#आइए_शब्दों_से_खेलें (11)
हम जीभ के बारे में और कुछ जानते हो या नहीं यह अवश्य जानते हैं कि देवों के पास मुंह था और उसमें जबान भी थी। अपनी जबान को जीभ कहते थे। मुझसे गलती हो गई। भोजपुरी में जीभ, जीभि बोली जाती है। इसका एक दूसरा रूप जिभ्भा है जो जीभ के आकार की किसी दूसरी वस्तु के लिए प्रयोग में आता रहा है। हमारा अनुमान है देववाणी में जीभ का उच्चारण जिभ्भ के रूप में किया जाता रहा होगा। जीभ का जिह्वा में बदलना बहुत रोचक है। पश्चिमी हिंदी में भी घोष महाप्राण ध्वनियों की सघोषता और महाप्राणता का विच्छेदन कर लिया जाता है। इस तरह ‘घन’ ‘गहन’ में बदल जाता है। इसी न्याय से जीभ का जिब्ह >जिव्ह बना जो जिह्वा में बदल गया। इसका एक रूप जुह्वा भी था। लाक्षणिक प्रयोगों में जिह्वा का प्रयोग आग की लपट के लिए भी किया जाता था और दीए की लौ के लिए भी। पत्थर को तोड़ने के लिए नीचे आग जलाते हैं उस की गर्मी से आसपास की चट्टानों से तापमान में अंतर के कारण अदृश्य दरार आ जाती है जिससे तोड़ने में आसानी होती है यह यह युक्ति ऋग वैदिक काल से चली आ रही है अग्नि के बारे में कहा गया है वह अपनी जिह्वा से पत्थर को तोड़ देती है -दृषदं जिह्वया वधीत। इसी तरह वह स्रुवा जिससे आग में घी डालते थे उसे भी जिह्वा वह कहते थे। इस तर्कश्रृंखला को समझने के लिए जरा सायण की एक व्याख्या पर नजर डालेंः वह लिखते हैं की जुह्वा जिह्वा है जुह्वा (1.61.5) जिह्वया, जुहूभिः (1.58.4) जिह्वाभिः फिर बताते हैं जुह्वा (2.10.6) हूयतेऽस्यामिति जुहूर्ज्वाला पात्रविशेषो वा; जुह्वा (3.31.3) ज्वालाभिः इससें हवन करते हैं इसलिए इसे जुह्वा कहते हैं , जुह्वा एक पात्र है, जुह्वा का अर्थ ज्वाला है, फिर लिखते हैं जुह्वाम का अर्थ विधि विधान से अर्पित करना यात्रा करना है जुह्वाम (1.110.6) आ जुह्वाम मर्यादायामाकारः यथाशास्त्रं प्रयच्छाम, जुहोत (3.59.1) प्रयच्छ,और फिर आता है पुकार या आह्वान से इसका संबंध जुहुरे (5.19.2) जुहुविरे, आह्वयन्ति, जुहूमसि (1.4.1) आह्वयामः, जुहूरे (1.48.14) आहूतवन्तः, दो विशेष फिर भी चर्चा से रह गए एक है जुहुराणः (1.173.11) कुटिगतिः,(4.17.15) कुटिलं यथा भवति तथा संचरन्, जुहुराणा (8.26.5) कुटिलां, कर्मविघ्नकारिणां, जुहूर्थाः (7.1.19) हिंसीः, (1.76.5) स्रुचा,
जिह्वा से इनका क्या संबंध है, इत अर्थ इसमें कैसे समा गए. जिह्वा ह्वा, हव, ह्वान, हवि, जुहा, जिह्म, जुहू, जहि आदि में कैसे बदली और कैसे उसमें नए अर्थ का संचार होता गया इस तर्क को यदि हम समझ सकते हैं तो संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया समझने में कुछ आसानी हो सकती है, परंतु यह ध्यान रखना होगा यह किसी योजना के अंतर्गत एक ही समय में नहीं किया गया अपितु यह रूपगत अंतर और अर्थ विस्तार कई हजार साल के दौरान घटित हुआ है। हम देख आए हैं जीभ का भ कैसे बह और ह्व मैं बदलता है.। बोलने के लिए जिह्वा का प्रयोग किया जाता है इसलिए उसका अर्थ विस्तार हव, हवन, ह्वान, और हवि मैं हुआ इन सभी का उपहार पुकार, बुलाना, आवाज देना, आदि में हुआ।
फिर देवों को बुलाने के लिए जिस कर्मकांडी विधान का पालन किया जाता था वह स्वयं प्राचीन सामाजिक यथार्थ का हिस्सा रहा है। आहारसंग्रह काल में भटके हुए लोगों को परिजन अपनी स्थिति बताने के लिए आग जलाकर धुँआ पैदा करते थे। इस तरह काफी दूर तक संदेश भेजा जाता था। उसी का विस्तार कर्मकांड में हुआ। देवों को भुलाने के लिए धुआं पैदा करने के लिए जो आग जलाई जाती थी उस ज्वाला का भी नाम पड़ा जुहू। वह सामग्री जो आगमें अपेक्षाकृत सूक्ष्म और अधिक से अधिक ऊंचाई तक उठने वाले धूम पथ तैयार करने के लिए उसमें डाली जाती थी उसे भी हवन सामग्री हवि कहा गया। शब्दतः हवि और हवन पुकार ही थे। अग्नि को दूत ही नहीं कहा गया, वह्नि भी कहा गया। दो कारण थे। एक यह कि अग्नि देवों के प्राप्य यज्ञभाग को देवों तक पहुंचाते हैं, वहन करते हैं। दूसरा कि वह देवों को लेकर आते है – स देवान् एह वक्षति। एह वक्षति – इह आवहति। इस तरह एक ओर तो उसी मूल से आहवति, आह्वयति या आह्वान के लिए शब्द गढ़े गए, दूसरी ओर वहन, आवहन, परिवहन, वाहन, (vehere, vehicle) आदि के लिए शब्दावली विकसित हुई। ध्यान रहे, गढ़ी नहीं गई, विकसित हुई।
जिह्वा लचीली होती है, टेढ़ी होती है, मुड़ जाती है, इससे एक ओर तो इसमें कुटिलता का ओरोपण हुआ, दूसरी ओर कुटिलता के लिए एक नई संज्ञा ‘जिह्म’ पैदा हुई। इस तरह हम पाते हैं कि ऊपर के सभी रूपो आशयों का एक तार्किक आधार है और इन शब्दों का आथय समझने में हमें आयास नहीं करना पड़ता, न ही ऐसे प्रयोगों से भाषा काप्रवाह बाधित दोता। हमारे लिए खास बात यह कि ये सभी शब्द देववाणी की जीभ से निकले हैं।