#आइए_ शब्दों_से_ खेलें(17)
(पोस्ट लंबी है इसलिए दो भागों में बांट दिया है। इन्हें दो बार में पढ़ें।)
धड़ के बारे में कुछ कहने से पहले हम वस्तु सत्य और भाव सत्य के बीच के संबंधों पर चर्चा कर लेंः
गले पर चर्चा करते समय भोजपुरी के एक शब्द की चर्चा करना भूल गए थे। इसका प्रयोग आक्रोश में प्रतिपक्षी को धमकाने के लिए किया जाता है। यह है ‘टेंटुआ’, इसको दबाने की धमकियां तो सुनी है पर किसी को दबाते नहीं देखा। ‘टेंटुआ’ का सामान्य अर्थ है गर्दन, सच कहूं तो कंठ, और विशेष अर्थ है वाग्तंत्र। ‘टें’ तोते की आवाज की अनुकृति है। ‘टें बोल जाना’ तोते की गर्दन मरोड़ने के बादके बाद उसकी आवाज का सदा के लिए खत्म हो जाना, अर्थात् मर जाना है। कंठनली को दबाने पर श्वासावरोध के कारण मनुष्य के प्राण चले जाने, मौत के साथ आवाज सदा के लिए बंद होने का व्यंग्भरा मुहावरा है यह।
अब हम गले के संदर्भ में पिछड़ी चर्चा पर आएँ। ‘कंकड़ के ‘कंक’ पर ध्यान दें। आपको पता है की कंक का अर्थ हड्डी होता है। यह शरीर का पत्थर होता है। हमारा मांस मिट्टी या मृदा है। यदि इसे हड्डी का सहारा न मिले तो इसकी गति क्या होगी इसे अकशेरुकी प्राणियों की नियति को देखकर समझा जा सकता है।
इससे पहले कभी इस ओर ध्यान नहीं गया था कि पहाड़ों को भूधर क्यों कहते हैं। यदि पहाड़ और चट्टानों का सहारा न रहे तो मिट्टी की धरती पानी में गर्ल कर नीचे धंस जाए। ऐसा लगता है कि पर्वत की भूधर के रूप में कल्पना कंकाल के सादृश्य और हड्डी के हर्याय के रूह में कंक के अपनाए जाने के बाद की है। पहाड़ धरती को उसी तरह सहारा दिए हुए हैं जैसे कंकाल हमारी काया को, इस सूझ की पुष्टि उसे अपने अनुभव से भी हुआ होगा। पहाड़ों पर मिट्टी के नीचे पत्थर के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, पानी के कुआं खोदते समय कभी कभी नीचे लकंकड़़ या पत्थर की तह मिलती है और कुछ क्षेत्रों में तो यह सामान्य नियम है। उसे इस विषय में दुविधा का कोई कारण नहीं था कि धरती को पहाड़ों में संभाल रखा है । हाड़ और प-हाड़ के बीच भी मुझे कोई साम्य पहले दिखाई ही न दिया था।
कंकाल के लिए एक अन्य शब्द का प्रयोग होता है। वह है ‘अस्थिपंजर’। यह शब्द कंकाल से बहुत बाद का है इसके पीछे जीव और आत्मा की अवधारणा का हाथ है, इसलिए हम मान सकते हैं कि कंकाल अस्थिपंजर से अधिक प्राचीन और हाड़ (हड्डी) उससे भी पुराना और यथार्थ के अधिक निकट पढ़ने वाला शब्द है।
आपने ‘कंगाल’ शब्द का प्रयोग किया भी होगा और इसे दूसरों से सुना और पढ़ा भी होगा, परंतु क्या आपने इस बात पर भी ध्यान दिया यह शब्द अन्न के अभाव की उस पराकाष्ठा का द्योतक है जिसमें मनुष्य हड्डी का ढांचा मात्र रह जाता है। कंगाल शब्द सुनने पर अभाव की और हमारा ध्यान जाता है, परंतु इस संज्ञा से जुड़ी लंबी यातना की ओर नहीं जा पाता जबकि हमें ऐसी काया का यदाकदा दर्शन हो जाता है।
हमारी छाती के लिए ‘वक्ष’ शब्द का प्रयोग होता है। इसके दो अर्थ है, एक है वृक्ष और दूसरा पिटारी जो अंग्रेजी के बॉक्स अर्थात चेस्ट के अधिक निकट है।
वृक्ष की अवधारणा पुनः जीव और आत्मा के कारण विकसित हुई। आपने एक पेड़ दो पंछी बैठे वाली कविता सुनी होगी। यह ऋग्वेद से आज तक अलग-अलग रूपों में विभिन्न भाषाओं में बार बार दोहराई जाती रही। इसका इतिहास ऋग्वेद से कितना पीछे जाता है यह हमें भी नहीं मालूम। मैंने इस पर पहले जो कुछ लिखा है उसे आप में से कुछ ने पढ़ा होगा फिर भी उसे सर्वजनहिताय उस ऋचा को दोहराना ठीक रहेगाः
