#सर_सैयद_अहमदः लाख परदा करें पर सच तो बयां होगा ही
मरे हुए लोग अपनी सफाई देने के लिए नहीं आ सकते, यह काम भी जीवित लोगों का ही है, और सबसे पहले उस व्यक्ति का है जो उनके काम और विचार का मूल्यांकन कर रहा है । इस बात का ध्यान उसे ही रखना है कि कहीं उत्साह में या असावधानी में वह विचारणीय व्यक्ति के प्रति कोई अन्याय न कर बैठे। इसका एक ही तरीका है – विचार करते समय हम अपनी ओर से कुछ जोड़ने, खींचने-तानने से बचें और जिन बातों के साक्ष्य हैं, केवल उनको ही केन्द्र में रखें, जिससे वास्तविकता सामने आ सके।
सर सैयद के लिए जातीय समस्या को समझने को दो प्रस्थान बिन्दु थे और वे दोनों थे वो निर्णायक युद्ध जिनके द्वारा अंग्रेजों को भारत पर अधिकार मिला था। हम इसके पीछे के इतिहास में न जाकर केवल इतना बताना चाहेंगे की नवाब के आदेशों का खुलेआम उल्लंघन करने के कारण सिराजुद्दौला ने उन पर हमला करके उन्हें कलकत्ते से भगा दिया था परंतु वे समुद्र में 40 दिन तक छिपे मद्रास ले सहायता की प्रताक्षा करते रहे। इस बीच उन्होंने जो चोर दरवाजे से किया उसका हम अनुमान ही लगा सकते हैं पर फिर उनके आक्रमण के बाद जो कुछ हुआ वह नीचे की पंक्तियों में हैः
The major part of the Nawab’s army, led by the traitors Mir Jafar and Rai Durlabh, took no part in the fighting. Only a small group of the Nawab’s soldiers led by Mir Madan and Mohan Lai fought bravely and well. The Nawab was forced to flee and was captured and put to death by Mir Jafar’s son Miran.
The battle of Plassey was followed, in the words of the Bengali poet Nabin Chandra Sen, by “a night of eternal gloom for India”. The English proclaimed Mir Jafar the Nawab of Bengal and set out to gather the reward. The Company was granted undisputed right to free trade in Bengal, Bihar and Orissa.
It also received the zamindari of the 24 Parganas near Calcutta. Mir Jafar paid a sum of Rs 17,700,000 as compensation for the attack on Calcutta to the Company and the traders of the city. In addition, he paid large sums as ‘gifts’ or bribes to the high officials of the Company.
Clive, for example, received over two million rupees, Watts over one million. Clive later estimated that the Company and its servants had collected more than 30 million rupees from the puppet Nawab. It was also understood that British merchants and officials would no longer be asked to pay any taxes on their private trade.
स्थानाभाव के कारण हम इसे पिछली कड़ी में नहीं दे सके थे परंतु इसका ध्यान दिलाना उसमें दी गई तीन स्थापनाओं की पुष्टि के लिए जरूरी थाः 1- अंग्रेज बहादुर नहीं कायर थे, आमने सामने की लड़ाई में किसी से नहीं जीते। लक्षमीबाई तक के किसी के पटा कर बारूद को पानी से गीला करा दिया था । 2. हिंदू मुसलमानों से अधिक भरोसे के सिद्ध हुए हैं और उन पर भरोसे का ही परिणाम था कि जितने समय में विश्वासघात के कारण सुल्तानों की पांच बार गद्दियां छिनी उतने समय तक मुगल अकेले सत्ता में बने रहे और सत्ता खोई तो औरंगजेब के उन पर विश्वास खोने के ही कारण। सिराजुद्दौला के साथ भी विश्वासघात मुसलमानों ने किया, प्राण गंवा कर भी साथ देने वाले हिंदू थे, गो विश्वासघातियों में अमीचंद भी था, अतः इसका सतही और इकहरा पाठ नहीं किया जा सकता। 3. अंग्रेजों के साथ जाने वाले को भी लूटने से वे बाज न आए और उसका जो अंत हुआ वह एक शिक्षा थी जिससे सर सैयद ने कुछ नहीं सीखा। 4- अंग्रेज अपनी कंपनी को भी धोखा दे कर निजी कमाई करते रहे, वे चरित्रगत रूप में अधिक गिरे हुए थे और उनका यह प्रचार गलत था कि भारतीयों के संपर्क के कारण वे भ्रष्ट हुए थे। भ्रष्टता और अपराध साधन की पवित्रता को महत्व न देने वाले सभी का चारित्रिक दोष है और इसलिए यह मध्यकाल में भी थे परन्तु साधन की पवित्रता को मुत्यव देने के ही कारण ये विकृतियां भारतीय समाज में मध्यकाल से पहले अल्पतम थी, अंग्रेजों के कारण यह पराकाष्ठा पर पहुंची और इनका हिंदुओं में भी विस्तार हुआ और आज की मुस्लिम वोट बैंक वाली राजनीति में यह अपने जघन्यतम रूप में दिखाई देती हैं।
