Post – 2018-09-25

भारतीय मुसलमान

जरूरी नहीं कि आप हमसे सहमत हों। अधिक अच्छा है हमारी समझ में कमियां तलाशते हुए इसका पाठ करें और मेरी सीमाओं से अवगत भी कराएं, परन्तु यदि मैं आप के तर्क से सहमत न हो सकूं तो मुझे अपने विचार पर कायम रहने का अधिकार दें जो अधिकार आपको भी है। । किसी सर्वशुद्ध निष्कर्ष की अवधारणा और उससे असहमत होने वालों को दुष्ट समझने का दुराग्रह एकेश्वरवादी और एकग्रंथी मजहबों की देन है जो अपने मजहबी समुदाय के भिन्न मतों के लोगों तक को दुष्ट मानते और शेष मानवता को शैतान समझते हैं, भले इसे प्रकट रूप में व्यक्त न करें।

जिनके साथ हम रहने को बाध्य हैं उनकी गतिविधियों की ओर से असावधान नहीं रह सकते, भले वे अपने परिवार के सदस्य ही क्यों न हों। संभवतः यही सोचकर मेरे एक मित्र ने इसी नाम से पुस्तिकाएं लिखी थी । वाह पत्रकार और उर्दू तथा दूसरी भाषाओं में मुस्लिम लेखकों- पत्रकारों ने जो कुछ लिखा था उसी के आधार पर उनकी मानसिकता को समझ कर उन्होंने अपनी पुस्तिकाएं लिखी।यह किसी को समझने का सबसे सतही तरीका है विशेषतः भारत में जहां कुछ सवालों पर निजी सोच और सार्वजनिक कथन में काफी अंतर होता है। फिर किसी एक पक्ष के असंतोष या आरोप के आधार पर बनाई गई राय भरोसे की नहीं होती।यह मान लेना कि हम जिस समुदाय के हैं उसके बारे में तो जानते ही हैं भ्रामक है। जो भी हो, उनका निष्कर्ष था मुस्लिम अच्छे होते हैं. बुराई हिंदू समाज में है।

मेरे दो अन्य मित्र जो पुलिस विभाग में उचतम पदों पर रहे हैं, अपने अनुभव से उसी नतीजे पर पहुंचे थे। वैसे तो समाज की मानसिकता को समझने के लिए पद की ऊंचाई का कोई महत्त्व नही या उल्टा संबंध है – एक गश्ती अफसर का लोगों के बीच अधिक घुलना मिलना होता है, अफसरों तक कम लोगों की पहुंच हो पाती है फिर भी बड़े पदों पर बैठे लोगों को यह विश्वास होता है कि उनकी सोच बड़ी है, रपट और पुस्तक लिखने की योग्यता उनमें से ही कुछ के पास होती है, बड़ों की बात बड़ों ने किस्सों से लेकर मुहावरों तक मानी है, इसलिए उनका निष्कर्ष सिर माथे।

एक अन्य मित्र जिन्होंने 19वीं शताब्दी में हिंदी को लेकर हुई खींचतान का विवेचन करते हुए यह नतीजा निकाला कि नागरी लिपि की वकालत करने वाले भारतेन्दु और दूसरे लोग सांप्रदायिक थे और अरबी लिपि और फारसी अरबी बोझिल उर्दू (शरीफों की जबान) के प्रचलन की वकालत करने वाले सर सैयद अहमद खान सेक्युलर थे।

पत्रकारों-लेखकों में ऐसे लोगों की संख्या खासी अधिक है जिनकी राय इसी से मिलती जुलती है। बल्कि उनके बीच आपके समझदार माने जाने की अनिवार्य शर्त है कि आप ऊपर के निष्कर्ष से सहमत हों। जिस आदमी की समझ में इतनी मोटी बात न आती हो कि ऐसा न मानना संकीर्णता है उससे नासमझ भला कौन हो सकता है। यदि वह नासमझ नहीं है, तो गिरा हुआ इंसान है। ऐसे लोगों से संपर्क रखना, उनकी बातें सुनना, या संवाद करना तक गुनाह है। बौद्धिक अस्पृश्यता का यह नया संस्करण भारतीय सेकुलरिज्म की देन है।

