Post – 2018-09-22

पुनर्विचार के लिए

मेरा समसामयिक विषयों का ज्ञान दूसरे बहुत सारे लोगों से कम है। उनसे मैं सीखना अधिक चाहता हूं। परंतु कुछ कारणों से अधिकांश लोगों का लेखन नितांत सतही और बतंगड़ लगता है। लक्ष्यनिर्धारित सोच और राजनीतिक दलों से हितावद्धता विचार पर हावी रहती है। इससे पढ़ने और ना पढ़ने में अंतर नहीं रह जाता। मेरी रुचि इस बात में नहीं है कौन जीतता है और कौन हारता है। इसमें लड्डूगोपालों की रुचि होती है। मेरी रुचि इस बात में अवश्य है कि किन नीतियों से देश किधर जाता है और हमारा कितना बुरा-भला होता है।

मैंने आज से तीन साल पहले यह आशा पाली थी कि मोदी का ‘सबका साथ. सबका विकास’ का नारा झांसा नहीं है। उन्होंने अपने अब तक के कारनामों से मुझे निराश नहीं किया। भाजपा और संघ के संबंध की ओर ध्यान दिलाते हुए मित्रों का कहना था वे चाहें तो भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनको अपनी संकीर्णता से आगे जाने नहीं देगा। लोग कहते आखिर भाजपा है ते संघ का ही मुखौटा। मैंने यह भरोसा जताया था कि मोदी में वह क्षमता है कि वह उसकी सोच में भी बदलाव ला सकें। दो दिन पहले मोहन भागवत के प्रेस सम्मेलन ने मेरी भविष्यवाणी को सही सिद्ध किया। इसे तीर न सही, तुक्का ही समझा जाए, परंतु मेरे सोचने का आधार यह था कि मोदी की महत्वाकांक्षाएं बहुत बड़ी है। वह विश्व फलक पर अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं और हिंदू राष्ट्रवाद की संकीर्णता से स्वयं को और संघ को भी बाहर जाने का प्रयत्न करेगे। मैंने लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया की बाध्यताओं की याद दिलाते हुए कहा था राजनीति से दूर रहने वाले संगठन कट्टरता का सहारा ले सकते हैं, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अनगढ़ताएं दूर हो जाती हैं। अधिक से अधिक लोगों को साथ में लेकर चलने की बाध्यता कट्टरता को कम कर देती है। यही हुआ।

प्रणव मुखर्जी ने जो आज भारतीय राजनीति के सबके प्रबुद्ध, अनुभवी और बेदाग व्यक्ति हैं इससे पहले ही अपनी उपस्थिति और कथन से यह जता दिया था कि आज की अराजक सी हो चली स्थिति में संघ का राष्ट्रवाद अधिक भरोसे का है और उपलब्ध विकल्पों मे नरेन्द्र मोदी योग्यतम प्रशासक।