#भारतीय_मुसलमान: #माइनारिटी_सिंड्रोम (4)
अल्पसंख्यक होते हुए भी हावी होने की लालसा में हिंसात्मक तरीके अपनाने का रास्ता चुनकर सैयद अहमद ने शिक्षा की दिशा में किए जा रहे अपने ही प्रयासों का परिणाम उलट दिया। हिंदुओं से बौद्धिक प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की चुनौती के लिए प्रेरित करने, एक सुसंस्कृत और आधुनिक चेतना संपन्न समाज के निर्माण के स्थान पर भावुक, अतिसंवेदी ( हाइपरसेंसिटिव) रुझान पैदा करने में इस सोच की बहुत बड़ी भूमिका रही। ऐसा इसलिए हुआ कि उनकी चिंता के केंद्र में रईस थे, जिनके बारे में उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उसकी क्षमता हिंदुओं से बौद्धिक अग्रता पाने की नहो है। यही बहुत है कि वह अंग्रेजी में दक्षता प्राप्त करके जोड़ताड़ से अपने लिए नए अवसर तलाश सके। इसलिए यह अवसर भी वह सेना और पुलिस में ही देख पाते थेः
The time is, however, coming when my brothers, Pathans, Syeds, Hashimi, and Koreishi, whose blood smells of the blood of Abraham, will appear in glittering uniform as Colonels and Majors in the army. But we must wait for that time. Government will most certainly attend to it; provided you do not give rise to suspicions of disloyalty. (1887)
इस मामले में मदरसों से निकलने वाले अंधधार्मिकता वाले युवकों से आधुनिक शिक्षा प्राप्त सांस्कृतिक वर्चस्ववादी युवकों की स्थिति अधिक भिन्न नहीं थी। दोनों में एक जैसा ही दुराग्रह देखने को मिलता है, यद्यपि उनकी जीवनशैली में बहुत अधिक अंतर होता है। पहला घोर परंपरावादी, अपनी किताब को समस्त ज्ञान की कसौटी मानकर ज्ञान विज्ञान का निषेध करने वाला, शून्य काल में जीने वाला, जगत गति से अप्रभावित, नमाज रोजा और दूसरे प्रतिबंधों का पाबंद, सादगी पर गर्व करने वाला और दूसरा आधुनिक ज्ञान से लैस मजहबी पाबंदियों से बरी, मौज मस्ती के नए पुराने सभी तरीकों का कायल, परंतु सांस्कृतिक श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए कुतर्क और फरेब तक से काम लेनेवाला, बल्कि इस चतुराई पर गर्व करने वाला दुराग्रही।
हावी होने की प्रवृत्ति ने पहले के मामले में दुस्साहसिक क्रूरता का और दूसरे मामले में बौद्धिक आतंकवाद का रूप लिया जिसमें वामपंथी सोच के शिक्षाप्रणाली और विचार दृष्टि में प्रवेश कर इतिहासकारों, पत्रकारों लेखकों और पाठकों, यहां तक कि न्यायाधीशों तक को प्रभावित किया।
धाक जमाने या हावी होने की मानसिकता के पीछे सामी विश्व दृष्टि का भी हाथ था। सामी ईश्वर ने ब्रह्मांड के समस्त पदार्थों और जीव-जंतुओं यहां तक कि कबीले से बाहर के मनुष्यों तक की रचना अपने कबीले के आनंद के लिए की। सभी जीवों और पदार्थों की सृष्टि के बाद उसने मनुष्य से कहा अपनी जनसंख्या बढ़ाओ और दुनिया पर धाक जमाओ proliferate and dominate. इसलिए दूसरों को दबाना, झुकाना, मिटाना और अपमानित करना उनकी नैतिक चेतना का अंग बन जाता है। इसका प्रभाव आधुनिक शिक्षा प्राप्त मुसलमानों में भी बहुत गहरे उतरा हुआ दिखाई देता है।