बौद्धिक जगत में स्वयं सिद्धि का रूप ले चुके इन विचारों से मेल खाती कोई जानकारी है तो वह प्रामाणिक है, अनमेल है तो वह विद्वान, ज्ञान की वह शाखा, सूचना का वह माध्यम, वह अनुसंधान, वे प्रमाण सभी संदिग्ध हैं। उदाहरण के लिए पुरातत्व हिन्दुत्ववादी है, जनगणना के वे आंकड़े जिनसे यह सिद्ध होता है कि आबादी में मुसलमानों की जन्म दर में होने वाली वृद्धि दूसरे समुदायों की तुलना में अधिक है वह हिंदू संप्रदायवादियों का दुष्प्रचार है। हिंदू संप्रदायवाद कितनी तेजी से बढ़ता हुआ संस्थाओं में भी प्रवेश करता जा रहा है इसका यह प्रमाण है। और कोई चारा न होने पर यदि मान ले कि यह सही है, तो भी इसे सही मानना हिंदुत्ववादियों के हाथ में खेलने जैसा है, इसलिए जो अकाट्य है वह भी, सच होकर भी, मान्य नहीं है।

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इसके दबाव में शिक्षित और बुद्धिजीवी वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जो नाम से हिंदू है परंतु अपने को हिंदू कहने में लज्जित अनुभव करता है। इसकी प्रतिक्रिया यह है की हिंदुत्व की रक्षा के लिए चिंतित नेता हिंदुओं से अपने को गर्व से हिन्दू कहने को कहता है, और उपहास का पात्र बनता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से आज तक हमारी मुख्य समस्या शैक्षिक और आर्थिक विकास की न रह कर सामाजिक समायोजन की बनी रही है। आज इसकी अपरिहार्यता इतनी बढ़ गई है कि जब तक इसका समाधान नहीं हो जाता दूसरी समस्याएं रुकी रहेंगी। केवल भाव तेजी से बढ़ने पर महंगाई, अराजकता बढ़ने पर शांति और व्यवस्था, चुनाव आने पर रोजी-रोजगार को समस्या बनाया जाएगा। सत्तर वर्षों के इस पूरे अभियान में समस्या का समाधान निकलने की कोशिशों के साथ समस्या और विकृत होती चली गई है, अतः निकट भविष्य में दूसरी किसी समस्या पर ध्यान देने की जगह इससे निपट कर ही आगे बढ़ा जा सकता है।

समस्या इतनी गंभीर है कि छात्रों के लिए पढ़ने की जगह राजनीति करना अधिक जरूरी हो गया है। वैसे तो ऊंची शैक्षिक योग्यता के अभाव में राजनीति अधिक सफलता से की जा सकती है पर समझदार कहे जाने वाले अध्यापकों का भी मानना है कि छात्रों को कूप मंडूक बनने से बचाने के लिए उनको राजनीति में झोंकना अधिक जरूरी है । स्तरीय शिक्षा की जरूरत विदेशों से इसी काम के लिए भेजे जाने वाले और हमारी हर समस्या का अध्ययन करने वाले विद्वानों से चल जाएगा।

इससे उत्पन्न मनोवैज्ञानिक दबाव की माप तो नहीं की जा सकती परंतु यह समझा जा सकता है की इस का प्रतिरोध करने की क्षमता बहुत कम लोगों में हो सकती है । समझदार आदमी बहुत जल्द समझ जाता है कि समझदारी इससे टकराने मैं नहीं है, सहमत हो कर अपना भाग्य संवारने में ही है। ऐसी स्थिति मी बुद्धिजीवियों की जो भर्ती लगातार सेक्यूलर खेमे में होती रही है उसके लिए हम उनको दोष तो नहीं दे सकते, परंतु इतने कमजोर मेरुदंड के लोगों को बुद्धिजीवी और समाज का मार्गदर्शक भी नहीं मान सकते। मनस्वी व्यक्ति सूचना के स्रोतों की उपेक्षा नहीं कर सकता। ऐसा करने पर वह बौद्धिक विकलांगता का शिकार हो जाएगा। समाज को नीरोग रखने की चिंता करने वाले किसी वायरस की उपेक्षा करते हुए उसे फैलने का अवसर नहीं दे सकते। हमें गहराई में उतर कर इस बात की पड़ताल करनी होगी कि यह विचार किसी साजिश के तहत पैदा किया और बढ़ाया गया है या इसका वास्तविक आधार है।

