Post – 2019-04-23

#मुस्लिम_समाज में नेतृत्व का संकट
(समाहार)

दुनिया का कोई व्यक्ति अपने वस्तुगत यथार्थ की जटिलता के कारण उसका बहुत सही आकलन नहीं कर पाता। चिकित्सक की तरह वह सबसे उग्र व्याधि को ही एकमात्र व्याधि समझकर उसको निर्मूल करना चाहता है, जबकि उसी के साथ हमारे शरीर में उससे भी अधिक खतरनाक दूसरे रोग हो सकते हैं। जिस एक को निर्मूल करना चाहता है उसका भी पूरा उपचार प्रायः नहीं हो पाता। कई बार, अधिक प्रभावकारी दवा के दुष्परिणाम उस व्याधि से भी अधिक कष्टकर होते है। अदूरदर्शी झटपट नीरोग होना चाहते हैं, उग्र तरीके अपनाते हैं, पहली व्याधि को दबाते हुए, दूसरी अनेक व्याधियां पैदा कर लेते हैं। अधिक दूरदर्शी व्यक्ति आरोग्य पर ध्यान देता है, दवा के परहेज करता है। उपचार भी यथासंभव प्रकृति के अनुरूप करता है। पेशीयबल की अपेक्षा आत्मबल पर भरोसा करता है। उसकी दृष्टि किसी एक बिंदु पर केंद्रित नहीं होती, समग्र पर ध्यान देती है।

गांधी और दूसरे नेताओं में यह बुनियादी अंतर है। गांधी किसी तरह के बल प्रयोग पर, भले उसके परिणाम अच्छे हों, विश्वास नहीं करते। खिलाफत के बदले में जब मुसलमानों के एक समुदाय ने प्रस्ताव रखा कि वे गो वध नहीं करेंगे, तो उन्होंने इससे इंकार कर दिया। यदि आप हमारे सहयोग के बदले में ऐसा करना चाहते हैं तो न करें, स्वयं ऐसा अनुभव करें तो करें।

यह मामूली सी बात इतनी मुश्किल है कि हममें से अधिकांश की समझ में नहीं आती, पर यही गांधी को गांधी बनाती है। बाहरी बल प्रयोग से लाए जाने वाले परिवर्तन पर वह विश्वास नहीं करते। वह सफलता में विश्वास नहीं करते अपनी सर्वोत्तम बुद्धि के अनुसार सही रास्ते पर चलते रहना उनकी दृष्टि में सबसे बड़ी उपलब्धि है। हमारे पैमाने से अक्सर विफल होने के बाद भी अकेले गांधी हैं जो विफल होकर भी गलत नहीं होते और पूरी मानवता के लिए दीपस्तंभ बने रहते हैं।

क्रांति करने वाले तात्कालिक सफलता में विश्वास करते हैं। उसके लिए गर्हित तरीके अपनाने के लिए तैयार रहते हैं।

सामान्यतः लोग मुकदमा जीतने के लिए झूठ बोलने, झूठे गवाह खड़े करने के लिए तैयार रहते हैं। गांधी नहीं। वह अपने मुवक्किल को भारी नुकसान का खतरा उठाते हुए भी सच बोलने के लिए तैयार कर लेते हैं, और इसके बाद भी उसे जीत का आनंद अनुभव होता है वह इसके लिए कृतज्ञ अनुभव करता है।

पोप इनोसेंट प्रथम, मोहम्मद साहब, कार्ल मार्क्स क्रांति करते हैं क्रांति का दर्शन देते हैं और और मानवता का जितना कल्याण करते हैं या करना चाहते हैं उससे अधिक क्षति पहुंचाते हैं। वे सत्ता का चरित्र बदलते हैं समाज का चरित्र पहले से अधिक विकृत कर देते हैं परंतु तात्कालिक सफलता की चकाचौंध में उनकी विफलता आंखों से ओझल रह जाती है।

