Post – 2018-10-13

#भेदनीति के प्रयोग (1)

हम इस लेख माला में विलियम विल्सन हंटर को उद्धृत करते आए हैं। आगे भी करेंगे। वह 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश कूटविदों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। बंगाल मे हिन्दू मुसलिम जनसंख्या का क्या अनुपात है इसकी जानकारी भी सैयद अहमद ने उनसे ही जुटाई थी The greater part of the peasant population throughout Eastern Bengal is Muhammadan.

वह कंपनी के प्रशासनिक पद पर नियुक्त थे और यह जानते थे कि किसी भी समाज के दिमाग को बदलने के लिए शिक्षा पद्धति पर अधिकार करना जरूरी है। उसी के माध्यम से व्यक्ति या समाज का स्वस्थ और संतुलित विकास भी किया जा सकता है और उसकी बुद्धि भ्रष्ट भी की जा सकती है, पागल या अपराधी भी बनाया जा सकता है, स्वतंत्रता के लिए प्राण उत्सर्ग करने की भावना भी भरी जा सकती है और अपना गुलाम या औजार भी बनाया जा सकता है, इसलिए उन्होंने सबसे अधिक जोर शिक्षा पर दिया। आधे दर्जन पुस्तकें लिखीं, आगे चलकर शिक्षा पर गठित आयोग के अध्यक्ष रहे और इंपीरियल गजैटियर ऑफ इंडिया तैयार और प्रकाशित करने की योजना भी उन्होंने लार्ड मेयो के सुझाव पर बनाई। यहां तक की इंपीरियल गजेटियर के पहले खंड का काफी हिस्सा उन्होंने स्वयं लिखा। उनकी सबसे विवादास्पद पुस्तक भारतीय मुसलमान है, इसलिए यह संभव नहीं कि इतिहास में रुचि रखने वाले किसी मुस्लिम विद्वान ने उनकी यह पुस्तक न पढ़ी हो।

राष्ट्रीय एकता की आड़ में शिक्षा और शिक्षकों के प्रशिक्षण पर एकाधिकार कायम करते हुए हिंदू समाज, इतीहास, और मूल्यप्रणाली को गर्हित सिद्ध करते हुए उसकी मानसिकता को कुचलने और इस तरह उस पर अल्पमत में होते हए भी हावी होने की योजना यदि प्रो. नूरुल हसन ने उसकी प्रेरणा से तैयार की हो तो मुझे आश्चर्य न होगा। परंतु हम उस पर आगे चलकर बात करेंगे। यह अवश्य है कि अपने विचार केंद्र में उसकी संभावना को रखते हुए अपना आगे का पाठ पढ़ना अधिक उपयोगी होगा।
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हंटर की विश्वसनीयता वहां पर संदिग्ध है जहां वह सामाजिक वैमनस्य पैदा करने के लिए तोड़ मरोड़ करते हैं, जैसे यह कि मुसलमान इसलिए अशिक्षित रह गए हैं कि वे हिंदुओं से घृणा करते हैे इसलिए उनके साथ बैठ कर पढ़ नहीं सकते, जब कि वही, उसी पुस्तक में, अन्यत्र लिखते हैं कि उनकी शिक्षा में रुचि ही नहीं है और फिर उन्ही हिन्दू स्कूलों में उनकी धार्मिक शिक्षा के लिए अलग से एक मौलवी की नियुक्ति का प्रस्ताव भी करते हैं । इसलिए उन्हें पढ़ते हुए हमें उनके वाक्यों के पीछे के इरादों पर भी ध्यान देना होता है, दूसरे स्थलों पर उसी विषय में जो कुछ लिखा गया है उसका भी स्मरण करना होता है और पंक्तियों के बीच की छूटी जगह के अलिखित का भी अनुमान करना होता है। परंतु तथ्यों के मामले में उनसे अधिक भरोसे का और किसी विषय में उन जैसी गहरी पैठ रखने वाला उस काल का दूसरा कोई व्यक्ति मेरी नजर में नहीं आता।