सबसे पहले हम उस निष्कर्ष को मानकर उसका परिणाम देखें। समस्या लगातार उग्र होती गई है। यदि यह हिंदू के कारण है तो इसका एक आसान उपाय यह है कि भारत को हिंदू मुक्त किया जाए। परिणाम क्या होगा ? हमारी दशा बांग्लादेश या पाकिस्तान जैसी हो जाएगी। परंतु आरोप लगाने वाले कहते हैं भारत की दशा हिंदुओं के कारण पाकिस्तान या बांग्लादेश जैसी होती जा रही है।

अर्थात् वे भी मानते हैं कि इन देशों की दशा भारत की तुलना में बहुत बुरी है और हमने पाया हिंदू को हटाते ही या उसका बहुत कम होते ही 1 दिन में हमारी दशा उन देशों जैसी हो जाएगी जिस से देश को बचाने की चिंता उनको भी है। यदि भारत की दशा वैसी नहीं है तो इसका एकमात्र कारण यह है कि यहां हिंदू बहुमत में है। हमारे प्रयोग में यह सिद्ध होता है हमारे मित्रों का निष्कर्ष नितांत काल्पनिक है।

हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर गए बिना भी नहीं रह सकता कि इस श्रेणी में आने वाले वाचाल लोगों में अधिकांश लड्डूगोपाल हैं, अथवा लड्डू के लिए कतार में खड़े रहे हैं। उन पर अधिकस्य अधिकं फलं का नियम भी लागू पाया जाता है, जो उनके उत्साह को कायम रखने और आवाज़ को बुलंद रखने में सहायक रहा है। हमने अपने आकलन में उन्नीसवीं शताब्दी को भी रखा है इसलिए किसी को यह लाभ नहीं मिल सकता कि उनके ऐसे विचार भाजपा और उससे जुड़े संगठनों के कारण हैं। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमारी समस्याएं लड्डूगोपालों के कारण हैं। उनके ही कारण मुस्लिम समाज में असंख्य विकृतियों के होते हुए भी यह मानसिकता पैदा हुई है कि वे विकृतियां नहीं धर्माचार हैं और हिंदू बुद्धिजीवी भी उन्हें विकृति नहीं मानते और स्वीकार करते हैं कि सारी विकृतियां हिंदू समाज में हैं।

भारत पर तलवार से आक्रमण करके मुसलमानों को उतनी बड़ी विजय कभी न मिली जितना बड़ी विजय स्वतंत्र भारत में लड्डूगोपालों के कारण मिली है। स्वयं मुसलमान रहते हुए हिन्दू प्रत्याशियों को सेक्युलर का प्रमाणपत्र वह बांटता या वापस लेता है। सेक्युलर छवि को बचाने को चिन्तित मित्र कुछ भी कहने या लिखने से पहले यह सोचते हैं कि उसके परिचित मुस्लिम मित्रों की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी। अर्थात् वह उनका conscience keeper बन चुका है।

कुछ मुसलमान भारत में बाहर से आए, शासन किया यह इतिहास का सच है परन्तु यह भारतीय मुसलमान स्वतंत्र भारत के लड्डूगोपालों और सहमकर सोचने वाले और उनके समवेत आतंक के आगे घुटने टेकने वालों की रचना है जो कट्टर इस्लामी देशों मे आए सुधारों का भी विरोध करता है।