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प्राच्य निरंकुशता (1)
‘प्राच्य निरंकुशता’ अंग्रेजी के ओरिएंटल डिस्पॉटिज्म का अनुवाद है। ‘डिस्पॉटिज्म’ की अवधारणा प्राचीन भारत में न थी। वस्तु ही नहीं, फिर उसकी संज्ञा कैसे होती? संस्कृत में या किसी अन्य भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं मिलता, इसलिए डिस्पॉटिज्म का हिन्दी पर्याय गढ़ना पड़ा। अंग्रेजी में इसकी परिभाषा निम्न रूप में की गई है: The exercise of absolute power, especially in a cruel and oppressive way. ऑक्सफोर्ड । इसका मूल है ग्रीक का जिसको परिभाषित करते हुए Δεσποτισμός, despotismós) is a form of government in which a single entity rules with absolute power. Normally, that entity is an individual, the despot, as in an autocracy, but societies which limit respect and power to specific groups have also been called despotic. Colloquially, the word despot applies pejoratively to those who abuse their power and authority to oppress their populace, subjects, or subordinates. विकीपीडिया.
इसके प्रतिशब्द के रूप में निरंकुश एक सीमा तक ही उपयुक्त है, क्योंकि यह उसे दूसरे पक्ष पर रोशनी नहीं डालता, जिसके कारण इसे निंदापरक माना जाता है।
ऋग्वेद में एक ऐसा प्रयोग है जिससे संस्कृत के प्रतापी विशेषण का संबंध है, परंतु यह प्रयोग शत्रुओं को अपने सैन्य बल से निष्प्रभाव करने वाले राजा के लिए योग में आता रहा है – तपन्ति शत्रुं स्वर्ण मा महासेनासः अमेभिरेषाम्। ऋग्वेद 7-34-19 (विशाल सैन्य बल वाले राजा शत्रुओं को उसी तरह संतप्त करते हैं जैसे निदाघ का सूर्य धरती को तपा देता है )। इसमें शत्रुओं को दहलाने का भाव है, जबकि डेस्पॉट में अपनी प्रजा को उत्पीड़ित करने वाले शासक का बोध होता है।
ऐसा राजा प्राचीन भारतीय चिंता धारा में अकल्पनीय था। प्रजा या जनता की संकल्पना आर्य संस्कृति से बाहर जिस तरह अकल्पनीय थी उसी तरह प्रजा को आतंकित रखने वाले शासक की अवधारणा हमारे लिए अकल्पनीय थी। यह हमारी विवशता है कि निरंकुश शब्द गढ़ लेने के बाद भी इसका सही आशय समझने के लिए हमें डेस्पॉट शब्द का आशय समझने की आवश्यकता होती है।
विभिन्न संस्कृतियों के बीच ऐसी बहुत सी संकल्पनाएं होती है जो उतनी ही विचित्र होती हैं जैसे भिन्न भौगोलिक और जलवायविक स्थितियों में कुछ विचित्र जीव-जंतु और पेड़ पौधे पाए जाते हैं । यदि अपनी भाषा को शुद्ध बनाए रखने की चिंता में इनका अनुवाद न किया जाए तो बहुत सारी गलतफहमियां जो अनुवाद के कारण पैदा होती हैं उनसे हम बच सकें, हमारा काम आसान हो जाए, और अहंकार भी कुछ कम हो जो भी संस्कृतियों को समझने में बाधक होता है। यही कारण है कि एक भाषादार्शनिक ने यह कठोर टिप्पणी की कि अनुवाद मूल का सत्यानाश है। यदि हमारे भाषा वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों द्वारा इस नियम को समझा गया होता तो भारतीय कामकाज में भारतीय भाषाओं का प्रयोग तत्काल प्रभाव से आरंभ हो गया होता और अंग्रेजी को उसकी सही सीमा में लाने का काम बिना किसी अवरोध के पूरा हो गया होता।
