#इतिहास_दोबारा_लिखो
प्रवाह की दिशा (1)
एक ही बात को लगातार दुहराते हुए निराधार कल्पना को भी इतना विश्वसनीय बनाया जा सकता है कि उसके विरुद्ध सभी तरह के तर्क और प्रमाण व्यर्थ हो जाएं। धर्म, धर्मग्रन्थ, स्वर्ग. नरक आदि संबंधी विश्वास इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। दंड और पुरस्कार, प्रलोभन और उपेक्षा, शिक्षा पर एकाधिकार आदि के माध्यम से गलत बातों को भी लगातार जारी रखकर सर्वमान्य सत्य के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है।
यूरोपीय विद्वानों ने अलग-अलग स्वरों मे पश्चिमी श्रेष्ठता को स्थापित करने और शेष जगत में हीन भावना उत्पन्न करने के लिए इन्हीं युक्तियों का सहारा लिया, और हमारी जहन में यह उतारते रहे कि समस्त ज्ञान और प्रेरणा का स्रोत पश्चिम था, जब कि एशिया के संपर्क में आने वाले ग्रीस और इटली को छोड़कर इनमें से अधिकांश ईसा के बाद की शताब्दियों में भी सभ्य नहीं हो पाए थे, यह हम पीछे देख आए हैं।
यहां केवल यह याद दिलाना चाहते हैं कि सारी जानकारी के बावजूद दूसरे देशों के शिक्षित लोग भी उनके द्वारा गढ़ी गई कहानियों के इस हद तक शिकार रहे हैं कि वे आज भी मानते हैं कि भाषा संस्कृति सभ्यता सभी का प्रवाह पश्चिम से पूरब की दिशा में होता रहा है।
एक स्वतंत्र देश को राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद आर्थिक स्वतंत्रता और मानसिक स्वतंत्रता का युद्ध लड़ना होता है, क्योंकि दोनों पर उसे गुलाम बनाने वाले अधिकार कर चुके रहते हैं। जो समाज यह युद्ध नहीं लड़ पाते वे दिखावटी स्वतंत्र होते हैं। यह ज्ञान नया नहीं है, पुराना है, और उसको न जानने के कारण हम यह भी नहीं जान पाते कि हम स्वतंत्रता का झंडा लहराते हुए भी किनके हाथ के खिलौने बने हुए हैं। यह बुद्धिजीवियों की अपनी अकर्मण्यता का परिणाम है। पुरानी उपमा है – अपने विषय का यथेष्ट ज्ञान न रखने वाला विद्वान दूसरों के हाथ का वैसा ही खिलौना है जैसे लकड़ी का हाथी और चमड़े का मृग- जो मामूली शब्दभेद से मनुस्मृति, महाभारत और पद्मपुराण में दोहराया गया है, जिसका अर्थ है यह हमारी सामाजिक चेतना का अंग बन चुका था:
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: । यश्च विप्रोSनधियान स्त्रयते नाम बिभ्रति । । – मनु २ /१५७.
यथा दारुमयो हस्तीयथा चर्ममयो मृग: । ब्राह्मणश्चानधियानस्त्रयते नाम बिभ्रति । । महा. शांति ३६/४७
यथा दारुमयो हस्ती मृगश्चित्रमयो यथा विद्याहीनो द्विजो विप्र त्रयस्ते नामधारकाः।।। पद्म पुराण 4.16.१०
जिस समय अंग्रेजों ने कांग्रेस को सत्ता सौंपी थी, आधारभूत संरचना के मामले में भारत चीन से बहुत आगे था। आज चीन नागरिक स्वतंत्रता को छोड़कर हमसे दूसरी सभी दृष्टियों से बहुत आगे है। मुझे लगता है, इसका सबसे प्रधान कारण यह है कि पश्चिमी दरिन्दगी का खिलौना बन चुके चीन ने आत्म निरीक्षण से उस विश्वास को अर्जित किया जिससे वह खिलौने से खिलाड़ी बनने की भूमिका में आ गया। इस आत्म निरीक्षण का ही दूसरा नाम है अपने इतिहास का गहन अध्ययन और अतीत की राख में से जीवंत चिनगारियों को सजोना और ज्वाला को उर्जा में बदलना। संचित ऊर्जा से नई ऊंचाइयों पर पहुंचने की कोशिश करना। आपने फीनिक्स की कथा तो पढ़ी होगी, जरूरी नहीं कि उसका अर्थ भी समझा हों। क्योंकि उसके लिए आपको अग्नि पर लिखी गई ऋचाओंं के काव्य सौंदर्य को समझने की जरूरत होगी, जिन्हें आप ब्राह्मणवाद के प्रभाव में कर्मकांड से जोड़कर पढ़ते और अपना सिर धुनते रहे हैं और इसका लाभ उठाकर पश्चिमी विद्वानों ने भी आपको उसी घेरे में बंद करके तीन-तेरह करने की छूट तो दी पर सोचने का अवकाश न दिया। इन ऋचाओं को और उस बौद्धिक पर्यावरण को नए सिरे से समझें:
अवसृजन्नुप त्मना देवान् यक्षि वनस्पते ।
अग्निर्हव्या सुषूदति देवो देवेषु मेधिरः ।। 1.142.11
मातेव यद् भरसे पप्रथानो जनंजनं धायसे चक्षसे च ।