सर सैयद ने उसकी पुस्तक दि इंडियन मुसलमान पर टिप्पणी करते हुए हंटर के हंटर शीर्षक से आलोचनात्मक निबंध लिखा था फिर भी हंटर ने ही सर सैयद अहमद खान को सबसे अधिक प्रभावित किया था। यह विचित्र विरोधाभास है कि मैं स्वयं प्रस्तुति के मामले मे उनको अविश्वसनीय मानते हुए भी आंकड़ों के मामले में उन पर काफी दूर तक भरोसा करता हूं, पर इस पर भी नजर रखता हूं कि उन्होंने क्या छोड़ दिया है या गलत संदर्भ में दिया है।

कलकत्ता में मुहम्मडन कालेज खोल कर वारेन हेस्टिंग्स द्वारा किया गया पहला प्रयोग सफल नहीं हुआ, हंटर ने इसका विस्तार से वर्णन किया है। हम उतने विस्तार में नहीं जा सकते, परन्तु इस समस्या को समझने के लिए कुछ पंक्तियों को रखते हुए यह दिखाना चाहेंगे कि मदरसों की शिक्षा पद्धति क्या है क्योंकि यह आज भी हमारी समस्याओ मे से एक है। यह मुस्लिम चेतना के रूप, और अंग्रेजों की कूटनीतिक विफलता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है, जिससे वे भीतर से काफी घबराए हुए थे और ऐसे में सैयद अहमद का हाथ आ जाना उनके लिए कितनी अप्रत्याशित उपलब्धि थीः
…the actual time of teaching seldom exceeded two and a half hours. Anything like preparation at home is unknown, and indeed is opposed to Muhammadan ideas. Each master reads out an Arabic sentence, and explains the meanings of the first, second, and third word, and so on till he comes to the end of it. … Such a teaching, it may well be supposed, produces an intolerant contempt for anything which they have not learned. The very nothingness of their acquirements makes them more conceited. They know as an absolute truth that the Arabic grammar, law, rhetoric, and logic, comprise all that is worth knowing upon earth. They have learned that the most extensive kingdoms in the world are, first Arabia, then England, France, and Russia, and that the largest town, next to Mecca, Medina, and Cairo, is London. Au reste, the English are Infidels, and will find themselves in a very hot place in the next world. To this vast accumulation of wisdom what more could be added? When a late Principal tried to introduce profane science, even through the medium of their own Urdu, were they not amply justified in pelting him with brickbats and rotten mangoes? p. 124 (Au reste – इसके अलावा)

फोर्ट विलियम कॉलेज का दूसरा प्रयोग कुछ रंग लाया, यह तो हम इंशा अल्लाह खान के कथन में देख ही आए हैं पर क्या फारसी के प्रति आकस्मिक प्रेम की पृष्ठभूमि में जो माहौल तैयार किया जा रहा था, उसी का प्रभाव ग़ालिब की भाषा पर भी पड़ा था, जो अपनी कविता को फारसी के मुकाबले रखने की कोशिश कर रहे थे? हमें प्रभाव के त्रिकोण का स्पष्ट पता नहीं है, परंतु. गालिब (1796-1868) ने दस्तंबू में लिखा है, “मैं बचपन से ही अंग्रेज़ों का नमक खाता चला आ रहा हूं. दूसरे शब्दों में कहना चाहिए कि जिस दिन से मेरे दांत निकले हैं, तब से आज तक इन विश्वविजेताओं ने ही मेरे मुंह तक रोटी पहुंचाई है”। वास्तव में छोटी वय में पिता के निधन के कारण कंपनी की सेवा से रहे चाचा की पेंसन के सहारे ही उनका पालन हुआ था और संभव है चाचा के माध्यम से उन पर फारसी की महिमा का ऐसा असर पड़ा हो सकता है जिससे छोटी आयु से ही वह फारसी में शेर कहने लगे थे।…बहादुरशाह जफर से संपर्क के विषय में वे लिखते हैं- “मैं हफ्ते में दो बार बादशाह के महल में जाता था और अगर उसकी इच्छा होती, तो कुछ समय वहां बैठता था, अन्यथा बादशाह के व्यस्त होने की वजह से थोड़ी देर में ही दीवान-ए-ख़ास से उठकर अपने घर की ओर चल देता था। इस बीच जांची हुई रचनाओं को या तो ख़ुद वहां पहुंचा देता या बादशाह के दूतों को दे देता था, ताकि वे बादशाह तक पहुंचा दें। बस, मेरा इतना ही काम था और दरबार से मेरा इतना ही नाता था. हालांकि यह छोटा-सा सम्मान, मानसिक और शारीरिक दृष्टि से आरामदायक और दरबारी झगड़ों से दूर था, लेकिन आर्थिक दृष्टि से सुखद नहीं था. उस पर भी ग्रहों का चक्कर मेरे इस छोटे-से सम्मान को मिट्टी में मिला देने पर तुला हुआ था।”.

