पूरब से पूरब की दूरी
यह बात उलटबांसी जैसी लगेगी कि पूर्व से पश्चिम की दूरी के मुकाबले, पूरब पूरब से अधिक दूर है। हम पूर्व के देशों के बारे में बहुत कम जानते हैं, जबकि पश्चिम के ऐसे देशों के बारे में अधिक जानकारी रखते हैं जिन्हें जेब में रखा जाए तो जेब फटेगी नहीं। पूरब के किसी देश में पहुंचने की तुलना में पश्चिम पहुंचना हमें अधिक आसान और अधिक आकर्षक लगता है।
ऐसा दो कारणों से है। हम मानते हैं कि हमें पूरब से कुछ नहीं मिल सकता, क्योंकि पूरब के सभी देश या तो पिछड़े हुए हैं, या, यदि किसी मानी में हमसे कुछ आगे भी हैं तो इसलिए कि उन्होंने पश्चिम से कुछ ग्रहण किया है, और केवल उसी अनुपात में हमसे आगे हैं, जिस अनुपात में उन्होंने पश्चिम से कुछ सीखा है। अर्थात् उनके पास हमें देने के लिए अपना कुछ नहीं है, इसलिए हमें यदि कुछ प्राप्त हो सकता है तो पश्चिम से सीधे संपर्क के माध्यम से ही।
खयाल गलत नहीं है, बस इसमें इतनी कमी रह जाती है, कि पश्चिम आज भी पिछड़ेे से पिछड़े देश से उसका जो कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है उसे प्राप्त करने की चिंता में रहता है और प्राप्त करके अपना बना कर उस पर अपना दावा पेश करना चाहता है- वह आपकी बौद्धिक संपदा-नी हो, वानस्पतिक विशिष्ट उत्पाद – नीम, हल्दी, बासमती आदि़ हों, या खनिज द्रव्य। उसकी निगाह आपके प्रतिभाशाली युवकों पर भी रहती है । शिक्षित और प्रशिक्षित आप करते हैं और वे उनके काम आते हैं। आप की अर्थनीति क्या होगी यह जिस सीमा तक पर्दे में रहकर विश्व बैंक निर्देशित करता है, उससे अधिक आप की शिक्षा नीति क्या होगी, किस सीमा तक किन चीजों को, किस रूप में पढ़ाया जाएगा, इसका निर्धारण आप नहीं करते। उनकी योजनाओं और हमारी जरूरतों के बीच एक अदृश्य रिश्ता है जिससे एक दुश्चक्र पैदा होता है। आप अपनी शिक्षित और प्रशिक्षित प्रतिभाओं का उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि आप पिछड़े हैं, आप का आधारभूत ढाँचा (इंफ्रास्ट्रक्चर) उनका उपयोग करने के अनुरूप नहीं है, और आप पिछड़े रहेंगे क्योंकि आपके पास आगे बढ़ने के लिए अपेक्षित प्रतिभाओं का अभाव है।
इसका दूसरा कारण यह है हम लंबे अरसे तक पराधीनता की स्थिति में रहे हैं और इसलिए सत्ता का हस्तांतरण हो जाने के बाद भी चेतना के स्तर पर हम आज भी पश्चिम के दिमाग पर निर्भर करते हैं। उतना ही जानते हैं जिसे अपनी योजना के अनुसार वे हमें अवगत कराना चाहते हैं – सो जानहिं जेहि देइ जनाई।
इसके पीछे पश्चिम का विकसित ज्ञान, प्रकाशन और सूचना उद्योग है जो उसके सामरिक उद्योग की तुलना में अधिक शक्तिशाली है और उसके हरावल दस्ते का काम करता है। उससे मुक्ति का कोई रास्ता निकालने में पूर्व के लोग अभी तक असफल रहे हैं, या जो जिस सीमा तक सफल हुआ है, वह उस अनुपात में पश्चिम को नकार कर ही सफल हुआ है। इसके अभाव में उनमें यह सामर्थ्य है कि वे पूर्व के लोगों का इस्तेमाल उनके हितों के विरुद्ध, अपने स्वार्थों की रक्षा या वृद्धि के लिए कर सकें और हमारी भावनाओं को उत्तेजित करके हमें उसी तरह अपनी इच्छा के अनुसार चला सकें जैसे हम अपने पालतू पशुओं को चलाते हैं।
