Post – 2018-10-12

#राजनीति_का_ब्रह्मास्त्र और #भारतीय_मुसलमान

शक्ति प्रयोग के चार भेदों में सबसे कम हानिप्रद और दोनों पक्षों के लिए कल्याणकारी रूप समझा-बुझा कर सही रास्ते पर लाने, या अपने अनुकूल करने का है। इसे साम कहा गया है जिसमें बौद्धिक विमर्श से दूसरे पक्ष को हित-अहित, बलाबल का ज्ञान कराते हुए इष्टसिद्धि सम्मिलित है।*
{nb. *उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति आज दुनिया के सभी देशों के वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों को यह समझाने में समर्थ सके परमाणु बम का या किसी भी परमाणु आयुध का प्रयोग न तो पर्यावरण के लिए ठीक है, न ही मानवता के लिए, न ही विज्ञान के सही दिशा में विकास के लिए तो इससे किसी एक का हानि-लाभ नहीं होगा, अपितु समस्त मानवता का कल्याण होगा। बुद्ध ने इसे उभय-कल्याण और सर्वहिताय कहा था। पर्यावरण के साथ, रेडक्रास के साथ, दूतावासों आदि के अनेक दूसरे मामलों में इसी तरह की सहमति है। अपने उग्र रूप में जब साम चेतावनी धमकी का रूप ले लेता है तब भी यह सबसे निरापद बना रहता है। हाल के दिनों में कोरिया की उग्रता और उससे चिंतित अमेरिका के बीच में यही खेल चल रहा है।}

इसके बाद दाम, अर्थात लाभ या प्रलोभन उत्पन्न करके किसी पक्ष को अपने अनुकूल बनाने का विकल्प आता है। इसके अनेकानेक रूप है जिसमें दूसरे देशों के विद्वानों, वैज्ञानिकों, प्रभावशाली व्यक्तियों को अधिक सम्मानजनक और लाभकर अवसर देकर अपने पक्ष में किया जाता है। जिस देश से उनका पलायन होता है उसमे तदनुरूप बौद्धिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दारिद्र्य पैदा होता हे। उसकी छवि भी इससे प्रभावित होती है कि उसमें विकास और प्रगति के अवसर तथा अपने योग्य व्यक्तियों का सम्मान नहीं रह गया है । यह शक्ति का पहले से किंचित निम्न स्तर का प्रयोग है। उसका अपमानजनक रूप हर्जाना या दंडराशि दे कर आसन्न पराजय को टालना या युद्ध से बचाव है, परंतु यह भी दो अन्य विकल्पों की तुलना में अधिक श्लाघ्य है।

दंड के विषय में किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। दुनिया के सभी देशों में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता रहा है। भारतीय राजविदों ने इसके भी तीन भेद किए थे – मृदु, तीक्ष्ण और तुल्य (यथोचित या यथार्ह)। इस तरह की सावधानी दंड के मामले में दूसरे देशों में भी बरती जाती थी या नहीं, इसके लिए जितने विशद अध्ययन की जरूरत है, वह मुझ में नहीं है, फिर भी अहंकारवश न्यूनतम अपराध पर भी कठोरतम दंड देने के उदाहरण दूसरी सभ्यताओं में अधिक पाए जाते हैं। बर्बरता की अवस्था में जीने वाले समाजों में तो केवल आतंक फैलाने के लिए निरपराध व्यक्तियों या समुदायों को अमानवीय दंड दिए जाते रहे हैं। अपने को सभ्य कहने वाले पश्चिमी देशों ने भी ऐसी ही बर्बरता का प्रदर्शन किया है, जिसे नाजियों के यातना शिविरों और यातना वधों में, अमेरिका द्वारा जापान दोबारा परमाणु बम का प्रयोग करने में और वियतनाम युद्ध आदि में तो देखा ही जा सकता है पूरी की पूरी मूल आबादी के घृणित विनाश के रूपों में भी पाया जा सकता है।

भेद नीति के प्रयोग का ज्ञान भारतीय राजविदों को बहुत प्राचीन काल से रहा है, परंतु इसका प्रयोग अन्य कोई विकल्प न रह जाने की स्थिति मे में ही किया जाता रहा है क्योंकि यह मनुष्य की आत्मा और बुद्धि दोनों को नष्ट कर देता है और उसी के द्वारा समाज को लगभग विक्षिप्त बना कर उनको अपने सर्वनाश की दिशा में अग्रसर करता है। इसलिए महाविनाशकारी आयुधों (ब्रह्मास्त्र) की तरह इसका प्रयोग विवशता की स्थिति में ही किया जाता रहा है।