वयोवयो जरसे यद्दधानः परि त्मना विषुरूपो जिगासि ।। 5.15.4
गुहा सतीरुप त्मना प्र यच्च्छोचन्त धीतयः ।
कण्वा ऋतस्य धारया ।। 8.6.8
हमें अपने प्राचीन साहित्य का जो ज्ञान कराया गया है, वह एक तरह का विष-प्रचार है। अर्थात् विष तो वर्णवादी सोच में था, जो आज भी बना हुआ है। इसका लाभ पाश्चात्य विद्वानों ने उठाया और सोच समझ कर उठाया, और हमारे ही हथियारों से हमें परास्त किया और अपनी आंतरिक दुर्बलता के कारण हम उनका प्रतिवाद भी नहीं कर सके। भारतीय सिपाहियों की मदद से अंग्रेजों ने भारत को जीता था, भारतीय चिंताधारा में आई विकृतियों के कारण उनका उपयोग करते हुए पाश्चात्य विद्वानों ने हमारे ऊपर सांस्कृतिक विजय प्राप्त की थी।
यदि आप मेरे मंतव्य से सहमत नहीं है तो भी दुबारा सोचे कि क्या आज भी वर्णवाद से हम मुक्ति पा सके हैं और क्या हम यूरोप और गोरों को जिन बातों के लिए दोष देते हैं उनको स्वयं जिलाने का प्रयत्न नहीं करते? क्या आज भी वे आपकी ही कमजोरियों लाभ उठाकर आप को तोड़ने का प्रयत्न कर रहे हैं या नहीं? यदि हां, तो ब्राह्मणों को जो भारतीय समाज का मस्तिष्क होने का दावा करते हैं, उनके साथ, उनके आंदोलन में सहयोग करना होगा, जोे आत्म सम्मान और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
यूरोपीय विद्वानों का पूर्वी देशों का अध्ययन उनको समझने के लिए नहीं था, उनको तोड़कर मलबे में बदलकर, स्वयं अपनी हीनता ग्रंथि से ऊपर उठाने के लिए था, जिस पर सभी यूरोपीय विद्वान सहमत रहे हैं, सहमत हैं, और सहमत रहेंगे। उनके दुराग्रह को दूर करने के लिए, अपनी अस्मिता को स्थापित करने के लिए, उन देशों को, उन संस्कृतियों को, इंच इंच पर संग्राम करना होगा जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी मानसिक और आर्थिक दासता से मुक्त नहीं हो सके , न ही जिनमें इसकी इच्छा शक्ति बची रह गई है।
चीन ने इसे संभव किया, और चाइनाज प्रेसिडेंट आमादेर प्रेसिडेंट वाले युग में इन वाक्यों को सुनते हुए, अपमानित अनुभव करते हुए भी यदि यह बोध होता कि चीन ने क्या किया है जो भारत न कर सका, और यदि इस नारे को चाइनाज सरणी(पथ) आमादेर सरणी के रूप में ढाला गया होता तो मैं निश्चित नक्सलवादी हो चुका रहा होता, जिसका में एक दासता से उबरने के बाद दूसरी दासता में जाने के कारण विरोध करता था और बाद में भी करता रहा जबकि समाज को बदलने की उत्कट आकांक्षा के कारण नक्सलवादी अपनी उत्सर्ग भावना के कारण मेरे लिए प्रेरणा के स्रोत बने रहे।
चीन में साम्यवाद की स्थापना की ही कोशिश नहीं हुई, साम्यवादी चीन ने एक और अपनी सामंतवादी व्यवस्था से बाहर निकलने का दुर्धर्ष प्रयत्न किया, तो दूसरी ओर साम्यवाद की चकाचौंध में सोवियत दादागिरी को भी चुनौती दी और यूरोपीय वर्चस्ववाद को भी न करते हुए अपने अतीत का संबल लेकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि हम सभ्यता के जनक हैं। तुमने हमारी नकल करते हुए अपने को आगे बढ़ाया है और तुम्हारी कृतघ्नता यह है कि तुम हमारा ऋण तक स्वीकार नहीं करते।
यदि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी कम्युनिस्ट थी हमारे देश की कम्युनिस्ट पार्टी क्या कम्युनलिस्ट नहीं थी जिसने को मुसलमानों को खुश करने के लिए उस दौर की उपलब्धियों को जलाकर राख करने का इरादा किया और इसी पर अमल करते रहे। जहां से प्रेरणा प्राप्त करनी थी, वहां से शर्म, केवल शर्म, जुटाने का प्रयत्न किया। मैं यह नहीं मानता किसी समुदाय को उसकी गलतियों के बावजूद अपराधी सिद्ध किया जाना चाहिए, परंतु मैं यह नहीं मानता जो अपने अतीत के अपराधों को अपने गौरव का विषय मानते हैं उनको प्रसन्न करने के लिए अपने इतिहास और अपनी प्रेरणा के स्रोतों को नष्ट कर दिया जाए।
गलाजत की हदें हैं जिनकी अपनी भी हदें होंगी
कहां पर आप कायम हैं कहां की बात करते है?
हमें कुछ और कहना था, मगर कुछ और कह बैठे
बहक जाते हैं तब भी आप की ही बात करते हैं