Post – 2018-07-12

#आइए_शब्दों_से_खेलें (19)

मनुष्य की सबसे बड़ी आकांक्षा पक्षी बनकर उड़ने की रही है। सपनों में मैं स्वयं भी कई बार कई फर्लांग तक उड़ान भरता रहा हूं। जब हम कल उस अस्थि रचना की बात कर रहे थे जिसे भोजपुरी मैं हँसुली, और अंग्रेजी में कॉलर बोन कहा जाता है, तो मुझे एकाएक इस बात का ध्यान आया की ग्रीवा के साथ क्या हंस की कल्पना नहीं की गई थी। जो समाज अपने भीतर ही आत्मा को तो हमेशा से किसी पक्षी के रूप में कल्पित करता आया है चाहे तोता हो या हंस, उसके मामले में मुझे यह दूर की कौड़ी नहीं प्रतीत हुआ। भुजा के ऊपरी जोड़ को भोजपुरी में पँखुरा, या पंखा कहते हैं। आश्चर्य इस बात पर है कि जानवरों के अगले पांव को भुजा या बाहु माना जाता था। अश्व के अगले पांवों की तुलना श्येन (बाज) के पंखों से की गई है – श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन् ।। 1.163.1। इस तर्क को समझ न पाने के कारण भारतीय पुरातत्व में काम कर चुके मेरे एक मित्र इसे पूरी तरह काल्पनिक मानते हे क्योंकि रही सही कमी उसके बिखरे शृंगों (लुटुकी) से पूरीहो जाती है।

भुजा के लिए भोजपुरी में ‘बाँहि’ प्रचलित है, न की भुजा। इसका अर्थ क्या है ? वहन करने वाला? असंभव नहीं है। भार ढोने के लिए बांस के लंबे पट्ठे को बहंगा कहा जाता है। आधी बाँह के पहनावे के लिए, अधबहिंआ, बँहकट्टी, और पूरी बाँह के अगले हिस्से के लिए बँहोरी और भुजबल के लिए बाहुबल चलता है। भोजपुरी में भुजा का एक ही रूप है भूजा (भुना हुआ) जिसके लिए पश्चिमी हिन्दी में चबेना (चबाने की चीज) चाहे वह लाक्षणिक ही क्यों न हो (भुजि डरलऽ) । ऋग्वेद मैं भी ‘भुजा’ का बाहु के लिए प्रयोग नहीं हुआ है, केवल भोग्य पदार्थ के लिए पुरुभुजा आदि का का प्रयोग देखने में आता है।

हाथ के लिए बाहु का ही प्रयोग दिखाई देता है- सुबाहु, अधिबाहुषु, बाहुभ्यां , विश्वतोबाहुः आदि । बाहु कंधे से लेकर उंगली तक के लिए प्रयोग में आता है, जबकि हाथ कोहनी से आगे के हिस्से के लिए प्रयुक्त होता है। जब बाहु के लिए हाथ का प्रयोग होता है तब उसे प्रहस्त कहते हैं।

बाहु के लिए भुजा का देववाणी मैं प्रयोग में नहीं होता था, भोग – खाना, झेलना, कामतुष्टि, और कभी कदा भोग्य वस्तु के लिए प्रयोग में आता था। संस्कृत में हाथ के लिए इसका प्रयोंग आर्थी विचलन है।

हाथ शब्द बाहु से भी अधिक प्रचलित था, हथेली, हाथी, हथोड़ा, हाथा-(पानी उदहने का कृषि उपकरण), हथियार, हाथ लगा, हथियाना, आदि शब्द तथा हाथ आना, हाथ उठाना, हाथ हटाना, हाथ खींचना, हाथ मारना, हाथ जोड़ना, हथ लपाक, आदि मुहावरे इसके व्यापक चलन के प्रमाण हैं।

ऋग्वेद में हाथ का प्रयोग करतल (पाम) और हाथ दोनों रूपों में देखने में आता है। पूषा त्वेतो नयतु हस्तगृह्य, पूषा तुम्हें यहों से हाथ पकड़ कर ले चलें, … भगः शशमानः पुरा निदः। अद्वेषो हस्तयोर्दधे। भग मैत्री के इच्छुक पुराने निंदकों को भी बिना किसी द्वेषभाव के बाहों में भर लेते हैं। ….पिता पुत्रं न हस्तयोः, जैसे पिता अपने पुत्र को दोनों हाथों में उठा लेता है, हरिवान् दधे हस्तयोर्वज्रमायसम्, घोड़े पर सवार इन्द्र ने अपने हाथों में आयसी वज्र को धारण कर रखा है, निक्तहस्तस्तरणिर्विचक्षणः निष्कलुष (निक्त =धुला हुआ) हाथों से हमें पार उतारने वाला वह विचक्षण।

