भेद नीति -7
जब तक अन्याय है, तब तक उससे पिसने वाले भी रहेंगे और उससे विद्रोह करने वाले भी रहेंगे। लंबे समय तक अन्यायपूर्ण, पर सह्य, विचारों या व्यवहारों के चलन में रहने और उनका विरोध न होने पर हमें यह भ्रम हो जाता है कि सब कुछ ठीक है और उस अन्याय से किसी रूप में लाभान्वित लोग इसे अपना वैध अधिकार मान लेते हैं और इन्हे आपत्तिजनक कहने वालों को अपराधी या उपद्रवी समझते हैं।
क्या आपने कभी यह सोचा है की इतिहास का अर्थ ही है अन्याय गाथा। ऐसी सभी घटनाएं जिनको इतिहास में दर्ज करने के योग्य माना जाता है या जिनसे भारी बदलाव आता है, बलप्रयोग और अनैतिक या आपराधिक तरीकों का परिणाम होती हैं और इसमे सकल मानव ऊर्जा और मनुष्य के लिए उपयोगी संपदा और साधनों का विनाश होता है। यदि उसे ही मानव कल्याण में लगाया जा सके तो पूरी मानवता को अकल्पित ऊंचाइयों तक पहुंचाया जा सकता है। परन्तु क्या समाज में उस दशा में वह सक्रियता, सर्जनात्मकता और प्रतिस्पर्धा पैदा की जा सकती है जिसकी आवश्यकता उन्नति के सोपानों के लिए होती है? यदि ऐसा होता तो आदिम जनों का जीवन स्तर सभ्य जगत से कहीं अधिक ऊंचा होता।
फिर भी समय समय पर यह दावा किया जाता है कि हम उस आदर्श व्यवस्था काे हासिल कर चुके है जिसमें आगे किसी बड़े बदलाव की जरूरत नहीं है। ऐसा दावा करने वाले यह दावा भी करते हैं कि इतिहास का अंत हो गया। दूसरों को इसे अपनाना चाहिए और जिन्होंने अपना लिया है, उन्हें इसकी मर्यादाओं का निर्वाह करना चाहिए।
सनातन का भी अर्थ है इतिहास का अंत। उन्होंने मानव मूल्यों को सभी के लिए पालनीय बनाते हुए और अपने को भी युगधर्म के अनुसार बदलते हुए, वर्णाश्रम की स्थापित आदर्श व्यवस्था को सभी के हित में बताते हुए, यह विश्वास पैदा करने का प्रयत्न किया कि राज्य इसके विधानों का उल्लंघन करने वालों को दंडित करे। समाज इसका पालन करता रहा, राज्य ने इसकी पूरी तरह अवज्ञा नहीं की, पर कभी पूरी तरह पालन भी नहीं किया अन्यथा प्रत्येक युग में इससे भिन्न और कभी कभी विरोधी मत और उनके अनुयायी न बने रहते।
इससे हमारे सामने दो चुनौतियां आती हैं। पहली कि हम न्याय या औचित्य की अवज्ञा करने वालों को गर्हित मानने की जगह यह समझने का प्रयत्न करें कि उनके विचार और आग्रह का कारण क्या है क्योंकि पहली नजर में कोई कार्य दुष्टता प्रतीत होते हुए भी किसी विवशता या भावातिरेक से जुड़ा हो सकता है, यहां तक कि किसी अन्याय के विरोध का एक रूप तक हो सकता है। दूसरी यह कि हम अन्याय का सफलता पर्यन्त विरोध करें और दूसरों को यह समझाने का प्रयत्न करें कि वह अन्याय है।
इसका संबंध विचार, कार्य और व्यवहार के सभी रूपों से है और हम भाषा और लिपि पर विचार कर रहे हैं और जिसमें अन्याय और अपराध की सीमा तक पहुंचे हथकंडों तक को हमें सहन करना ही नहीं होता, उनके साथ तालमेल बैठाने की बाध्यता ही नहीं पैदा होती, अपितु अन्याय से बचने के लिए अन्यायियों से हितबद्ध हो कर उनकी गुलामी करते हुए, न्याय की मांग करने वालों का विरोध तक करने की स्थिति पैदा हो जाती है जिसके हम आज शिकार हैं। केवल भारत ही नहीं, पाकिस्तान और बांग्लादेश भी इसी दुर्भाग्य के शिकार हैं। इसका व्यंग्य यह कि ये दोनों देश भाषा और लिपि के प्रश्न पर ही अलग हुए थे।
सब से बड़ा सवाल उस भूभाग की जो पहले हिन्द्स्तान के नाम से जाना जाता था और अपने दुर्भाग्य से उपमहाद्वीप कहा जाने लगा, कोई ऐसी भाषा हो सकती है जो अंग्रेजी का स्थान ले सके ? इसका उत्तर आधे अधूरे रूप में हमें ज्ञात है. परन्तु उसका नाम लेते ही हम अंग्रेजी से हितबद्ध लोगों और इस भाषा की प्रचार शक्ति के कारण, संकीर्ण सोच वाले ठहरा दिए जाएंगे इसलिए इसके लिए संघर्ष करने की तो बात ही अलग, समर्थन करने, यहां तक कि इसे एक विचारणीय विषय मानने तक से कतराते हैं।
