#सर_सैयदः #भेद_नीति-8
संभव है यह मेरा भ्रम हो कि जिन दिनों दिल्ली दरबार के शायर भाषा को ऐसी बनाना चाहते थे जिसे एक कहे तो दूसरा समझ ले, अर्थात् भाषा ऐसी हो जिसे अधिक से अधिक लोग समझ सकें, उन्हीं दिनों ऐसे प्रयोग भी हो रहे थे कि या तो लिखने वाला अपने लिखे को स्वयं समझे या कोई कोई समझ ही न सके, क्योंकि निश्चयात्मक ढंग से ऐसा दावा करने के लिए जैसे निर्णायक प्रमाण होने चाहिए वैसे मेरे पास नहीं हैं, यद्यपि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का अभाव भी नहीं है। ।
इस दूसरी कोटि में वे लोग आते थे जिन पर कंपनी की भाषा विषय भेद-नीति का प्रभाव किसी न किसी रूप में पड़ा था। कंपनी की भाषा नीति क्या थी इसे समझ पाना आसान नहीं है। कारण यह दोधारी थी। एक अपनी जरूरत के लिए, दूसरी दुराग्रह और कलह पैदा करने के लिए। एक ओर तो वह आग्रह करके शुद्ध हिंदी के पाठ तैयार करा रही थी, जिनमें, हिंदी छुट दूसरी जबान का पुट नहीं होना चाहिए था और इस शुद्धतावाद के परिणाम भी कम खतरनाक नहीं हो सकते थे। इस काम को जिन तीन सुयोग्य जनों को सौंपा गया था वे इस कसौटी पर अपने अपने ढंग से उस स्थिति में सही उतरे थे जब हम सदल मिश्र की संस्कृतगर्भित भाषा को हिंदवी मान लें। पर हिंदवी छोड़ किसी दूसरी बोली का पुट न आने देने का आश्वासन देने वाले इंशाल्लाह को ऐसा क्या हो गया जो यह कहने लगे कि उनको हिंदुओं से जबान नहीं सीखनी है। उन्हें खाने, पहनने, बोलने, के सलीके हमने सिखाए हैं फिर उनसे भाषा कैसे सीख सकते हैं। “Their (Hindu’s) word or act cannot therefore be authoritative” (Insha• 1808:15).पूर्वोद्धृत.
उनकी इस टिप्पणी में “प्राधिकारिक” का प्रयोग ध्यान देने योग्य है, जो बिना नाम लिए दिल्ली दरबार के उर्दू को बहुजनग्राह्य बनाने के लिए बोलचाल की भाषा के निकट रखने के जौक जैसे शायरों के प्रस्ताव और लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के देसी रागों, रागिनियों के पुट के साथ रचे गए नाटकों की भी भर्त्सना थी और दिल्ली और अवध पर अपनी नजर गड़ाए कंपनी के मुसलमानों को जो, बादशाहत कर चुके थे, अपना आनबान कायम रखने के लिए अरबी-फारसी-गर्भित भाषा का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। यह बात मुखर रूप में तो सिरफिरे मिजाज के जाॅन बीम्स द्वारा काफी बाद में कही गई परन्तु यह कंपनी की पहले से चली आरही कूटनीति का हिस्सा थी। सिद्धान्त रूप में वह भाषा को बोलचाल के अनुरूप रखने के पक्ष में थे।
यहां हम कुछ रुक कर यह बता दें कि जॉन बीम्स काल्डवेल के A Comparative Grammar of the Dravidian or South Indian Family of Languages की प्रतिस्पर्धा में वैसा ही A Comparative Grammar of the Modern Aryan or North Indian Family of Langages ग्रंथ तीन खंडों में लिखा था जिसका महत्व इतना ही है कि उसके बारे में सामान्यतः कोई नहीं जानता और उसे पढ़ते हुए मेरी समझ मे न आया कि उनके सामने एक कालजयी कृति थी, उससे नाम के अतिरिक्त उन्होने कोई शिक्षा क्यों ग्रहण न की। जो भी हो उस ग्रंथ में बांग्ला भाषा पर विचार करते हुए उसको इस आधार पर अविकसित भाषा कहा था कि इसमें तत्सम संस्कृत शब्दावली का बाहुल्य है और इसी आधार पर हिन्दी (हिंदुस्तानी) को उससे श्रेष्ठ बताया था कि इसमें उनको अपनी प्रकृति के अनुसार ढाल लिया जाता है, परन्तु हिंदुस्तानी के आदर्श रूप में आईने अकबरी की भाषा या फारसी-अरबी बोझिल भाषा का समर्थन करते थे क्योंकि अरबी फारसी के शब्द उन मुसलमानों को भी पसंद आते हैं जो निरक्षर हैं और वही बोली बोलते हैं जिसे हिंदू। इस तरह की मूर्खतापूर्ण बात उन जैसा कोई व्यक्ति ही कह सकता था, क्योंकि वह नस्लवादी थे और इसे छिपाने तक की जरूरत अनुभव नहीं करते थे। उन्होंने इस रुतबे के लिए लंबी जंग छेड़ी थी कि समपदस्थ भारतीयों का वेतन अंग्रेजों से कम होना चाहिए और इसे उचित ठहराने के लिए दलीलें दी थीं। एक मीटिंग जिसमें एक हिन्दुस्तानी आईसीएस को शामिल होना था उसमें उन्होंने चेयरमैन से आग्रह किया था कि उस अफसर को मीटिंग के दौरान खड़े रहने को कहा जाए। चेयरमैन ने उनसे मीटिंग से बाहर चले जाने को कहा। उस हिंदुस्तानी अफसर ने भाग लिया और बीम्स बाहर निकल कर उसे अपने समक्ष कुर्सी पर बैठा देखने की पीड़ा से बच गए।