कोहनी उसी श्रृंखला का शब्द है जिसका कोहान या ककुद। कुभ > कुब का अर्थ है झुकना, टेढ़ा होना (कुब्ज, कुबजा, कूबड़, कुबरी)। अंग्रेजी में घुटने के लिए ‘नी’ का प्रयोग देखकर यह भ्रम हो सकता है यह मुड़ने के कारण नी knee कहा जाता है परंतु यहाँ ‘नि’ लघुता के लिए प्रयुक्त हुआ है न कि मोड़ के लिए। फिर भी यदि नी की चर्चा पाई गई तो यह समझना होगा की क्न/कन/ग्न/गन के अनेक अर्थों में से एक अर्थ गांठ होता है गन्ने का नामकरण इसी आधार पर पड़ा ह, यद्यपि वहां दूसरा अर्थ भी लागू होता है और वह है गड्ढे का। अंग्रेजी का नी हम जानते हैं क्नी (knee) है जैसे अंग्रेजी नाे know जिसका संबंध ग्न gn या गनोस gnos से तथा उससे भी पीछे की भारतीय क्न, ग्न, ज्न और ज्ञ से है।

हाथ के कलाई से आगे के भाग के लिए देववाणी में संभवतः गह या गभ का व्यवहार होता था। ऋ. ग्राभ, भो. गहुआ जिसका अर्थसंकोच होने के बाद इसका प्रयोग उंगलियों के बीच की जगह किया जाने लगा, इसी से निकले हैं। ऋ. में यह गभस्ति के रूप में कर की तरह किरण और हाथ दोनो के लिए हुआ है (गभस्तिपूतं भरत श्रुतायेन्द्राय सोमं यज्यवो जुहोत ।।2.14.8, । एक स्थल पर इसका प्रयोग पाणि केसाथ हुआ है – प्रथमभाजं यशसं वयोधां सुपाणिं देवं सुगभस्तिमृभ्वम् ।, इमा गिरः सवितारं सुजिह्वं पूर्णगभस्तिमीळते सुपाणिम् ।

संस्कृतीकरण के चचलते गह में र-कार का प्रवेश हौ गया और फिर ऋकार दूर कैसे रहता। इस तरह ग्रह, गृह, ग्राह, आदि के सैकड़ों शबह बने जिससे आप परिचित हैं। अन्न ग्रहण के सादृश्य से ग्रहण ने ग्रास का रूप लिया और फिर ग्रास, घास, आदि की एक नई शब्दशाखा फूट पड़ी।

करतल को हाथ से जोड़ने वाले स्थल को कलाई़, कल्ला, गट्टा, पहुंचा आदि नामों से जाना जाता है। संस्कृत में इसके लिए एक अन्य शब्द है मणि, परंतु उसका हिंदी में प्रयोग नहीं होता। जो शब्द सर्वविदित हैं उनके विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है परंतु यह बताना जरूरी है कि पहुंचा में बाहु के सघोष वर्ण का अघोषीकरण हुआ है।

रोचक बात है अधिकांश अलंकार जोड़ों पर ही पहने जाते हैं चाहे वह गला हो या कलाई, कटि हो या पांव का टखना। ऋग्वेद में हाथ और पांव दोनों में पहने जाने वाले वलय का नाम खादि था। इस खादि को हड़प्पा की नर्तकी के हाथ और पांव में देखा जा सकता है गुजरात और राजस्थान में आज भी महिलाएं उस तरह की चूड़ियां पहले दिखाई पड़ सकती है।

हाथ का एक आभूषण कंगन था जिसके लिए हाथ कंगन को आरसी क्या अर्थात जो सामने है उसे देखने के लिए शीशे का सहारा लेने की क्या जरूरत का मुहावरा प्रचलित है। इसी पर विरोधों की निकटता दिखाने के लिए कर-कंकण न्याय आधारित है। बच्चों के हाथ में बनाए जाने वाले कंगन को गुजहा कहा जाता है। गुजहा का अर्थ है गोलाकार
एक दूसरा शब्द हाथ के उस हिस्से के लिए जिसे अंग्रेजी में पाम कहा जाता है गदोरी का अर्थ मांसल है ।