यह शमा तुमसे न संभलेगी
हमारी है यह।
धुंआ धुंआ तुम्हें देगा
चिराग मेरा है।।
ये पंक्तियां मेरी जहन में एकाएक तब उभरीं जब मेरे मन में उर्दू भाषा की नियति पर अफसोस हो रहा था। यह खयाल आया कि अहंकारवश इसके संरक्षक होने का दावा करने वालों ने इसे दुरूह और तलफ्फुज को मजहबी पवित्रता तक पहुंचा कर इसके नाम पर देश बांटा फिर भी उसे उसके लिए बने देश की भाषा नहीं बना सके, उसमें इसके बोलने वालों की तुलना में चारगुना लोग उस देश में बोलते है जिसमें तब वे इसे सुरक्षित नहीं मान रहे थे। इसे जन भाषा से मजहबी भाषा बनाते हुए, उनसे भी काट कर अशराफ की भाषा बनाते हुए इसकी हत्या की गई जब कि इसे आज वे हिन्दू जिलाए हुए हें जिनके उर्दू लेखकों और कवियों का तक का यह कह कर मजाक उड़ाते रहे कि वह हिंदू है, वह क्या जाने उर्दू क्या है, जिसकी तल्खी हंसराज रहबर ने झेली थी, या फिराक ने जिनको हिन्दू होने के कारण वह महत्व नहीं दिया जिसके वह हकदार थे। यह पछतावा कैसे अपने आप शेर में ढल गया यह मेरे लिए भी विस्मय की बात है।