भारतीय राजविदों ने कितने पहले से इन समस्याओं पर और चिंतन आरंभ किया था इसका सटीक निर्धारण कठिन है, परंतु तीसरी शताब्दी ईसापूर्व की कृति अर्थशास्त्र में कौटल्य से पहले के कम से कम आधे दर्जन अधिकारी राजविदों के नाम और विभिन्न प्रसंगों में उनके विचार और उनकी आलोचना भी आई है इसलिए इसका इतिहास बहुत पीछे जाता है।

हम देख सकते हैं कि साम दाम दंड भेद का यह क्रम बहुत सोच समझ कर रखा गया अपनी सूझबूझ से इना का प्रयोग भी अधिकांश शासकों द्वारा किया जाता रहा है यद्यपि इनके अपवाद भी मिलते हैं।

अंग्रेजों को पहली बार इन नीतियों का परिचय 18 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में मिला और तब से उन्होंने सबसे अधिक प्रयोग इसी का किया। इसका एक कारण तो यह कि राजनीति में भी धर्मदृष्टि का पालन सोभव है यह उनके लिए कल्पनातीत रहा है जो प्रेम और युद्ध में कमीनेपन को भी जायज मानते रहे हैं। यहां तो दूरी, संख्याबल और अपने अन्याय की असह्यता को देखते हुए, इसका परिचय मिलने के बाद यही उनको सबसे अधिक सुविधाजनक दिखाई दिया। आधुनिक काल में भेदनीति का प्रयोग वारेन हेस्टिंग्स के साथ आरंभ होता है, जिसने, एक ओर तो भारत का निर्ममतापूर्वक दोहन किया और दूसरी ओर सभी पक्षों का अध्ययन करने को प्रोत्साहन देते हुए भेदनीति की आधारभूमि तैयार की। यदि हमें कठोर दंड के दुष्परिणाम देखने हैं तो इसका उदाहरण भी वारेन हेस्टिंग्स में ही मिलोगाः
After a three years’ noviciate he started forth as a preacher, and by boldly attacking the abuses which have crept into the Muhammadan faith in India, obtained a zealous and turbulent following. The first scene of his labors lay among the descendants of the Rohillas,4 for whose extermination we had venally lent our troops fifty years before, and whose sad history forms, one of the ineffaceable blots on Warren Hastings’ career. Their posterity have during the past half century, taken an undying revenge, and still recruit the Rebel Colony on our Frontier with its bravest swordsmen. In the case of the Rohillas, as in many other instances where we have done wrong in India, we have reaped what we sowed. (Hunter, The Indian Musalaman, 1871)
और यदि मनुस्मृति से सीख लेकर भेद नीति की दिशा में योगदान करने की बात हो तो भी वारेन हेस्टिंग्स का ही नाम आएगा जिसने सबसे पहले मुहम्मडन कालेज की स्थापना करते हुए उनके मन में जगह बनाने की कोशिश कीः
During exactly ninety years, a costly Muhammadan College has been maintained in Calcutta at the State expense. It owes its origin, like most other of the English attempts to benefit the people, to Warren Hastings. In 1781 the Governor- General discerned the change which must inevitably come over the prospects of the Musalmans, and tried to prepare them for it. As the wealth of the great Muhammadan Houses decayed, their power of giving their sons an education which should fit them for the higher offices in the State declined pari passu. To restore the chances in their favour, Warren Hastings established a Muhammadan College in the Capital, and endowed it with certain rents towards its perpetual maintenance.’ (वही)
हम कह सकते हैं की भेदनीति का प्रयोग सर सैयद के साथ नहीं आरंभ हुआ, नही उनके प्रयत्न से आरंभ हुआ। इस दिशा में पहले से ही तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे थे जिससे अंग्रेज मुसलमानों से निकटता पैदा करके उनके आक्रोश को हिंदुओं की ओर मोड़ सकें और अपनी परेशानी, जिसका हवाला हम देते रहे हैं, कम कर सकें।

