Post – 2018-07-10

#आइए_शब्दों_से_खेलें (18)

कंधा
गर्दन के ठीक नीचे जो भाग है उसके लिए हम कंधे का प्रयोग करते हैं। यह कुछ विचित्र प्रयोग है और कहें तो विचित्र है भी नहीं।

विचित्र इस अर्थ में जानवरों के मामले में हम गर्दन को ही कंधा कहते हैं। मनुष्य के मामले में स्थान बदल जाता है। इसका कारण यह है कि बोझ ढोने या खीचने के लिए गाड़ी या हल आदि में जुए का भार जानवरों की गर्दन पर डाला जाता है और मनुष्य के मामले मे गर्दन के ठीक नीचे के दोनों फैले भागों पर। इससे और कुछ नहीं तो यह तो स्पष्ट हो ही जाता है जो भार ढोता है उसे कंधा कहते हैं। जिन जानवरों का भारवहन के लिए प्रयोग नहीं किया जाता उनकी गर्दन को कंधा नहीं, गर्दन ही कहा जाता है। कंधे के लिए संस्कृत में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसके तीन रूप हैं एक है स्कंभ, दूसरा स्तंभ और तीसरा स्कन्ध।

आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीळे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ ।।10.5.6
दिवो य स्कम्भो धरुणः स्वातत आपूर्णाे अंशुः पर्येति विश्वतः । 9.74.2
महीं चिद्द्यामातनोत्सूर्येण चास्कम्भ चित कम्भनेन स्कभीयान् ।। 10.111.5

ऋग्वेद में स्तंभ का प्रयोग नहीं हुआ है और स्कंध का प्रयोग केवल एक बारः
अहन् वृत्रं तरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन ।
स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाऽहिः शयत उपपृक् पृथिव्याः ।। 1.32.5

भार लादने के दो तरीके हैं। एक नीचे से खंभा गाड़ देना और उस पर बोझ टांग देना। यह पेड़ के तने की अनुकृति है। दूसरा है दीवार आदि में खूटी या खूँटा गाड़ना और भार को उस पर टांगना। इसे हम वृक्ष की शाखा की अनुकृति मान सकते थे, परंतु संस्कृत में इसके लिए नागदंत- हाथी के बाहरी दांत- शब्द का प्रयोग होता है। पहले मैं सोचता था आरंभ में खूंटी के लिए कुछ भवनों में हाथीदांत का प्रयोग किया गया होगा। सोच कर हैरान भी होता था और दूसरा कोई उपाय सूझता नहीं था। पर नागदंत आगे की ओर निकला होता है और उसी के अनुकरण पर ऐसी खूंटी गाड़ने को नाग दंत की संज्ञा दी गई। खूँंटा हो या ऐसा खंभा अथवा नागदंत, इनके लिए एक और शब्द का प्रयोग होता है, स्थाणु, अर्थात् जिस पर कोई चीज टिकाई जा सके। स्थाणु का पुराना रूप स्थूण है। ऋग्वेद में इसी का प्रयोग हुआ हैः
सहस्रस्थूण आसाते ।। 2.41.5
हिरण्यरूपमुषसो व्युष्टावयःस्थूणमुदिता सूर्यस्य ।… 5.62.8

नाग दंत को छोड़कर संस्कृत मैं जितने भी शब्द है उनके आदि में हलंत ‘स’ जुड़ा हुआ है। यह देववाणी में संभव न था। अतः हम इन्हें या तो सारस्वत क्षेत्र की उद्भावना कह सकते हैं, अथवा देववाणी में चलने वाले शब्द का संस्कृतीकरण।

हम पाते हैं की स्तंभ की मूल संकल्पना बहुत पुरानी है। इन संस्कृत शब्दों के आद्य स्-कार को हटाकर जो रूप बनता है उसे हम देववाणी का शब्द मान सकते हैं अथवा उसके सबसे निकट होने की कल्पना कर सकते हैं।

ऐसी दशा में यदि देववाणी से होकर ये शब्द सारस्वत क्षेत्र में पहुंचें होंगे तो उनका रूप असवर्ण संयोग से भी मुक्त रहा होगा। अब जो रूप बनते हैं वे है, कँध, कँभ, तँभ, थूँण। परंतु ‘ण’ की ध्वनि भी देववाणी में संभव न थी इसलिए हम उसे नकार में बदलने की छूट ले सकते हैं। जो शब्द निकल कर आता है वह है थून जिसका अमहत रूप थूनी या थुन्ही भोजपुरी में आज भी प्रयोग में आता है। कान्ह या काँह, कहाँर ,भोजपुरी में आज भी प्रयोग में आता है। कहार जाति में पैदा होने वाले कुछ बच्चे अपने नाम का संस्कृतीकरण करके स्कंधधार कहते हैं। ऐसा एक छात्र मेरा सहपाठी भी था, जबकि अपनी इस जांच में हम पाते हैं कि काँध और कहांर तत्सम है और उनका संस्कृत प्रतिरूप तद्भव अर्थात सचेत या अचेत रूप में बनाया या बिगड़ा हुआ रूप। देववाणी में कँभ रूप भी प्रचलित था। काँवर और कांवरिया उसी से बने रूप हैं। परन्तु यह मूलतः खँभ रहा लगता है जो खम्हा, खम्हिया, मलखंभ आदि में सुरक्षित है।