जब दिल्ली में क़त्लेआम हो रहा था, तब ग़ालिब अपने घर में बंद थे। वह लिखते हैं- “ऐसे वातावरण में मुझे कोई भय नहीं था। ऐसे में मैंने ख़ुद से कहा कि मैं क्यों किसी से भयभीत रहूं, मैंने तो कोई पाप किया नहीं है, इसलिए मैं सज़ा का पात्र नहीं हूं। न तो अंग्रेज़ बेगुनाह को मारते हैं, और न ही नगर की हवा मेरे प्रतिकूल है. मुझे क्या पड़ी है कि ख़ुद को हलकान करूं। मैं एक कोने में, अपने घर में ही बैठा अपनी क़लम से बातें करूं और क़लम की नोक से आंसू बहाऊं. यही मेरे लिए अच्छा है.” (चौथी दुनिया में दस्तंबू की समीक्षा से, )

टकराव पैदा करने की दृष्टि से इंशा अल्लाह खान और उन जैसों के प्रयोग भले ही सफल हुए हों परंतु भाषा के मामले में जनता फैसता करती है, राजनीतिज्ञ या सरकार केवल अड़ंगा पैदा कर सकते हैं और सरकारी कामकाज की भाषा तय कर सकते है। इंशा अल्लाह ने उसके बाद या पहले कुछ भी ऐसा नहीं लिखा जिसके लिए वह याद किए जाते हैं। उनकी याद रानी केतकी की कहानी से ही जुड़ी हुई है। गालिब को फारसी से मुकाबला करने का मोह छोड़ना पड़ा, और अपनी भाषा को लोकसम्मत बनाना पड़ा । वह उन्हीं गजलों और शेरों के लिए सबसे अधिक विख्यात है जो सबकी समझ में आते हैं। भाषा की दृष्टि से आज भी उर्दू के सभी पुराने कवियों में दाग आदर्श माने जा सकते हैं।

जिस आधार पर देश का बंटवारा हुआ या कम से कम बंटवारे के कारणों में से एक उसको भी रखा गया वह उर्दू पाकिस्तान के विघटन का कारण बनी और पाकिस्तान में आज भी बहुत कम लोगों द्वारा बोली जाती है।
The Langauges of Pakistan, is given by percentages of speakers (from the 1981 Census), are as follows : Punjabi (48.2 percent ) Pashto (13.2 percent ), Sindhi (11.8 percent), Siraiki ( 9.5percent), Urdu (7.6 percent), Baloch (3 percent ), Hidko (2.4 percent), Brahvi (1.2percent) and others (Khowar, Gujarati, Shina, Balti, Kohistani, Wakhi, etc. (2.8).

तारिक रहमान के शब्दों में
The Urdu proto-elite kept up its pro-Urdu movement, in demanding that sign boards should be in Urdu (Pakistan Times 21 Feb. 1961), that proceedings of the meetings be in Urdu (Abdullah 1976) and that people should be motivated to demand its use in the administration, judiciary and education – i.e. domain of power. तारिक रहमान, पूर्व, पृ. 88