वारेन हेस्टिंग्स ने लगभग झुक कर उनकी अपनी शर्तों पर उनकी शिक्षा की व्यवस्था की थी इसलिए इसका प्रबंध भी मुसलमानों के हाथ में दे दिया था। उनका ज्ञान अरबी और फारसी तक सीमित था जिसके कारण उनसे संपर्क साधना भी कठिन था और रोजी-रोजगार देकर अपने अनुकूल बनाना भी संभव नहीं थाः
Unfortunately for the Musalmans, he left its management to the Musalmans themselves. Persian and Arabic remained the sole subjects of instruction, long after Persian and Arabic had ceased to be the bread-winners in official life. Abuses of a very grave character crept into, the College, and in 1819 it was found necessary to appoint an European Secretary. In 1826 a further effort was made to adapt the Institution to the altered necessities of the times; an English class was formed, but unhappily soon afterwards broken up. Three years afterwards, another and a more permanent effort was made, but with inadequate results. During the next quarter of a century, the Muhammadan College shared the fate of the Muhammadan community. It was allowed to drop out of sight; and when the Local Government made any sign on the subject, it was some expression of impatience at its continuing to exist at all.(वही)
मुसलमानों के साथ धार्मिक मनोबंध इतना प्रबल रहा है धर्मनिरपेक्ष ज्ञान की दिशा में उनकी कोई रुचि न थी। पुस्तकालय जलाने वाले पुस्तकों से प्रेम नहीं करते, उल्टे डरते हैं कि कहीं उससे टकरा कर उनका विश्वास कमजोर न पड़ जाए। यदि प्रेम करते हैं तो सिर्फ एक किताब से जिसमें श्रद्धा के लिए उसे पढ़ना या समझना जरूरी नहींः
It is impossible to exaggerate the evil which this neglect has done to the Muhammadan youth of Bengal. We must remember that, since we misappropriated the Hugh Endowment a generation ago, the Calcutta College is the one Institution where they can hope to obtain a high-class education. A body of young Musalmans, about a hundred in number, are gathered together in the heart of a licentious Oriental capital ; kept under bad influences for seven years, with no check upon their conduct, and no examples of honourable efficiency within their sphere; and finally sent back to their native villages without being qualified for any career in life. About eighty percent of them come from the fanatical Eastern Districts; the difficulty of getting any lucrative employment, without a knowledge of English, having driven away the youth of the more loyal parts of Bengal from the College. The students have passed their boyhood in an atmosphere of disaffection. These are the moneyed men among the Muhammadan community, and they deride their masters behind their backs with all the suppressed insolence of menials belonging to a subject race. The students are all above sixteen, some above twenty, and some, I am told, over thirty years of age. The butlers with whom they live not only acquire the religious merit of supporting them, but often marry their daughters, with a handsome dowry, to their guests. The latter come from the petty landholding class, who care nothing for English or for science, little for Persian, and a great deal for the technicalities of Arabic grammar and law. Hunter,121-22

एक दूसरा प्रयोग फोर्ट विलियम कॉलेज के माध्यम से किया गया इसमें प्राचीन और आधुनिक हिन्दुस्तानी भाषाओं के अध्यक्ष गिलक्रिस्ट थे। इसकी कार्यशैली के विषय में हमें कुछ ज्ञात हो या न हो परंतु हम इतना जानते हैं हिंदी और उर्दू दोनों की मानक शैली के जनक और रानी केतकी की कहानी के लेखक इंशा अल्लाह खां थे। यह नाम हम सभी को बहुत आत्मीय लगता है इसलिए यह सोचकर हैरानी होती है कि इंशाल्लाह खां ने बिना किसी जरूरत या उकसावे के यदि यह डींग मारी तो इसका कारण क्या था, अथवा इसके पीछे कौन था। पाकिस्तान के भाषाविज्ञानी तारिक रहमान ने स्वयं भी कुछ विस्मय के साथ उनके इस कथन को उद्धृत किया हैः
“It is not hidden from the sophisticated that the arts of conversation, cusine and sartorial elegance have been learned by the Hindus from the Muslims. Their (Hindu’s) word or act cannot therefore be authoritative” (Insha** 1808:15 – translation mine). Tariq Rahman : Language, Education and Culture, Oxford University Press, 1999, पृ. 9-10

{nb. **Insha Alla Khan, 1808, Daryaya-i-Latafat, Urdu translation, Brij Mohan Duttarya Kaifi, Anjuman Taraqi-i-Urdu, Aurangabad. This book of Insha was written in Persian and admired for its quality by Abdul Haq considered to be the father of Urdu (baba-e-Urdu) in the preface of the translation.}
हमें दिखाई दे या नहीं परंतु पर्दे के पीछे मुसलमानों के ब्रेनवाशिंग का काम आरंभ हो गया था।
इसलिए हम समझते हैं कि सर सैयद अहमद का निर्माण अंग्रेज कूटनीतिज्ञों ने किया था और उनका इस्तेमाल, जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, उन्होंने किया न कि सर सैयद ने उनका।