जब हम मोहम्मद साहब की, एक नेता के रूप में, विफलता की बात करते हैं, तो चेतना की पृष्ठभूमि में गांधीजी रहते हैं। यही कारण है कि मोहम्मद साहब पर बात करते हुए मुझे गांधी की याद आ गई थी।

हमने जिन तीन नेताओं को क्रांतिकारी बताया है उन सभी पर एक साथ चर्चा करना संभव नहीं है। संक्षेप में या अवश्य बता सकते हैं की क्रांतियों से लाभ की अपेक्षा हानि इसलिए अधिक होती है कि इतने बड़े पैमाने पर ऊर्जा के उन्मोचन को नियंत्रित करने का हमारे पास कोई तंत्र नहीं होता। क्रांति की कामना के साथ मनुष्य का स्वभाव नहीं बदल जाता।

पोप इनोसेंट ने पुराने विचारों, विश्वासों, संस्थानों, आराधना स्थलों, साधना और उपासना पद्धतियों, कलाकृतियों, ग्रंथागारों, विद्यालयों, और विद्वानों को नष्ट करने का, मनुष्य जाति के हजारों साल की संचित संपदा को नष्ट करने का और ज्ञान विज्ञान को निर्मूल करते हुए विश्वास और अंधविश्वास की जो पृष्ठभूमि तैयार की उस पर कुछ कहने को नहीं रह जाता।

इस्लाम में यदि पोपतांत्रिक ईसाइयत की इन सभी बुराइयों का प्रवेश हुआ, उसमें मोहम्मद साहब की कितनी भूमिका थी यह तय करना हमारे लिए कठिन है, परंतु इतना तो तय है ही कि यूरोप इनोसेंट की धार्मिक क्रांति के साथ अंधकार युग में चला गया, जिसमें साहित्य, कला, आदर्श सभी धार्मिक अंधविश्वास की परिधि में काम कर सकते थे।

मोहम्मद साहब द्वारा लाई गई कांति से अरब जगत का अंधकार युग में प्रवेश हुआ, उसके बाद, इस्लाम जहां-जहां फैला वहां वहां उसी अनुपात में प्राचीन ज्ञान संपदा और कलाकृतियों को नष्ट करते हुए अंधकार युग का प्रवेश हुआ, जिस अनुपात में वहां की सत्ता पर हावी होने वाले सच्चा मुसलमान सिद्ध होने के लिए सभ्यता द्रोहियों की तरह काम करते रहे।

मार्क्सवाद एक ऐसे युग का क्रांतिदर्शन है जिसमें सीधे बल प्रयोग के द्वारा ऊपर की किसी चीज को मिटाया नहीं जा सकता था, परंतु केवल मार्क्सवादी कलाकारों, दार्शनिकों, साहित्यकारों को श्लाघ्य बनाना, प्राचीन ज्ञान, विश्वास, इतिहास, सब की अवहेलना क्या उसी विनाश लीला का नया संस्करण नहीं है। जाे हमारे साथ नहीं है वह हमारा शत्रु है, क्या ईसाइयत के उसी विश्वास का अनुवाद नहीं है कि जो ‘सद्धर्म’ नहीं अपना सके हैं, वे जहालत में हैं? क्या यह इस्लाम के, ‘जो मुसलमान नहीं है वह शैतान की जद में है, काफिर हैं’, से मेल नहीं खाता? केवल एक दर्शन मार्क्सवाद। दूसरे दर्शन कुफ्र हैं।

जिस तथ्य पर इन तीनों को एक ही कोटि में रखते हुए बल देना चाहता हूं वह यह कि इनोसेंट प्रथम ने जीसस को सूली पर लटकाया था, रोमनों ने नहीं। उन्होंने ईशा के संदेश को उलट दिया, और एक नया धर्म ईसा के नाम का इस्तेमाल करते हुए चलाया जो ईसा-द्रोही, मानव-द्रोही, ज्ञान-विज्ञान द्रोही, पाशविक है, धर्म की आड़ में अधर्म का तंत्र है।

ठीक इसी नतीजे पर मार्क्स और एंगेल्स को पढ़ने और उनके दर्शन के नाम पर सत्ता हासिल करने वालों के आचरण को देखने पर पहुंचते हैं।

लेनिन बहुत बड़े थे। उनकी सत्ता की भूख उससे भी बड़ी। उनके द्वारा अपनाया तरीका और दी गई छूट तो उससे भी बड़ी थी। आप जानते हैं यह कैसे पैदा हुआ?