जान बीम्स का यह खाका इसलिए पेश करना जरूरी समझा कि इससे आप को इंशांअल्ला खां और सर सैयद अहमद की मानसिकता को समझने में मदद मिलेगी। उनकी तकरीरों की भाषा हो या किताबों, लेखों के शीर्षक उनकी भाषा पर ध्यान दें तो वह ठीक उसी भाषा के हिमायती थे जिसे बीम्स ने आदर्श माना था। यदि हिंदी और हिंदुओं के बारे में जो टिप्पणियां की हैं उन पर ध्यान दें, इनमें उन टिप्पणियों को भी शामिल कर लें जो मेल-मिलाप की चाशनी में पगे हैं, सभी मे संरक्षक वाला तेवर और हिकारत वाला भाव उनकी सावधानी के बाद भी उभर आएगा।
इसका यह मतलब नहीं कि उन्होंने इसे बीम्स से सीखा या बीम्स ने उनसे सीखा। यह उनकी चेतना में गहरे उतरा था और अंग्रेज कूटनीतिज्ञों ने इसे पहचाना, पैना किया, उनके समर्थन को उन्होंने अपनी ताकत मानते हुए अपनी अकड़ को और बढ़ाया।
परन्तु वह जिस भाषा का समर्थन कर रहे थे वह, जैसा कि इंशा अल्लाह खान ने अपनी हेकड़ी के कारण स्वीकार किया था, इस देश की भाषा थी ही नहीं थी। वह दिल्ली और लखनऊ के चंद शरीफ मुसलमानों के घरों की ज़बान थी, जिसे वे भी अपने घर में बोल सकते थे, बाहर नहीं। बाहर कदम रखते ही उन्हीं गंवारों से पाला पड़ता था जिनकी भाषा से उन्होंने अपनी जबान को बचा रखा था, इसलिए वे बाहर निकलते ही नहीं थे, हाट-बाजार का सारा काम काज उनके नौकर-चाकर करते थे जिनसे भी बात करते हुए वे शब्दों से कम, इशारों से ही अधिक काम लेते थे। शब्दों का प्रयोग वे उन्हे गालियां देने और फटकारने के लिए करते थे। इस मामले में सैयद अहमद भी कंजूस न थे, Sir Syed advised the British to appoint Muslims to assist in administration, to prevent what he called ‘haramzadgi’ (a vulgar deed) such as the mutiny.
उनकी अपनी गति अपने जैसों की महफिलों तक थी जिनमें उनके कलाप्रेम और कला की समझ के कारण नाचने-गानेवालियों की महफिलें भी आ जाती थीं। हंटर कमीशन के सामने हिंदी पर उनकी अभद्र टिप्पणी से तिलमिला कर बाबू हरिश्चन्द्र ने जो कुछ कहा, वह कहा तो प्रतिक्रिया में था, परन्तु दुर्भाग्य से वह अक्षरशः सच था। मुस्लिम तहजीब, मुसलमानी भाषा और लिपि, जीवनदृष्टि सभी की मुश्किल यह है कि यह अपने समाज और जमीन से कटकर रहने और किताब से निकलकर किताब में बंद हो जाने को गौरव का विषय मानने की इतनी पक्की आदत डाल चुकी है कि इससे सहज संपर्क केवल उनका सध सकता है जो किताब को जमीन और समाज मान कर उस जैसे बन जाएं। यथासंहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । ऐसी दशा में यह अहंकार पालना संभव हो सकता था कि Special attention was paid to our speech. I lived in the Deccan for twenty years without adopting a single local pronunciation, and continued to speak pure Urdu (Maudoodi, Khud Niwisht1932:13, तारिक,12 ) उसने स्वयं को अपने ही देश, समाज और परिवेश से निर्वासित कर रखा है। पहले मृत्युदंड के बाद सबसे कठोर दंड निर्वासन ही माना जाता था। अपने को दंडित करने का यह तरीका शायद इसलिए कुछ को उतना डरावना नहीं लगता कि आज दुनिया बहुत बड़ी हो गई है पर इस बड़ी दुनिया मे भी पांव रखने के लिए कोई तो जगह ऐसी होनी जाहिए जिसे पूरे विश्वास से अपनी कहा जा सके। वह प्रकृति, परिवेश और देश से जुड़ाव के बिना संभव नहीं।