निश्चय ही हम हिंदी की बात कर रहे हैं, परन्तु हम कुछ ऐसे सवाल उठाना चाहते हैं जिन्हें उस कोण से उठाया नहीं जाता जिससे उठाना हम जरूरी मानते हैं।
जब हिंदी या हिंदुस्तानी की बात आती है तो अक्सर भूदेव मुखर्जी, केशव चन्द्र सेन आदि का नाम ले लिया जाता है, पर यह ध्यान नहीं रखा जाता कि उनके सामने स्वतंत्र भारत की कोई परिकल्पना न थी। वे जिस समय ये विचार प्रकट कर रहे थे उस समय तक कांग्रेस की स्थापना तक नहीं हुई थी। इसका दूसरा पक्ष यह कि वे अंग्रेजी शिक्षा के विरोधी नहीं, समर्थक थे। अर्थात् उनकी दृष्टि में अंग्रेजी शिक्षा का हिन्दी से विरोध नहीं था। वे स्वतंत्र भारत में नहीं, ब्रिटिश भारत में हिंदी में अखिल भारतीय स्तर पर, जिसमें बंगाल भी आता था, शिक्षा की भाषा को हिंदी या हिंदुस्तानी बनाने का समर्थन कर रहे थे। अदालतों का काम हिंदुस्तानी में हो, इसकी मांग कर रहे थे, परन्तु क्यो? बंगाली की कीमत पर भी हिन्दी क्यो?
इसका एक पक्ष फारसी शिक्षा और और फारसी में अदालती काम बंद करने से जुड़ा था, जिसमें यह मांग की जा रही थी कि बंगाल में या तो बांग्ला या अंग्रेजी, पर फारसी किसी कीमत पर नहीं। यह हमारी भाषा नहीं है, हम पर, हमारी इच्छा के विपरीत लादी हुई भाषा है। दूसरा अखिल भारतीय सेवाओं मे सर्वोपयुक्त लोकग्राह्य भाषा से था जिसमें पहुंचने की संभावना पैदा हो घई थी।
परन्तु इस बात को ताे याद ही नहीं किया जाता कि यह विचार उनसे भी पहले उन अंग्रेजों के मन में उठा था जो भारतीयों को सत्ता जाने के डर से अंग्रेजी सिखाने के पक्ष में नहीं थे और स्वयं भारतीय भाषा सीख कर शासन करने की दूरदृष्टि रखते थे। वे कितनी भाषाएं सीखते ? जाहिर है वे पूरे हिन्दुस्तान की कोई एक भाषा ही हो सकती थी। यह थी हिन्दुस्तानी। इसीलिए वे हिन्दुस्तानी का कोई ऐसा रूप स्थिर करने के प्रयोग करने को तैयार हुए थे जिसके पीछे राजनीति और आवश्यकता का योग था और लल्लूजी लाल, सदल मिश्र तथा इंशां अल्ला खां की उस भाषा की बानगी आई थी जिसमें इंशां अल्ला की ’हिंदवी छुट किसी दूसरी भाषा का पुट नहीं’ वाली भाषा भी थी।
कंपनी के इसी प्रयोग से असहमति जताते हुए फ्रांसिस ह्वाइट एलिस ने जो मद्रास में कलक्टर था और अपनी सारी उम्र तेलुगु क्षेत्र में एक छोटी सी अवधि छोड़कर मद्रास में ही बिताया था, यह प्रस्ताव रखा था कि हिन्दुस्तानी से दक्षिण भारत में काम करना संभव न होगा, कलकत्ता के फोर्ट विलियम कालेज की ही तर्ज पर मद्रास के सेंट जार्ज कालेज की स्थापना कराने मे सफल हुआ था।
हममें से अधिकांश लोग द्रविड़ भाषा परिवार के जनक के रूप में काल्डवेल का ही नाम जानते है, परन्तु एक अलग भाषा परिवार के रूप में दक्षिण भारत की भाषाओं को रखने का काम एलिस ने The Dravidian Proof मेंकिया था। {The first to break ground in the field was Mr Ellis, a Madras civilian, who was profoundly versed in the Tamil language and literature… Though I had lost the satisfaction of supposing myself to be the discoverer of a new field, yet it now appeared to be certain that the greater part of the field lay not only uncolonised but unexplored. (Caldwell, 1856, iv, in T.R.Trautmann, Languages and Nations, Yoda Press, 2006, p.74-75)}.
सभी हिन्दी निरपेक्ष जनों की विचार दृष्टि में हिन्दी भारत के स्वतंत्र होने से बहुत पहले से एकमात्र स्वाभाविक भाषा थी।