मैंने कई बार यह कहा है कि मैं जो लिखता हू वह मै नहीं लिखता। लिखने से पहले मैं जानता तक नहीं हूो कि क्या लिखूंगा. लिखित रूप में यदि यह आपको नया विचार लगता है तो लिखते समय यह मुझे आश्चर्य की तरह प्रतीत होता है। यह विचार और सर्जना की शाश्वत समस्याा है। कभी इसका तर्क न समझ पाने के कारण वाग्वेदी के उपस्थित होने. कंठ या जिह्वा और लिखने वाले को तो कहना चाहिए कलम की नोक पर, उपस्थित होना कहा जाता था। कवीन्द्र इसे प्रभु की लीला, अपने को माध्यम और उसे रचनाकार, कलाकार. संगीतकार मानते थे। द्विवेदी जी अपने अन्तर्यामी को याद करते थे। आप क्या समझते हैं बताएं, फिर मैं अपना मत रखूंगा।