मदरसों की तालीम पाने वाले युवकों से हम अधिक आशा नहीं कर सकते, परंतु पश्चिमी शिक्षा प्राप्त मुसलमानों को यह समझना चाहिए था कि यह उत्तरदायित्व उन पर आता है कि वे पूरे मुस्लिम समाज को मध्यकालीन मानसिकता से बाहर लाएं और आधुनिक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाएं। मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी हिंदुस्तान में रहती है और इसे आधुनिक दृष्टि और ज्ञान से समृद्ध होने और हिंदुओं के सानिध्य में रहने का अवसर मिला था, जिनमें सबको अपने ढंग से सम्मान पूर्वक रहने जीने और विश्वास करने का सहज भाव है। सामी मजहबों के सानिध्य में रहकर ऐसा करना संभव नहीं था। इसे हम यहूदियों के साथ ईसाई और इस्लामी देशों के व्यवहार से समझ सकते हैं। उनके साथ परस्पर एक ही संबंध बनता है और वह धर्मयुद्ध का जिसका सारतत्व यह है कि ‘या तो तू रहेगा या मैं’ । हिंदुओं के साथ इतिहास के अनुभव से तथा मध्यकाल में भी हिंदू राज्यों में मुसलमानों के प्रति व्यवहार से, यह समझा जा सकता था कि वह अपने को जिस तरह ढालना चाहे ढाल सकते हैं परंतु उन्हें बदलने और मिटाने का कोई दबाव हिंदुओं की ओर से नहीं आ सकता। आधुनिक युग में आगे बढ़ने के लिए वे अपना नया समायोजन आत्म संस्कार स्वयं कर सकते थे और अपने उदाहरणों से दूसरे मुस्लिम देशों को अपनी अस्मिता की, अपनी संपदा और सांस्कृतिक विरासत की, रक्षा करने का मार्ग सुझा और खिलाफत की भूमिका निभा सकते थे। यहां टकराव की नहीं अनुकूलन की आवश्यकता थी। इसे समझने में सर सैयद अहमद स्वयं चूके और उनको अपना मार्गदर्शक मान लेने के बाद मुसलमानों का अभिजात वर्ग जो ही शिक्षा मैं आगे बढ़ सका था, प्रभावित हुआ और अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करने से वंचित रह गया ।
इस सच्चाई को मैं लगातार दोहराता और रेखांकित करता चला आया हूं मुस्लिम समाज में सभी विचलनों का कारण अभिजात वर्ग रहा है, जिसने मध्य वर्ग के उदय में भी बाधा डाली, जो ही किसी समाज का सबसे संभावनापूर्ण तबका होता है। समाज का कायापलट इसी के माध्यम से संभव होता है। भारतीय मुसलमानों का सुशिक्षित वर्ग मध्यवर्गीय आभास दे सकता है परंतु इसका चरित्र अभिजीतीय है और इसलिए आज तक सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद और वर्चस्ववाद का वाहक बना रहा है इसकी सोच मुस्लिम लीग की सोच से आगे नहीं बढ़ सकी।
हिंदुओं के संपर्क जो लाभ उठाना था और इसके लाभान्वित होने से हिंदू समाज में जिन शक्तियों को अधिक मजबूत होना था वे न हो पाईं, क्योंकि इसने उसी को मिटाने का, उसे ही अपमानित करने का और इस तरह अपना वर्चस्व स्थापित करने का संकल्प ले लिया। इसे हम चिंतन, लेखन, समाजदृष्टि और इतिहास विवेचन सभी में हिंदुत्व द्रोह के रूप में पाते हैं। जिसके कारण हिंदू समाज में पुरातनपंथी विचारधाराओं को अधिक ताकत मिली।
मध्यवर्ग का उदय आम मुसलमानों के बड़े पैमाने पर शिक्षित होने, और अभिजात मुसलमानों को उनके विचारों से टकराने और बदलने के द्वारा ही संभव संभव था, जिसका अवसर आम मुसलमान नाममात्र को मिला। इसका परिणाम यह कि उसके सुशिक्षित युवाओं ने स्वयं अभिजात वर्ग में शामिल होने और उन्हीं मूल्यों को अपनाने का रास्ता चुना। अतः विज्ञान में शिक्षित मुसलमान भी प्रयोगशाला के भीतर ही वैज्ञानिक रह पाते हैं बाहर निकलते ही मुसलमान हो जाते हैं। और यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि पश्चिमी शिक्षा ने हमें बर्बाद नहीं किया है। हम जस के तस हैं।