इससे जुड़ी है एक चुनौती। पश्चिम का सहारा लेकर आप न पश्चिम को जान सकते हैं न पूर्व को। आप अपना नाम तक नहीं जान सकते, यदि आप इस योग्य हो जाएं कि आपका नाम वे लेने लगें। तब लिखने में आप भले नैपाल रहें, परंतु उच्चारण में नाईपाल हो जाएंगे और जो आपको बिल्कुल नहीं जानता है वह सोच सकता है कि यह हजामत करने वालों का कोई चेनवर्क है। अंग्रेजी जबान पर चढ़कर बनारस, बेनारस हो जाता है जिसे सुधार कर कोई वैयाकरण बिना-रस बना सकता है। क्या आप उन व्यक्तियों या स्थानों का सही नाम जानने की फिक्र करते हैं जिन्हें पहले यूनानी (Greek) और फिर बाद में पुर्तगाली और फिर अंग्रेज बिगाड़ कर चले गए और हमारी पुस्तकों में उन्हीं के बिगड़े हुए नामों को बार-बार दोहराया जाता है।
जब हम कहते हैं कि सत्ता-हस्तांतरण तो हुआ परंतु हम स्वतंत्र नहीं हुए, तो इसका एक कारण है। सत्ता एक कार्यभार (चार्ज) है, उसे बिना किसी बदलाव के किसी दूसरे को सौंपा जा सकता है। परंतु स्वतंत्रता एक मनोवृत्ति है जो लादी या सौंपी नहीं जाती, हमारे अंतर्मन से उत्पन्न होती है और अपनी कीमत मांगती है।
गुलाम कामचोर होता है। काम चोर इसलिए होता है कि वह अपने काम को अपना काम समझ करके नहीं करता। अपने मालिक का काम समझ कर करता है। इसलिए उसे काम नहीं करना है, मालिक को उसके माध्यम से अपना काम कराना है। यह काम वह दंड से करा सकता है, या पुरस्कार से करा सकता है। काम लेना उसका काम है, काम करने वाले का नहीं। अधिक पाने के लिए वह कम से कम काम करेगा। इसके चलते गुलाम समाजों में कामचोरी की प्रवृत्ति और अय्याशी की ख्वाहिश उसी अनुपात बढ़ जाती है। यदि ऐसा न होता तो हमारे गद्दी नशीन विद्वानों ने अपना नाम तो पता किया होता। अपने पड़ोसियों का नाम तो समझा होता। उनके ज्ञान पर भरोसा कर के हम अपने पुरखों, पड़ोसियों और अपने आप को तो न भूल जाते।
उदाहरण के लिए जमोरिन का नाम लीजिए। यह भारतीय राजा था जिसने पुर्तगालियों को पनाह दी थी इसका नाम जमोरिन तो नहीं हो सकता। इसका नाम समुद्रजित था।
आप जानते हैं साइरस ने अपना विशाल साम्राज्य कायम किया था। शायद आपको यूनानियों द्वारा Cyrus साइरस कहे जाने वाले इस सम्राट का सही नाम जानने की भी इच्छा पैदा न हुई हो, क्योंकि जिज्ञासा का भी ज्ञान से और ज्ञान की स्रोतों से अभिन्न संबंध है। पूरू या पोरस के बारे में तो आप जानते हैं। यह वैदिक परंपरा से जुड़ा नाम है, परंतु उसी से मिलते जुलते कुरु का नाम ईरानी में पहुंचने के कारण नहीं, बल्कि यूनानियों द्वारा बिगाड़े जाने के कारण आप पहचान नहीं पाते। फारसी में उसे कुरु کوروش Kuruš; के रूप में ही जाना जाता रहा है।
इसका ही पुत्र था दारयावश (यशोधर) Dārayavauš जिसे डेरिअस लिखा और कभी कभी दारा के रूप में पढ़ा जाता है। इसका परिचय कल देंगे। परन्तु यहां केवल यह सवाल कि इतिहास में क्रान्ति करने वाले विद्वानों को क्रान्ति करने से पहले इतिहास को जानने में तो हमारी मदद करनी चाहिए थी कि हम यह जान सकें कि इतिहास का सच क्या है। हम किसे और क्यों बदलने जा रहे हैं और किस आधार पर। यह शिकायत हमें केवल वामपंथी इतिहासकारों से ही होती ताे उनकी भर्त्सना करके खुश हो लेते। राष्ट्रवादी कह कर दरकिनार किए जाने वाले इतिहासकारों से भी हमें मदद नहीं मिलती। अतः यह मानसिक गुलामी की समस्या है। सत्ता के भूखे लोगों ने सत्ता पाने के बाद, कम से कम अपना संविधान लागू करने के बाद हमें समझा दिया कि हम स्वतंत्र हो गए और हमने मान लिया कि हम स्वतंत्र हो गए। हम एक मोर्चे पर जीत कर जश्न मनाने में इतने मस्त हो गए कि युद्ध हार गए।
हालत पै उस मुसाफिरे बेकस पर रोइए
जो थक के बैठ जाता है मंजिल के सामने।