Post – 2018-08-17

one percent inspiration ninety nine percent perspiration

मुझे एक ओर तो इस बात की प्रसन्नता है कि कुछ नए मित्रों में शब्दविचार में रुचि बढ़ी है, कुछ ने इतिहास के उपेक्षित या जान बूझ कर झुठला कर नकारे जाने वाले पक्षों की जांच का काम आरंभ किया है दूसरी ओर प्रसिद्धि की जल्दी में या अधिक से अधिक काम करने की चाह में जांच पड़ताल में कमी दिखाई देती है।

फेसबुक का मंच इतना बड़ा है. लोगों की रुचि और ज्ञान के स्तर में इतनी विविधता है कि कच्ची से कच्ची गालियां दे कर हजारों की वाहवाही लूटी जा सकती है। संख्या इस परनिर्भर करती है कि उस व्यक्ति के विरुद्ध संचारमाध्यमों से कितनी सफलता से अभियान चलाया जा चुका हे या आप की टिप्पणी कितनी घृणा पैदा कर लेती है। इसका किसी विचार के सही या गलत होने से कोई संबंध नहीं। सतही और अधकचरे विचार भी प्रशंसकों की फौज जुटा सकते हैं।

इसलिए जिसमें लेखक बनने की महत्वाकांक्षा हो उसे लिखने का अभ्यास लिख कर फाड़ने के लिए करना चाहिए। संभव हो तो पहले लिखने का अभ्यास करने से भी बचते हुए, केवल पढ़ना, डूब कर पढ़ना, नोट लेते हुए पढ़ना, सन्दर्भ, पृ. सं., प्रकाशक, प्रकाशन वर्ष या संस्करण देते हुए नोट लेना, उस क्रम में ऊहापोह के साथ समस्या को समझना, इंटर नेट पर फेसबुक पर भी जो जानकारी सही लगे या सोचने का नया कोण मिले उसे भी कापी पेस्ट के तरीके से लेखक का नाम और लिंक का स्रोत और तिथि दर्ज करते हुए नोट लेना चाहिए और इसकी एक अनुक्रमणिका तथा पढ़ी पुस्तकों, पत्रिकाओं की सूची तैयार करने पर समय लगाना चाहिए। इससे ही इस मैदान में टिक सकते हैं। जिसे चालू भाषा में लंबी दौड़ का घोड़ा कहते हैं।

सर्जनात्मक लेखन के लिए यह जरूरी नहीं, पर पाएदार काम के लिए वहां भी जरूरी है। उर्दू कविता का रहस्य यह है कि उसमें प्रतिभाशाली कवियों को लंबे समय तक किसी वाक्सिद्ध शायर की शागिर्दी करनी पड़ती थी। जफर कम प्रतिभाशाली शायर न थे, बादशाह अलग से, पर उनके दो उस्ताद थे, दाग के उस्ताद गालिब और इकबाल के दाग। हिन्दी के जिन कवियों को भाषा के प्रवाह के लिए जाना जाता है उन सभी ने यह स्वच्छता और प्रवाह उर्दू कविता से गहरे लगाव से पाया था।

संगीत, नृत्य, मल्ल, खेल बाजीगरी या ऐक्रोबैटिक्स और योगसाधना सभी में गुरु के निर्देशन में लंबे अभ्यास से गुजरने पर ही ऊंचा स्थान मिला है। गुरु का अलग होना जरूरी नहीं, पर गहन अध्ययन और यशलिप्सा से मुक्त होकर लंबी तैयारी से बचा नहीं जा सकता। प्रतिभा की भूमिका नगण्य है पर पसीने की भूमिका असन्दिग्ध है, गुरु का स्थान विधाता से भी ऊपर है। अं. मुहावरा one percent inspiration ninety nine percent perspiration.

जो लोग प्रसिद्धि की जल्दी में रहते हैं, छोटे रास्ते या पिछवाड़े के रास्ते के शिकार हो जाते हैं वे डुगडुगी बजा कर बाहर हो जाते या कर दिए जाते हैं। जो लिखने से कतराते हैं, सही तैयारी करते हुए विषय में डूबे रहते हैं वे उस अर्जित संपदा के दबाव से बचना चाहकर भी बच नहीं पाते। मूर्धन्य विद्वान ये ही बनते हैं।

मार्क्सवाद की भारतीय शिक्षा प्रणाली में एक ही योगदान है- छोटे रास्ते या पिछवाड़े के दरवाजे की सुलभता। नारा लगाओ ज्ञानी कहाओ, नारा लगाओ कलिवद बन जाओ। नारा लगाओ कुर्सी पाओ। अपने विषय के स्रोताों का ज्ञान तक जरूरी नहीं । उसी शिक्षाप्रणाली की उपज होने के कारण दक्षिणपंथियों की दशा भी अच्छी नहीं। यहां तो कोढ़ में खाज यह कि अनुशासन कमजोर न पड़ने पाए इसलिए शिक्षा और ज्ञान और स्वतंत्र चिन्तन को हतोत्साहित किया जाता रहा है। हालात बदले हैें पर बुरे से अधिक बुरे की दिशा में बदले हैं। नारे की ताकत बढ़ी है । लाल सलाम का स्थान वन्देमातरम ने लिया है। जरूरत नारा बदलने की नहीं, दिमाग बदलने की है। आदत बदलने की है।