दूसरा था 1857 का संग्राम। इसकी बहुत कामचलाऊ जानकारी ही मेरे पास है, पर इतना तय है कि यद्यपि इसका योजना और क्रियान्वयन में हिंदुओं की पहल थी पर इसमें दोनों समुदायों को साथ लेकर चलने का निर्णय लिया गया था और मुसलमानों का सहयोग पाने के लिए बहादुरशाह को ही भावी सम्राट बनाने का फैसला किया गया था जिसका एक नुकसान यह हुआ कि गुरुओं के साथ मुगलों के जघन्य अत्याचार के कारण रणजीत सिंह का सहयोग नहीं मिल सका। मुख्य भरोसा सेना के विद्रोह का था। कंपनी का कुल सैन्यबल 70 हजार था, इनमें 13000 अंग्रेज थे और 57000 भारतीय जिनमें सभी हिंदू थे क्योंकि कंपनी ने विश्वास की कमी के कारण मुसलमानों पर भरोसा नहीं किया था और निर्णायक पदों से वंचित रखा था। यदि मंगलपांडे ने समय पहले अपना धैर्य न खो दिया होता तो परिणाम क्या होता यह अनुमान कोई मानी नहीं रखता, परन्तु इसमें भाग लेने वाले मुसलमानों ने इसे जिहादी रंग देते हुए अंग्रेज महिलाओं और बच्चों की भी हत्या न की होती, उन्हें केवल बंदी बना कर रखा होता तो दमन ने उतना क्रूर और विशेषरूप से मुस्लिम विरोधी रूप न लिया होता। उन बंधकों के कारण मोल भाव तक स्भव हुआ होता।
मुझे असबाबे-बगावते-हिंद (1859) देखने का या उसकी अंतर्वस्तु को विस्तार से जानने का अवसर नही मिला, फिर भी इस बात का पूरा भरोसा है कि इसमें सैयद अहमद ने इस पक्ष को न रखा होगा कि मुसलमानों को कौमी जुनून से मुक्त रख कर ही उन्हें इंसान बनाया और उन पर भरोसा किया जा सकता है, यद्यपि अपने दिल में वह इसे महसूस करते रहे हो सकते हैं और इसीलिए उन्होंने कुरान की व्याख्या आधुनिक दृष्टि से करना आरंभ किया था और जिसका जोरदार विरोध कई ओर से होने पर उन्होंने इसे रोक दिया था।
उन्होंने जिन अंग्रेज परिवारों का बचाव किया था उन्हीं के हाथों दिल्ली मे रहनेवाले उनके परिवार और नाते के सभी लोग मारे गए थे। मां नेअस्तबल में छिपकर जान तो बचा ली पर अधिक समय तक जीवित न रहीं। उन पर इसका ऐसा घातक असर हुआ था कि एक बार वह भारत छोड़कर मिस्र में जा बसने के लिए तैयार हो गए थे। फिर उनको खयाल आया कि आगे जो बचे हुए लोग हैं वे सताए जाएंगे इसलिए उनकी रक्षा के लिए उन्हे यहीं रह कर जो भी संभव है करना होगा और उनकी हालत में सुधार लाना होगा। परन्तु दमन इतना क्रूर था कि उसकी दहशत उनकी अंतश्चेतना में समा गई थी इसलिए वे सचमुच उससे दूर रह कर किसी भावी दमन से बचाने की चिंता से ग्रस्त रहे हों इससे मै इन्कार नहीं कर पाता। वह इस अन्देशे को बार बार दुहराते थे।
मुझे यह बात चकित करती रही है कि वह लगातार घालमेल की भाषा का प्रयोग करते हुए राष्ट्रीय एकता के नए मंच कांग्रेस का विरोध कर रहे थे। ऐसा लगता है कि वह अंग्रेजों के प्रति अपनी और अपनी कौम की वफादारी सुनिश्चित करते हुए कांग्रेस को हिन्दू संगठन बताते हुए, उस संभावित दमन को हिंदुओं की ओर मोड़ना चाहते थे और यदि जलियांवाला कांड को उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति मानें तो उनका यह अंदेशा गलत न था। 2. वह इसे हिन्दू आंदोलन करार देते हुए यह संदेश देना चाह रहे थे कि केवल हिन्दू तख्ता पलटना चाहते हैं इसलिए वे अंग्रेजों के विश्वास के काबिल नहीो हैं और मुसलमानों पर से विश्वास हट जाने का जो लाभ बंगाली हिंदुओं को मिला और वे आगे बढ़ गए, वह अब उनको वंचित करते हुए मुसलमानों को मिलना चाहिए, जिससे वे उनसे आगे निकल जाएं। 3. इसे हासिल करने के लिए अंग्रेज जो कुछ भी करें उसका आंख मू्ंद कर समर्थन करना चाहिए। 4. इसबीच सरकार को सेना, और पुलिस में मुसलमानों को अधिक से अधिक भरती करना और मुसलमानों को अपने को भविष्य के उच्च पदों के लिए जल्द से जल्द अंग्रेजी शिक्षा से लैस करके तैयार करना चाहिए।
परन्तु एक बात न चाहते हुए भी उन्होंने स्वीकारी कि मुसलमान झगड़ालू और खुराफाती स्वभाव के हैं, इसलिए सरकार की पैनी नजर मुसलमानों पर रहेगी। remember that Government will keep a very sharp eye on you because you are very quarrelsome, very brave, great soldiers, and great fighters.