अपनी समीक्षा में है हम पाते हैं हमारे अंगो का नाम अधिकतर उनके काम के आधार पर पड़ा है। देखने वाला अंग, सुनने वाला अंग, खाने वाला अंग, रस लेने वाला अंग, सांस लेने वाला अंग, ढकने वाली हड्डी, काटने वाली हड्डी, चबाने वाली हड्डी, पकड़ा जाने वाला अंग, और अब भार ढोने वाला अर्थात् हमारा कंधा। इस रूप में हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा क्रिया पर अधिक बल देती है, रूप पर कम। इसका कारण यह है कि रूप के पास न ध्वनि है, न अपने प्रभेदों के लिए शब्द गढ़ सकता है। इसलिए जहां ऐसा प्रयत्न हुआ है वहां केवल कांति चमक का पता चलता है, रंग तक का पता नहीं चलता।

एक दूसरा पक्ष जो विषय से कुछ हटकर तो है परंतु जरूरी बहुत है इसलिए चर्चा से बाहर आ जाए यह ठीक नहीं होगा यह है देववाणी के बहुत से अधिक सटीक शब्दों का संस्कृत में स्थान न बना पाना। उदाहरण के लिए गज, हस्ती, करी आदि बहुत भ्रामक शब्द हाथी के लिए प्रयोग में आते हैं। गज का अर्थ है चलने वाला, अन्य दोनों शब्दों का अर्थ है हाथ वाला । हस्ती देववाणी का शब्द नहीं हो सकता। गज के विषय में हम यही आपत्ति नहीं उठा सकते। परंतु नागादंत से ऐसा लगता है कि एक समय में यह हाथी के लिए अधिक लोकप्रिय शब्द था। नग पहाड़ और उसके अनुरूप आकार वाला जीव, नाग। यह सामान्य व्यवहार से लगभग लुप्त हो गया, अथवा साँप के लिए प्रयोग में आने लगा, जिसका तर्क हमारी समझ में नहीं आता।

कंधे के लिए संस्कृत का दूसरा शब्द है अंस। ऋग्वेद में इसका कई बार प्रयोग हुआ है
ये अंसत्रा य ऋधग्रोदसी ये विभ्वो नरः स्वपत्यानि चक्रुः ।। 4.34.9
अंसेषु व ऋष्टयः पत्सु खादयो वक्षस्सु रुक्मा मरुतो रथे शुभः ।….5.54.11
अंसेष्वा मरुतः खादयो वो वक्षःसु रुक्मा उपशिश्रियाणाः ।
वि विद्युतो न वृष्टिभी रुचाना अनु स्वधामायुधैर्यच्छमानाः ।। 7.56.13

परन्तु इसके नाकरण का तर्क अभी तक हमारे सामने स्पष्ट नहीं है।

गुनश्चः
अंस का आशय रात हमारी समझ में नहीं आ रहा था। अब यह कह सकते हैं कि यह शब्द भी देववाणी का है। यह कंधे का कुछ दबा हुआ हिस्सा है जहाँ कोई बोझ लटकाना हो ताे उसका फन्दा रहता है जिससे वह बगल की ओर सरकने नहीं पाता। देववाणी में संभवतः इसे हंस कहा जाता था। हमारे ऐसा सोचने का आधार यह है कि इससे सटी जो दो अर्धचन्द्राकार अस्थियां होती हैं उन्हें भोजपुरी में ‘हँसुली’ कहते हैं। इसी के कारण गले के एक आभूषण का नाम हँसुली कहते हैं। अंस का शाब्दिक अर्थ मांसल था। इसी का प्रयोग याज्ञवल्क्य ने शतपथ ब्राह्मण ने ‘अंसलो वा स्यात्’, (यदि मांसल हो तो) किया है। ऋग्वेद में इसका हवाला केवल मरुतों के ऋष्टि रखने के सन्दर्भ में हुआ है। ऋष्टि को सायण ने एक हथियार माना है जो गलत है, अब हम कुछ विश्वास से कह सकते हैं कि यह गले का एक आभूषण था।
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