शायरों ( बुद्धिजीवियों) पर भरोसा करने वाले मारे जाएंगे
पूछें क्यों? तो जवाब है, क्योंकि वे हकीकत को खयालों में बदलकर देखते हैं और खयालों को हकीकत पर लाद कर उसे बदलना चाहते हैं। अंदाज़ तो अच्छा है अंजाम आप जानें।
कवियों, सूक्तियों और मुहावरों पर भरोसा करने वाले फायदे में रहते हैं। फायदा यह कि बिना सोचे विचारे बड़ी आसानी से वे ऐसे निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं जिसके सामने दूसरे अवाक हो जाते हैं और अपने मन के ऊहापोह को दबाकर उनकी बात मान लेते हैं।
रचनाकार को अपने तुक और ताल का जितना ध्यान रहता है उतना सत्य, समाज या मानवता के हित का नहीं। उसकी महिमा इसी में है, उसका लाभ इसी में है। अपने समय की गुलामी से समाज को बाहर निकालने का महामंत्र उसके पास है, अपने समय का मुकाबला करने का हथियार और औजार उसके पास नहीं है।
उसकी सलाह के फायदे जो भी हों, उसके नुकसान उनको उठाना पड़ता है जो उन निष्कर्षों को सही मान लेते हैं। मैं अपने कवि मित्रों से भी कहता रहता हूं कि विचार के मामले में आप पर भरोसा नहीं किया जा सकता, और स्वयं भी यही मानता हूं और आवेग या भावना की सघनता के क्षणों में जो कुछ लिख बैठता हूं उस पर विश्वास नहीं करता। अक्सर उसे काट कर अलग कर देता हूँ।
इसका एक नमूना पेश करना चाहता हूं। मुझे आज के हंगामे के बीच सोचते हुए लगा इमरान खान सचमुच पाकिस्तान की पिछली गलतियों को सुधारते हुए भारत-पाक संबंधों में सुधार करना चाहता है, और भारत सरकार (मोदी) से उसकी यह अपील कि उसे एक मौका दिया जाए, बहुत निश्छल और खेल भावना में पले हुए एक महान खिलाड़ी के अनुरूप है।
फिर यह ध्यान आया कि यह अपील उसने एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद जिस के सूत्र पाकिस्तान से जुड़े हुए थे और जिसका ऐलान पाकिस्तान में स्थित उसके आकाओं ने स्वयं ली थी, उसी समय पर क्यों की? भारत ने इसका प्रमाण दिया था, परंतु वह पाकिस्तानी परंपरा के अनुसार उसे पर्याप्त नहीं लगा था।
पक्का प्रमाण देने के लिए भारत को जैस के ठिकानों को मिटाने का निर्णय लेना पड़ा। पाकिस्तान के नागरिक या सामरिक ठिकानों को कोई क्षति न पहुंचे, इसका उसने पूरा ध्यान रखा। केवल पाक संरक्षित जैस के ठिकानों को मिटाकर निर्णायक प्रमाण देने का प्रयत्न किया।
इस प्रमाण से ही बौखला कर पाकिस्तान ने दोबारा ऐसी गलती की जिस से युद्ध छिड़ सकता था। पहले ही आघात में मुंह की खानी पड़ी। फिर भी एक सही कदम उठाते हुए उसने जेनेवा संधि के अनुरूप व्यवहार किया जिसकी सामान्यतः पाकिस्तान से अपेक्षा नहीं की जाती, यद्यपि कुछ समय पहले पाकिस्तानी रेंजर्स के दो सैनिकों को भारतीय सीमा में दाखिल होने के बाद यह जानकर कि वे अज्ञान वश भारतीय क्षेत्र में प्रवेश कर गए थे, भारत ने सम्मान सहित उनको वापस लौटा दिया था।
पाकिस्तान जब ऐसा ही व्यवहार करता है तो वह आश्चर्यजनक, अभूतपूर्व जैसा क्यों लगता है? दिमाग ने पलटा खाया तो सरहदों पर चल रही लगातार गोलाबारी के बीच सोच का रुख बदल गया। यह भूमिका मैंने उस भावभूमि को उजागर करने के लिए लिखी है जिसमें विचार में तल्खी भी आ गई और वह तुकबंदी में ढल गई:
वहशत ही सही
हँसने हँसाने के लिए आ।
उलेमा* को उसका पट्ठा बनाने के लिए आ।
वहशत ही सही।।
(*बुद्धिजीवी)
कहने को तो इस्लाम की ख्वाहिश है सलामत।
कायल नहीं जो उनको मिटाने के लिए आ ।
वहशत ही सही।।
लब इतने हैं शीरीं कि उलट जाता है मानी
यह राजे-हुनर हमको बताने के लिए आ।
वहशत ही सही।।
बन्दों का है मालिक तो क्यों बन्दे रहें आजाद।
खुद्दार को खुद-बीं को सताने के लिए आ।
वहशत ही सही।।
बेचैनियों से दुनिया के मिलता है तुझे चैन।
मेरा अमन सुकून मिटाने के लिए आ ।
वहशत ही सही।।
गोलों के बीच मीठी गोलियों की पेशकश।
शक्कर के मरीजों को लुभाने के लिए आ।
वहशत ही सही।।
आजाद नहीं तू है जमाने को है मालूम।
आजाद हो सके तो बताने के लिए आ।
वहशत ही सही।।
तोपों के रुख को देख और मेयार उनका देख
दुनिया के रुख से होश में आने के लिए आ।
दहशत ही सही।।
(तुकबन्दियों को देख मजा ले मेरे महबूब।
जो लिख दिया तू उसको मिटाने के लिए आ।
तोहमत ही सही।।)
निष्कर्ष यह कि यदि इमरान सचमुच शांति प्रक्रिया आरंभ करने के प्रति गंभीर हैं तो उन्हें अपनी सेना से मोहलत मांगनी चाहिए कि गोला-तोप बंद करो जिससे मैं शांतिवार्ता आरंभ कर सकूं और पाकिस्तान की आर्थिक दुर्दशा दूर कर सकूं, न कि भारत (मोदी) से, जो लगातार कहता आ रहा है कि जबान की आवाज तोपों की आवाज के बीच सुनाई नहीं पड़ती। पहले इसे बंद करो और याद करो कि यह तनाव और टकराव हमारे विकास में बाधक है। भारत को इमरान से नसीहत लेने की जरूरत नहीं है, इमरान को भारत की इस नसीहत पर ध्यान देने की और अपनी सेना को समझाने की जरूरत है।