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति अनश्नन् अन्यो अभि चाकशीति ।। 1.164.20
(सुंदर पंखों वाले परस्पर जुड़े हुए, एक दूजे का साथ देने वाले, दो पक्षी एक ही वृक्ष पर निवास करते हैं। इन में से एक इसके मधुर फल खाता है और दूसरा बिना किसी तरह का स्वाद ग्रहण किए, चारों ओर निहारता रहता है।
वृक्ष के लिए ‘वन’ का प्रयोग होता है। वन अर्थ पूरा जंगल भी होता है। कहते हैं वन को यह संज्ञा इस आधार पर मिली है कि इसे काटा जाता है। जाहिर है कि यह संज्ञा जंगल को अपने प्रयोजन में बाधक मानकर इसे काट कर खेती करने वालों ने दी होगी। वन शब्द संभवत है जीव और आत्मा की अवधारणा के विकास से पहले अस्तित्व में आ गया होगा।
वृक्ष के वन बन जाने के कारण कई बार आत्मा और जीव के लिए वन में विचरण करते एक ही काया से निकली दो गर्दनों वाले हिरन का सादृश्य कुछ लोगों को अधिक ठीक लगा होगा। इसमें आत्मा की ओर से निर्देश दिया गया है कि जीव संसार का भोग विवेकपूर्वक, अनासक्त भाव से, करे, अन्यथा आसक्ति के कारण वह उनके बंधन में पड़ जाएगा और उस दशा में वह मुक्त नहीं हो पाएगा। कबीर दास के एक पद में इसी को हिरना समुझि समुझि बन चरना, के रूप में दोहराया गया है।
हड़प्पा की एक सील पर इसका चित्रण पीपल के पेड़ पर बैठे परस्पर एक ही धड़ से निकले हुए दो लंबी गर्दन वाले पक्षियों का अंकन है जिनका मुख हिरण जैसा बना दिया गया है।
(2)
आत्मा और मन दोनों का निवास हृदय में कल्पित करने के कारण और हृदय को निर्मल जलाशय के रूप में कल्पित करने के कारण आत्मा को कई बार मन के सरोवर, अर्थात् मानसरोवर में, नीर-क्षीर विवेक के साथ केवल क्षीर का सेवन करनेवाला हंस कहा जाता है। क्षीर से भी पूरी तरह संतुष्ट न होने के कारण मानस सरोवर में मुक्ता के पैदा होने और हंस द्वारा वह मुक्ता ही सेवन की बात की गई है। यह, अपने नाम के अनुरूप, उसे मुक्ति प्रदान करता है। मृत्यु को हंस के उड़ जाने के रूप में कल्पित किया गया है। मोती चुगने वाले हंस को अनासक्त संत तथा परमहंस को परम संत के रूप में कल्पित किया गयो।
हमने इसकी इतने विस्तार से चर्चा इसलिए कि यह स्पष्ट हो सके कि हमारे वक्ष को लेकर कितनी तरह की कल्पनाएं की जाती रही है । इसका मतलब यह नहीं कि जो इस तरह की उड़ानें भरते रहे उन्हे ह्रदय की रचना के बारे में कुछ पता नहीं था, अपितु यह कि हमारे यहां भाव जगत है और वस्तु जगत के बीच में एक काल्पनिक भेद रेखा बनी रही है। इसमें वस्तुवादी ज्ञान से प्रभावित हुए बिना अपनी एक अलग अन्तर्दगत की रचना की गई जिसमें अलग तरह के स्नायुतन्त्र – इंड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, कुंडलिनी और सहस्रार चक्र और अन्तः वाद्य की कल्पना की जाती है और उन्हें शरीर की वास्तविक संरचना से किसी तरह कम विश्वसनीय न मानते हुए तंत्र साधना की जाती रही है और यह दावा किया जाता रहा है कि इससे असाधारण सिद्धियां हासिल की जाती हैं। इनके बारे में हम जातीय रुप में विश्वास तो करते हैं परंतु उनके जो नमूने देखने जाते हैं वे ढोंगियों की पहचान से जुड़ जाते हैं।
हमारे मनोभाव भी इससे प्रभावित हुए हैं। आह्लाद, यदि पानी के उमड़ आने, उल्लास पानी के उछाल मारने, विह्वलता पानी मे उत्पन्न विक्षोभ, प्रेम स्नेह, जी भर जाने, आवेग उमड़ने, आदि मुहावरों से हम समझ सकते हैं कि हमारी भावनाओं के पीछे ह्रदय की कैसी कल्पना रही है।
