#आइए_शब्दों_से_खेलें (11)
जबड़ा
संस्कृत में जबड़े के लिए दो शब्द हैं – ‘वक्त्र’ और ‘हनु’।
जबड़े की संकल्पना का आधार हमें स्पष्ट नहीं है, पर यह भी देववाणी का शब्द लगता है, और उसमें यह किसी अन्य (संभवतः तालव्य प्रधान) बोली से आया लगता है। इसका प्रसार यूरोप तक हुआ इससे यह पता चलता है कि बाद की बोलचाल की भाषा में इसका प्रयोग जारी था।
हनु
‘हनु’ के लिए भोजपुरी और हिंदी में दो शब्दों का प्रयोग होता है,’जबड़ा’ और ‘ठुड्डी’ (भो.ठोढ़ी)। इस तरह का भेद अंग्रेजी में भी देखने में आता है, जिसमें जबड़े के लिए jaw और chin का प्रयोग होता है। ‘हनु’ के विषय में अर्थभ्रम के कारण सं. में और उसके प्रभाव से हिं. में भी इसका अर्थह्रास ठुड्डी हो गया है। इसका मूल रूप ‘घनु’ था। सं.करण के चलते यह ‘हनु’ हो गया। देववाणी में इसका प्रयोग मुंह की उस निचली हड्डी के लिए होता था जो कनपटी के नीचे से ठुड्डी तक आती है जिसमें मसूड़े और दंतावली कसी होती है। ऋ. में घनु का रूप हनु होगया है। हनु के अर्थभ्रम के कारण हनुमान की ठुड्डी को कुछ आगे की ओर निकला दिखाया जाने लगा। कहें अर्थ की गड़बड़ी कला में भी गड़बड़ी पैदा करती है। देवदाणी में इसका अर्थ था ‘असाधारण मजबूत जबड़ों वाला। ऋ. हनुमान का प्रयोग इन्द्र के लिए हुआ है परन्तु एक स्थल पर फौलादी हनु का प्रयोग सविता के लिए भी हुआ हैः
अयोहनुर्यजतो मन्द्रजिह्व आ दाषुषे सुवति भूरि वामम् ।। 6.71.4
एक स्थल पर इन्द्र के अद्भुत हनु को आकाश तक उठा हुआ दिखाया गया है, जिससे लगता है कि इसमें ऊपरी अस्थि और दन्तावली भी शामिल थीः
अरुतहनुरद्भुतं न रजः ।। 10.105.7
इसकी पुष्टि हनु के द्विवचन प्रयोगों से भी होता है। प्रचंड अग्नि की दहकती लपटों के कारण उसे नाना भाँति के जबड़ों से जंगल को चबाते दिखाया गया हैः
नाना हनू विभृते सं भरेते असिन्वती बप्सती भूर्यत्तः ।। 10.79.1
शत्रुओं का मुँह (जबड़ा) तोड़ने का काम वैदिक काल से जारी हैः
वि रक्षः वि मृधः जहि वि वृत्रस्य हनू रुज ।…10.152.3
हनुमान के चरित्र के निर्माण में इन्द्र और मरुद्गण की कितनी निर्णायक भूमिका है इस पर रामकथा के अधिकारी विद्वानों ने भी कभी नहीं दिया। यदि वह इन दोनों के पुत्र (पवनसुत और वृषाकपि) तो इसका कारण यह है कि उनकी उद्भावना, व्यक्तित्व के निर्माण और चरित्र निर्माण में इनकी हुी विशेषताओं का संयोजन है। हम प्रस्तुत संदर्भ में मरुतों की चर्चा नही कर सकते पर इन्द्र के लक्षणों की बात तो कर ही सकते हैंः
आ ते हनू हरिवः शूर शिप्रे रुहत्सोमो न पर्वतस्य पृष्ठे ।… 5.36.2
वक्त्र
वक्त्र को देववाणी में बक या बोक कहते थे जिसका अर्थ मुंह होता था, इसकी एक लोरी के – ओक्का बोक्का तीन तलोक्का ..- के सन्दर्भ में कुछ विस्तार से चर्चा (आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता, 1973) में की है, परन्तु आज से पहले मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया था कि बोक का संबन्ध वक्त्र से़, वाक्य से, बां. के बोका और हिं. के बकवास, भो. के बउक, बउकड़, से भी हो सकता है। भोजपुरी का एक बोक्का या बोक्का भर – मुंह में एक बार में जितना भरा जा सके। इसी से इसका क्रियारूप ‘भकोसल’ बना है, जम कि ‘भकुआइल’ – निर्वाक हो जाना का आशय खाने से हटकर बोलने की ओर है। यदि आपको मेरे कुछ कथन विस्मयकारी और हत्प्रभ करने वाले लगते हैं तो इस अनुभूति से सबसे पहले मुझे गुजरना होता है। लिखना आरंभ करने से पहले मुझे स्वयं उनका ज्ञान तो दूर आभास तक नहीं होता।
बोक या बक देववाणी में उस बोली से लिया गया था जिसका सबसे गहरा प्रभाव तेलुगू पर पड़ा है। संभवतः यही ‘वाय्’ – मुंह के रूप में तमिल में सुरक्षित है, पर इसका अर्थ केवल यह कि तमिल भाषा की निर्माण-प्रक्रिया में उस बोली की भी भूमिका थी जिसका यह शब्द था। ‘बक’ का सारस्वत प्रदेश में पहले ‘वक्’ हुआ और फिर इसे ‘वक्त्र’ के रूप मेो अपनाया गया लगता है। परन्तु ‘वाक्’, ‘वचन’ ऋ.’वोचे’ (मा शपन्तं प्रति वोचे देवयन्तम्) आदि में पुराना रूप झलकता रहा।
ठुड्डी/ठोढ़ी
ठोढ़ी पक्षी के ठोर का उपमा में मनुष्य की ठुड्डी के लिए प्रयोग का परिणाम है, जिसे संस्कृत में त्रोट बना लिया गया। इसका मूल नामकरण कुतरने से है। इसी के सं. का ‘त्रुटि’ निकला है। चूहे बिल्ली की कहानी में