इसका यह अर्थ नहीं है प्राचीन भारत में कोई अन्यायी शासक ही नहीं हुआ। परंतु यह अपवाद था, क्योंकि अन्यायी और अत्याचारी (आदर्श आचारसीमा को पार करने वाला) शासक से जनता आतंकित नहीं होती थी, बल्कि घृणा करती थी और इसलिए मध्यकालीन भारत में पहली बार निरंकुश शासकों का दौर आरंभ हुआ, उनके प्रति जनता की घृणा ने कवच का काम किया जिसके कारण लगभग 1000 साल तक किसी ना किसी रूप में इस्लाम के दबाव में रहते हुए भी, भारत में मुसलमानों की संख्या 15/ 20% से अधिक नहीं पढ़ पाई जबकि दूसरे देश जिनमें स्वेच्छाधारी, निरंकुश, और आतंकी शासकों का प्रभुत्व था वे इस्लाम का एक आघात भी झेल नहीं पाए।
डेस्पॉट और डेस्पॉटिज्म ग्रीक मूल के ही शब्द नहीं हैं अपितु अरस्तू, जिसका शिष्य सिकंदर था, इसका समर्थक था। इस शब्द का प्रयोग पहले से मिस्री शासकों के लिए होता रहा लगता है। भारत को छोड़कर, अन्यत्र इसे निंदनीय नहीं माना जाता था, अपितु प्रताप, प्रभाव, आतंक और ऐश्वर्य का द्योतक और इसलिए गरिमा का सूचक माना जाता था। “It connoted the absolute authority and power exercised by the of Ancient Egypt, signified nobility in Byzantine courts, designated the rulers of Byzantine vassal states, and acted as a title for Byzantine Emperors. In this and other Greek or Greek influenced contexts, the term was used as an honorific rather than as a pejorative.”(विकीपीडिया)
निरंकुश शासन लोकप्रिय शासन का विलोम है। लोकप्रिय शासन में लोक या जनता शासन करती है, और राजा या शासक उसके हितों का प्रतिनिधित्व करता है। जिस तंत्र के माध्यम से वह अपने दायित्वों को पूरा करता है उसके निर्वाह का व्यय जनता से वसूल करता है।
निरंकुश शासन में जनता के सुख दुख का स्थान आतंक ले लेता। राजा अपने शौर्य और प्रताप से किसी भूभाग पर पहले से अधिकार जमाए हुए लोगों और शासकों को परास्त करके असहाय और निरूपाय बना देता है। उसका उनके साथ वही संबंध होता है जो शिकारी का अपने शिकार के साथ। वे उसके भक्ष्य हैं, उसकी गरिमा, उसके भोग और ऐश्वर्य के साधन हैं। इससे अलग उनका कोई अस्तित्व नहीं। उन पर क्या बीतती है इसकी उसे चिंता नहीं। इस तर्क से वह इन सभी का मनचाहा उपयोग कर सकता है भले इसके लिए जघन्यतम क्रूरता और नरसंहार का सहारा लेना पड़े।
यद्यपि आज प्रशासन का सर्वोत्तम रूप लोकतंत्र है, परंतु इसमें ऐसे नायक पैदा हो सकते हैं जो लोकतंत्र के सहारे सत्ता में आने के बाद निरंकुश हो जाएं। इसलिए कोई भी तंत्र हमें निरंकुशता से पूर्ण मुक्ति का आश्वासन नहीं दे सकता। भारत पर अंग्रेजी राज्य के दौरान अंग्रेजों का व्यवहार लगभग निरंकुश था। जब तक गुलामी प्रथा थी और उसके बाद गिरमिटिया प्रथा के अंतर्गत मालिकों का व्यवहार निरंकुश था। रंग भेद बरतने वाले लोकतांत्रिक व्यवस्था पर गर्व करते थे और अपने शासितों को आदमशक्ल जानवरों से ऊपर पनहीं समझते थे। मुसोलिनी और हिटलर यदि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से निकले थे तो साम्यवादी तानाशाह भी लोकतांत्रिक केंद्रीयता के नाम पर जघन्यतम कृत्यों के लिए ही जाने जाते हैं। इसलिए तंत्र की अपेक्षा अर्थव्यवस्था और मूल्य व्यवस्था का महत्व अधिक है। सच कहें तो अर्थव्यवस्था से अधिक शक्तिशाली मूल्यव्यवस्था है। और जब हम संस्कृतियों का मूल्यांकन कर रहे हों तो मूल्य व्यवस्था का महत्व अर्थव्यवस्था और धर्म तंत्र से भी अधिक हो जाता है। जब हम ओरिएंटल डेसपोटिज्म या प्राच्य निरंकुशता की बात कर रहे हैं तब तो विशेष रूप से।