हृदय का चित्र भाव परिवर्तन के साथ बदलकर पत्थर के फलक जैसा हो जाता है। यह कल्पना भी कम से कम ऋग्वेद काल से तो चली ही आ रही हैः
वि पूषन्नारया तुद पणेरिच्छ हृदि प्रियम् ।
अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.6
आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे ।
अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.7
यां पूषन् ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्षि आघृणे ।
तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ।। 6.53.8
ज्ञान व्यवस्था और भाव व्यवस्था के इस अंतर को समझने में प्रायः चूक की जाती है। कई बार भाव व्यवस्था से उदाहरण देकर यह सिद्ध किया जाता है कि समाज के ज्ञान का स्तर भी यही था। इसके कारण भारतीय अतीत को ही नहीं वर्तमान को भी समझने में अनुदारता बरती जाती है। ज्योतिष विद्या का जानकार भी जो गणित के आधार पर यह तय कर सकता है कि अगले ग्रहण कब कब आएंगे और उनका रूप क्या होगा उसे सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के विषय में पुरानी कहानियों को चुपचाप मानने या उन के आधार पर कुछ विधियों और वर्जनाओं का निर्वाह करते देख कर लोग चकित हो जाते हैं परंतु इस बात पर चकित नहीं होते कि कम से कम सौ साल से यह पता चलने के बाद कि चंद्रमा धरती की तुलना में निहायत कुरूप, खड्हों से भरा हुआ और मनुष्य के लिए सभी दृष्टियों से अनाकर्षक ग्रह है जिससे सूर्य की किरणें टकरा कर आती हैं, चांद में बैठी बुढ़िया की कहानियां सुनाते, या किसी सुंदरी के मुंह की तुलना चांद से करते देख कर हमें कोई नासमझ नहीं कहता । हममें यह विवेक होना चाहिए कि कौन सी बात है हमारे भाव जगत से संबंध रखती हैं और कौन ज्ञान जगत से इनमें से किसी से वंचित हो जाने पर हम पंगु हो जाएंगे,यह पंगुता हमारे अवचेतन से जुड़ी हो तो भी विभिन्न प्रकार की मानसिक विकृतियों के रूप में प्रकट हो सकती है और बौद्धिक अक्षमता और सही निर्णय लेने में घबराहट से।
जहां तक शारीरिक संरचना की बात है हमारे लिए यह संतोष की बात है कि, जादू-टोने के प्रसंग में ही सही, शरीर के आंतरिक अंगों का ऋग्वेद से जैसा परिचय मिल जाता है वैसा, हजारों साल बाद भी, अन्य देशों की ऐसी ही कृतियों में नहीं मिलताः
अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि ।
यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्कात् ज्जिह्वया वि वृहामि ते ।। 10.163.1
ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्यः कीकसाभ्यो अनूक्यात् ।
यक्ष्मं दोषण्यमंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते ।। 10.163.2
आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोर्हृदयादधि ।
यक्ष्मं मतस्नाभ्यां यक्नो प्लाशिभ्यो वि वृहामि ते ।। 10.163.3
ऊरुभ्यां ते अष्ठीवद्भ्यां पाष्र्णिभ्यां प्रपदाभ्या ।
यक्ष्मं श्रोणिभ्यां भासदाद्भंससो वि वृहामि ते ।। 10.163.4
मेहनाद्वनंकरणाल्लोमभ्यस्ते नखेभ्यः ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ।। 10.163.5
अङ्गादङ्गाल्लोम्नो-लोम्नो जातं पर्वणि-पर्वणि ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ।। 10.163.6
हम इनकी व्याख्या करने नहीं जाएंगे। सामान्य से सामान्य पाठक भी, कम से कम, उन अंगों का नाम तो जान ही सकता है जिनकी पहचान उनको थी।