Post – 2018-07-05

#आइए_शब्दों_से_खेलेू

हमारी मीमांसा में किसी वस्तु, विचार या क्रिया को जो संज्ञा मिली है, उससे अधिक महत्व उस औचित्य का है, जिसके आधार पर यह संज्ञा मिसी है। अन्यथा लगभग सभी का स्रोत जल होने के बाद और कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती। उदाहरण के लिए हम जानते हैं कि ह्रद जलाशय को कहते हैं, हृदय का जल से संबंध होना अवश्यंभावी है, परन्तु ह्रदय शीतल होने (भोजपुरी ‘हिया जुड़ाने’) का भाव है। यह भाव अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी प्रकट करता है कि जहां यह मुहावरे प्रचलित हैं वह ऊष्णकटिबन्धीय है। वहीं मन को शीतल रखना और अपने व्यवहार से दूसरों के मन को शीतल करने का सुझाव दिया जा सकता है। यहीं जी भर कर पीने का (हृत्सु पीतासो), पीकर अघाने के (तुभ्यं सुतो मघवन् तुभ्यमाभृतस्त्वमस्य ब्राह्मणादा तृपत् पिब ) मुहावरे भी चलते है, जब कि ठंढे देशों मे हदय की गरमी हार्ट वॉर्मिंग और गर्मजोशी के मुहावरे चलते हैं।

हेड
हम हृदय की चर्चा को यहीं विराम दे कर माथे की चर्चा दुबारा करना चाहेंगे। अं. के हेड और हार्ट दोनों हृद् से संबंधित हैं। हेड को सामान्यतः हम शरीर के सबसे ऊपरी अंग के आशय में ग्रहण करते हैं, और इसी तर्क से इसका अर्थविस्तार किसी भी चीज या संस्था के सबसे ऊपरी सिरे या उस पर आसीन व्यक्ति के लिए करते हैं, परन्तु इसकी मूल संकल्पना का ऊंचाई से कोई संबंध नहीं। यह सोचने वाला अंग है, इसे हम माइंड का पर्याय है इसे to pay heed जहां हीड हेड का रूपभेद है।

हार्ट
हार्ट स्वयं भी हृत् से ही संबंधित है, इसलिए यह सोचने पर परेशानी होती है कि जब हार्ट के लिए इसका प्रयोग हो रहा था तो हेड के लिए क्यों हुआ। दोनों के बीच संबंध क्या है। इसका कारण यह है कि आरंभ में ही नहीं बाद तक भी हृदय और मस्तिष्क के काम को लेकर काफी अनिश्चय रहा है। यदि to learn by heart पर ध्यान दें तो स्पष्ट हो जाएगा कि लर्न बाइ हार्ट हो या हिं. का दिल लगाकर पढ़ना या मन लगाकर पढ़ना, आदि में ध्यान, मन, हेड, और हार्ट में कोई फर्क नहीं किया गया है। यह स्थिति ऋग्वेद के समय से बनी हुई है । वहां भी हृदय की विशिष्ट चेतना (हृदयस्य प्रकेतैः) की, हृदय से किसी चीज को गढ़ने (हृदा अतष्ट) की बात की जाती है। वरुण ने हृदय में प्रज्ञा, जल में अग्नि, आकाश में सूर्य और पर्वत पर सोम काे स्थापित किया, (हृत्सु क्रतुं वरुणो अप्स्वग्निं दिवि सूर्यमदधात् सोममद्रौ ।। 5.85.2)। देव मनुष्यों को हृदय से जानते हैं (देवा हृत्सु जानीथ मर्त्यम् )। न मैं तुम्हारे मन को समझ पाती हूं, न हृदय को (
नैव ते मनो हृदयं चाविदाम )। यह उलझन भी शब्द के साथ साथ ही पहुंची थी।

हमारे सामने समस्या यह है कि हृदय तो देववाणी का शब्द हो नहीं सकता था। भोजपुरी में आज भी हृदय के लिए ‘हिआव’. ‘ही’, ‘हिआ’ का और यहां तक कि ‘जी’/ ‘जिउ’ का प्रयोग होता है। ऋकार होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता सभी में ‘द’कार और ‘र’कार भी नहीं पाया जाता। ये सभी ‘हृदय’ के अपभ्रंश के नियमों के अनुसार

प्रयोग होता है। इन
उत हृदोत मनसा जुषाण

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