मदरसों में पढ़े हुए युवकों को यथास्थितिवादी बनाने में जो भूमिका अलकिताब की रही है, बुद्धिजीवियों के मामले में वही भूमिका स्टूअर्ट मिल के इतिहास की रही है जो तीन नितांत मूर्खतापूर्ण सरलीकरणों पर आधारित है। पहला अतीत से वर्तमान का विकास क्रम सरल रेखा जैसा रहा है इसलिए हम जितने ही पीछे जाते हैं उतना ही पिछड़ापन हमें देखने को मिलता है, दूसरा गोरी जातियां रंगीन जातियों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ और ओजस्वी रही हैं, बल्कि इसी रूप में प्रकृति ने उन्हें बनाया और तीसरी किसी भी कृति में जो कुछ लिखा है वास्तविक जीवन में उसी रूप में निर्वाह होता रहा है और इसका सार रहा है कि पश्चिम सभ्यता का जनक रहा है और सभी सिद्धांत ज्ञान, श्रेयस्कर और रक्षणीय मूल्य वहां पैदा हुए हैं और वहां से पूर्व की दिशा में फैले। इस तर्क से अंग्रेजों का शासन मुस्लिम काल से और मुस्लिम काल हिंदू काल से उन्नत रहा है जो देश किसी देश की तुलना में जितना ही पश्चिम है उतना ही अधिक सुसंस्कृत जागरूक और ऊर्जावान है मुसलमान हिंदुओं से यूरोप के लोग मुसलमानों से सभी दृष्टियों से आगे रहे हैं रहेंगे। भारत के हिंदू और मुसलमान भी ईरान मध्य एशिया और अरब की तुलना में अधिक काले हैं और ईरान तथा दूसरे एशियाई देशों के लोग यूरोप के लोगों से अधिक काले हैं इसलिए गोरेपन के अनुपात में श्रेष्ठता बढ़ती चली जाती है। किताबों के मामले में उसे न तो संस्कृत का ज्ञान था, भारत की किसी भाषा का, न ही कभी भारत आने का उसे अवसर मिला था और जो भी सूचनाएं उसके पास थीं वे ईसाई मिशनरियों के माध्यम से प्राप्त हुई थीं जिनकी नजर में ईसाइयों को छोड़कर दूसरे सभी बर्बरता या जहालत की स्थिति में हैं जहां से उनका उद्धार करना है इसलिए उनके माध्यम से किसी का ज्ञान कितना बढ़ सकता है और कितना विकृत हो सकता है इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। यूरोप की तुलना में मुसलमान जो अपने को भारत से बाहर के देशों से आया मानते थे भारतीयों की तुलना में सभी दृष्टि से श्रेष्ठ सिद्ध होते ही थे। जड़ता के अनंत रूप है जैसे जड़ों के होते हैं। मिल के विषय में मैक्समुलर की टिप्पणी ध्यान देने योग्य हैः
Mill in his estimate of the Hindu character is chiefly guided by Dubois, a French missionary, and by Orme and Buchanan, Tennant, and Ward, all of them neither very competent nor very unprejudiced judges. Mill, however, picks out all that is most unfavorable from their works, and omits the qualifications which even these writers felt bound to give to their wholesale condemnation of the Hindus.
और इसलिएः
The book which I consider most mischievous, nay, which I hold responsible for some of the greatest misfortunes that have happened to India, is Mill’s “History of British India,” even with the antidote against its poison, which is supplied by Professor Wilson’s notes.
और इसी मिल को प्रमाण मानकर इन्होंने अपना इतिहास लिखा, लिखवाया और जिस तरह की मूर्खताओं का साहस मिल तक नहीं जुटा सकता था उनसे प्राचीन इतिहास को भर दिया।