यह मध्य एशिया की बर्बर जातियों के स्वभाव से पैदा हुई थी इसके भुक्तभोगी दुनिया के सर्वाधिक सभ्य देश – भारत और चीन – रहे हैं। जारशाही जिसकी अपराध कथाओं को सुनते हुए हम सोवियत सोवियत क्रांति से जुड़ी अपराध कथाओं को भूल जाते हैं, उसी जमीन से पैदा हुई थी, और उसी में साम्यवाद का सबसे पहला प्रयोग हुआ था। दोष लेनिन का नहीं था, उस प्राकृतिक परिवेश का था, जिसमें जीवन निर्वाह मानवतावादी अपेक्षाओं का निर्वाह करते हुए हो ही नहीं सकता था।

यदि आपको यह कथन याद न हो कि क्रांति डॉल्फिन के उस छलांग जैसी है जिसमें एक क्षण को हमें विस्मय में डालती हुई वह हवा में रहती है पानी की सतह से ऊपर दिखती है और फिर उसी में आ गिरती है।

इन दोनों उदाहरणों से, और मोहम्मद साहब के विषय में जो कुछ सुनने को मिलता है उसके आधार पर यह मानने का प्रलोभन होता है कि मोहम्मद साहब ने जो वैचारिक क्रांति की थी वह सत्ता पर हावी होने वालों के प्रभाव में आकर उनके अपने उद्देश्यों के विपरीत चली गई। तभी याद आता है कि कुरान शरीफ मोहम्मद साहब के विचारों का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता। वह सचमुच शांति के देवदूत थे। कुरान को उल्टा पल्टा, पर हदीस पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला। सुनी सुनाई बातें उस व्यवहार से मेल नहीं खाती जिनको इस्लाम का अचार दर्शन बना लिया गया।

इसलिए इन तीनों दर्शनों के मामले में, उनका सैद्धांतिक पक्ष सत्ता पर अधिकार करने वालों के आचार व्यवहार से उल्टा दिखाई देता है। कामचलाऊ जानकारी का लाभ उठाते हुए मैं केवल यही अपेक्षा करूंगा कि इस्लाम के पंडितों द्वारा इस्लाम का इतिहास खोजने और लिखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। मेरी योग्यता आशंकाएं प्रस्तुत करने की है, समाधान करने की नहीं।

एक छोटे से अंतर को रेखांकित करना चाहूंगा। इन तीनों महर्षियों ने प्रकृति की कृपणता के कारण, या व्यवस्थाजन्य अपमानवीकरण से अपने और अपनी दृष्टि से मानव समाज का उद्धार करना चाहा और सत्तालोलुप नेताओं ने उस परिस्थितिजन्य गिरावट को औजार बना कर अपने दार्शनिक अग्रदूतों की हत्या कर दी। ईसा पहले और अन्तिम ईसाई थे। मुहम्मद पहले और अंतिम मुसलमान थे। मार्क्स पहले मार्क्सवादी भी नहीं थे, और अंतिम मार्क्सवादी भी नहीं हैं। गांधी ने अपने सारे औजार पहले के विचारकों से लिये थे। उनसे अधिक मौलिक तो भारतेंदु और दयानंद सरस्वती सिद्ध होते हैं, परंतु गांधी में अपनी परंपरा का सारसत्य है, इसलिए गांधी विफल होने पर भी पूरी मानवता ही नहीं सृष्टि की रक्षा के लिए भी सबसे प्रासंगिक है और गोली खाकर ढेर हो जाने के बाद भी नहीं मरता। वह विफल होता है, निष्फल नहीं होता।