Post – 2018-07-08

#आइए_शब्दों_से_खेलें (16)

गला
गला को भोजपुरी में गंटई कहते है। गला हो या गट्टा हो, दोनो एक ही क्रिया से जुड़े हैं। कुछ बनाने के लिए गढ़ना, काटना। कल् और गल् जल की ध्वनियां हैं जिनसे पानी और पानी से जुड़े अनेक शब्द बने हैं,(कल- पानी, मन की शान्ति, कलिल-कीचड़, कलश- जलपात्र, कलेवा -पनपिआव>बां जोलखोवा, हिं. जलपान, आदि। गल, गलना, ग्लानि, गलका/ झलका= आबला – फफोला, जिसमें पानी भर आता है, परन्तु यह कल,गल और कट पाषाणी शिल्प की देन है और इसका स्रोत पत्थर के औजार/हथियार बनाने के क्रम में इसके टूटने की आवाज है। इनकी विकासयात्रा निम्नप्रकार हैः

(क) कड़/खड़/गड़/घड़ = १. कंकड़ या पत्थर के एक दूसरे से टकराने (टक-र-आने) या रगड (र-गड़) खाने की क्रिया (क्रिया)। २. इस क्रिया से उत्पन्न ध्वनि (क्रियाविशेषण । २. कंकड़ !(कं-कड ), पत्थर (संज्ञा)। ३. कंकड़ या पत्थर के गुण या भाव (कडक/कड़ाके की, कड़ा/कड़ी, खड़ > खड़ा, गड़>गढ़ा ड़कड़ाके का (विशेषण, क्रिया वि.)। ४. कड़ कड, खड़ खड़ आदि (क्रिया वि.)।

(ख) ड़ >ळ>र/ल में परिवर्तन जो ध्वनिनियमों से परिचालित प्रतीत होगा, परन्तु यह दो भाषाई समुदायों की अपनी ध्वनिसीमाओं के कारण है न कि भाषा के अपने आन्तरिक नियम से होने वाला परिवर्तन। मैथिली में र और ड़ को लेकर खासी गड़बड़ी पाइ जाती है, इन विभाषी ध्वनियों के प्रयतनसाध्य उच्चारण में अकसर उलट-पलट हो जाता हैः घोरा सरक पर सड़ सड़ दौर रहा था।

(ग) कट, खट, गट एक ही आघात से कटने टूटने की ध्वनि है।

यहां ध्यान देते चलें कि ये ध्वनियांं कंकड़ या पत्थर को काटने और तोड़ने के क्रम में उत्पन्न होती हैं इसलिए एक ओर पहाड़ या कंकड़, उसकी संहति, सादृश्य आदि से संबंधित वस्तुओं के लिए प्रयोग मे आती है तो दूसरी ओर उस क्रिया की अन्य परिणतियों के लिए। आज से पचास साल पहले जब मैं स्थान नामों का अध्ययन कर रहा था मुझे यह देखकर आश्चर्य होता था कि जिस मूल से खड़- पहाड, खड़ा का संबंध है उसी से खड्ड और खाड़ी का कैसे हो सकता है। गढ़ पहाड़ है तो सुरक्षा के लिए कृत्रिम पहाड़ जैसे प्राचीर वाले दुर्ग के लिए इसका प्रयोग तो उचित है, पर गड्ढे के लिेए कैसे हो सकता है। तब तक मैं आचार्योंं द्वारा की गई लक्षणा की परिभाषा से भी परिचित नहीं था जिसमें फ्रायड के स्वप्नतंत्र की से शताब्दियों पहले बताया गया था कि अभिधेय से समीपता, सादृश्य, सामूहिकता, वैपरीत्य, या क्रिया के योग के संबंध लाक्षणिक संबंध है।
अभिधेयेन सामीप्यात् सारूप्यात् समवायतः।
वैपरीत्यात् क्रियायोगात् लक्षणा पंचधा मता।
जाग्रत अवस्था में दिवास्वप्न और कल्पना में और निद्रा में स्वप्नतंत्र में हम इसी लाक्षणिक सूत्र से निदेशित होते हैं।

हमारे अंग न केवल हमारे धड़ – कमर से लेकर कंधे तक के भाग – से जुड़े माने जाते हैं, शिल्पकार मूर्तिनिर्माण में इनको अलग से बना कर इस तरह जोड़ते रहे हैं कि खंडित मूर्तियों को देखे बिना इसका भ्रम तक नहीं हो सकता। इन्हें जोड़ के रूप में ही अभिहित भी किया गया है। इन्हीं जोड़ों में एक जोड़ सिर को धड़ से जोड़ता है जिसे गला या गटई – जोड़, की संज्ञा मिली है। दूसरा जोड़ पांवों को धड़ से जोड़ता है जिसे कटि=जोड़ संज्ञा मिली है। कल्ला, कलाई, गट्टा सभी का अर्थ जोड़ है। जोड़ के दूसरे स्थलों पर यथा प्रसंग चर्चा करेंगे, परन्तु गले का जो नाम संस्कृत में ऋग्वेद से लेकर बाद तक के साहित्य में मिलता है वह है ग्रीवा, अर्थात वह जिसे पकड़ा जा सके। संभव है कुछ लोग अर्थ समझाने के लिए ही दूसरों की गर्दन पकड़ते ही नहीं मरोड़ते भी रहते है। सिर काटने का या बांध कर लाचार बनाने का भी सबसे सही स्थान यही है। गले के कंठ का अर्थ भी गांठ है।