Post – 2018-07-22

आइए शब्दों से खेलें (25)

मैंने कल अपनी पोस्ट मे कहा था कि यह समझ में नहीं आ रहा कि लात शब्द उद्भव क्या है? परंतु साथ ही इस बात की संभावना भी प्रकट की कि संभव है इसका सूत्र किसी दूसरे संदर्भ में हाथ लग जाए। कई घंटे बाद एकाएक इसका रहस्य जिस रूप में उजागर हुआ उसे मैंने लेख में जोड़ दिया था परंतु अधिकांश लोग पोस्ट पहले पढ़ चुके थे । उनकी नजर में वह न आया होगा। उसे दोहराते हुए मैं कुछ अन्य संभावनाओं को भी उसमें स्थान देना चाहता हूंः

“लात का संंबन्ध लाट से लगता है। इसके दो रूप मिलते हैं। एक कृत्रिम जलाशयों के बीच मे गाड़ा जाने वाला लकड़ी का खंंभा या स्तंभ जो एक तो पानी की गहराई का संकेत देता था, दूसरे यदि कोई जलाशय को पार करने के इरादे से तैरने को उतरा हो और चौड़ाई का सही अनुमान न लगा पाने के कारण थक जाय तो इसका सहारा ले कर सुस्ता सके।
“अशोक ने ऐसे स्तंभ अपने धर्मोपदेश लिखवाने के काम के लिए तैयार कराए। इनके साथ सुविधा यह थी कि ऊँचाई के कारण इन्हें दूर से ही लक्ष्य किया जा सकता था।
“हमारे प्रयोजन के लिए लात स्तंभ या खड़ा होने का आधार या स्तंभ stand। अपने पांवों पर खड़ा होने के मुहावरे को चरितार्थ करने के कारण इसका नाम लात पड़ा।”

यहां प्रश्न उठता है कि जिसे हम किताबों में ’अशोक की लाट’ पढ़ते हैं वह धर्म लात तो नहीं? क्या इसके पीछे ऊँचाई के कारण दूर से दीखने के अतिरिक्त, धर्मचक्र की तरह धर्म प्रवर्तन का संकेत भी जुड़ा था? आखिर अशोक को छोड़ कर अन्य सभी ने अपने ऐसे लेखों को स्तंभ की संज्ञा दी, अशोक ने इसे ’लात’ क्यों कहा?

दूसरा प्रश्न, क्या यह शब्द देववाणी का है और उसका भी पैर के लिए सबसे पुराना शब्द तो नहीं है। क्योंकि पुराने शब्दों के साथ प्रायः भदेसपन जुड़ जाता है। यही स्थिति देवसमाज में भी है। समान भूमिका वाले पुराने देवता को नए देवता का सेवक या पुत्र बना दिया जाता है जैसे वर्षा के पुराने देवता वृषाकपि को वर्षा के नए देवता इंद्र का पुत्र बनाने का प्रयास किया गया। परंतु उसी सूक्त से ऐसा भी लगता है कि वह युवा इंद्र का प्रतिस्पर्धी है। इसी तरह रुद्र गणों को इंद्र का सहायक बनाया गया है। भोजपुरी जो हमारी वर्तमान व्याख्या में देववाणी के सबसे निकट पड़ती है उसके शब्दों को दूसरी बोलियों के शब्दों की अपेक्षा अधिक अवज्ञा से देखा जाता रहा है।

परन्तु इसका एक अन्य कारण अशोक द्वारा धर्म प्रवर्तन के लिए इसका प्रयोग हो सकता है। जिस तरह ब्राहमणों ने जैन और बौद्ध धर्म से जु़ड़ी हर चीज को गाली में बदल दिया ठीक वैसा ही इस शब्द के साथ हुआ हो सकता है।

अगला प्रश्न यह है कि क्या ’लाट’, ’लट’ और ’लतर’ के नामकरण के पीछे मोटाई की अपेक्षा लंबाई का बहुत अधिक होना प्रधान कारण नहीं है ? इस दृष्टि से इक्षु लता और सोमलता, वेतस लता, बालों की लट, तथा लट्ठा, लाठी, में सर्वनिष्ठ गुण यहीं मिलता है।

अब हम अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हैं पद या पांव के उपांगों की बात कर सकते हैं

जघन
पावों के उपांगों की चर्चा कई दृष्टियों से बहुत उलझन भरी है । इसमें एक का दूसरे पर आरोपण और अन्य का अंशग्रहण समस्या को अधिक कठिन बनाता है। उदाहरण के लिए जाँघ को लें । एक ओर तो इसका अर्थ उसके वह भाग है जिसके लिए अंग्रेजी में थाई, या संस्कृत में ऊरु का प्रयोग होता है जिसमें फैलाव का भाव प्दूरधान है। दूसरी ओर इसमें वस्ति और नितंब के लेखर जानु पर्यंत के पूरे भाग का आशय ग्रहण किया जाता है । मूल संकल्पना बहुत पुरानी लगती है जिसमें आघात करने, फैलने चलने, जनने और जानने या अनुभव करने से जुड़ी क्रियाओं को एक दूसरे पर आरोपित कर दिया गया है. कामक्रीडा को एक और हिंसा के रूप में कल्पित किया गया जो देशज प्रयोग मारना में व्यक्त होता है। जंग और जंघ की ध्वनिगत और अर्थगत निकटता सर्वविदित है। कामाचार छांदोग्य उपनिषद में जीवन के यज्ञ में से एक यज्ञ माना गया है और यज्ञ का अर्थ होता है उत्पादन इसको समझने के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त कुछ शब्दों और सायणाचार्य द्वारा उनकी व्याख्या पर ध्यान देना उपयोगी होगाः
जंघनत् (3.53.11) भृशं हतवान्,
जंघनन्त (2.31.2) अत्यर्थं गच्छन्ति,
जंघाम (1.116.15) जंघोपलक्षितं पादं,
जघन्थ (3.30.8) हतवानसि,
जजस्तं (4.50.11)युध्यन्तं, (7.97.9) उपक्षयतं,
जजान (2.12.7) जनयामास, (3.32.8) उत्पादयामास,
जज्ञतू (7.90.3) जनयामासतू; जज्ञानं (6.21.7) प्रादुर्भवत्, (6.38.5) प्रादुर्भवन्तं,
जज्ञाना (5.33.5) उत्पादयन्तः,
जज्ञिरे (1.64.2) प्रादुर्बभूव,
जज्ञिषे (2.1.14) उत्पादयसि, (8.15.10) प्रादुर्भवसि,
जज्ञिषे (5.35.4) उत्पद्यसे
जज्ञुः (7.62.4) ज्ञातवन्तः

लगता है इसकी आदिम संकल्पना में ही घन, जंह और जन का तिहरा दबाव था। आ जंघन्ति सान्वेषां जघनाँ उप जिघ्नते ।…6.75.13