होने पर हम पागलों जैसा व्यवहार करते हैं। यही बात दूसरे प्रबल आवेगों के बारे में भी सच है।

पागल कोई नहीं होना चाहेगा। न यह चाहेगा कि लोग उसे पागल समझें। इसके बाद भी अधिकांश लोग अपने कथन और व्यवहार में इसका ध्यान नहीं रख पाते, बल्कि इनकी तरफ इतनी तेजी से लपकते हैं जैसे अपने को रोक न पा रहे हैं।

जैसे कोई अध्यापक किसी विषय को समझाने के बाद छात्रों से बीच-बीच में सवाल करके यह जानने की कोशिश करता है कि उनकी समझ में उसने जो कुछ समझाया वह आया या नहीं आया उसी तरह अपने लेखन को पसंद करने वाले लोगों के पन्ने पर जाकर मैं उनसे कुछ समझना भी चाहता हूं और यह भी देखना चाहता हूं कि उनके भाषिक आचार में, बौद्धिक संतुलन में पहले की अपेक्षा कोई अंतर आया है या नहीं। यदि उन पर किसी तरह का असर नहीं होता तो फेसबुक पर लिखने की व्यर्थता अनुभव होती ही है। अधिकांश लोग लगता है शगल के लिए लिखते हैं, समय काटने के लिए। देने वाले ने उन्हें जितनी जरूरत थी उससे अधिक समय दे दिया जिसे काटना पड़ रहा है कालिदास की तरह यह भी पता नहीं उसी डाल को काट रहे हैं जिस पर बैठे हैं।

बुद्ध ने कहा था, आर्य वाक्य या आर्य मौन। यदि हम सम्मान विवेक और गरिमा के साथ कुछ कह नहीं सकते तो गरिमा के साथ चुप तो रह ही सकते हैं।