Post – 2018-06-16

हम जानते हैं आकाश छूने वाले वृक्ष जमीन से पैदा होते हैं और असंख्य जड़ों से अपना पोषण ग्रहण करते हैं, और संतुलन बनाए रखते हैं. मनुष्य की अपनी निर्मितियों की नींव जमीन में होती है भले ही आकाश छूने की कोशिश करें। प्रकृति में कोई भी चीज ना तो शुद्ध होती है और ना ही परिपक्व। यह दोनों काम मनुष्य स्वयं करता है जिसे हम संस्करण और प्रसंस्करण कहते हैं। संस्कृत, जैसा कि इसका नाम ही है, इसी तरह की एक साधारण सी परंतु अपनी जमीन से जुड़ी हुई भाषा के क्रमिक परिष्कार का अंतिम रूप है जो समाज से इतना कट जाती है विद्वान अपने को कम से कम लोगों के लिए बोधगम्य बनाने पर गर्व करते हैं। भारत में दुनिया के महानतम भाषा चिंतक पैदा किए परंतु किसी तरह का पूर्वाग्रह महान से महान प्रतिभा के मार्ग में कितनी बाधक होती है यह इस बात से समझा जा सकता है उनका विचार था बोलचाल की भाषाएं संस्कृत तद्भवीकरण या अपभ्रंशीकरण से पैदा हुई है। अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ है नीचे गिरना। प्राकृत शब्द में यह नीहित था कि यह प्रकृतिप्रदत्त भाषा है, और कुछ विद्वान बहुत दृढ़ता से यह मानते थे कि संस्कृत पैदा हुई है। परंतु हमें जो प्राकृत साहित्य उपलब्ध है, वह संस्कृत कतिपय लौकिक ध्वनि प्रवृतियों के अनुसार रूपांतरण है जिसमें मामूली अपवादों को छोड़कर संस्कृत के व्याकरण का भी अनुगमन किया गया है इसलिए, मुख्यधारा में यह विश्वास बना रहा संस्कृत ही प्रकृति है और इसी से दूसरी बोलियों का जन्म हुआ है। यह एक सत्य है संस्कृत के उत्थान के बाद अमूर्त भावों, विचारों और संकल्पनाओं के लिए बोलियों में भी ISI की तकनीकी शब्दावली का अपनी अपनी ध्वनि प्रवृत्ति के अनुसार ग्रहण किया जाता रहा है जिससे भी इस भ्रम को समर्थन मिलता है कि बोलियां संस्कृत के अपभ्रशीकरण से ही पैदा हुई हैं।
इन विचारों को बार बार पढ़ते-सुनते, इन्हीं के अनुसार शोध कार्य करते हुए मनस्वी विद्वान और पाठक भी यह बार-बार समझाने के बाद भी की मानक भाषाएं प्रकृति प्रदत्त नहीं है, संस्कृत है, बुद्धि से मान भी लेते हैं पर हृदय से स्वीकार नहीं कर पाते। हमने बर/बार से वर/वार मैं रूपांतरण के कारण और उदाहरण देते हुए इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया परंतु संस्कृत संस्कारों में पले हुए विद्वानों को उसके विरोध में कुछ न सूझने की स्थिति में भी इसे सत्य मान पाना कठिन होता है। अपनी मान्यता के बचाव में वे यह दलील तैयार कर लेते हैं एक शब्द से क्या होता है या उचित शब्दों से क्या होता है। ऐसी ही दलील मुझे आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता पर राम शरण शर्मा से सुनने को मिली थी। संस्कृत मित्रों की चुप्पी से भी ऐसा ही प्रतीत होता है। अतः हम प्रक्रिया को स्पष्ट करने की कोशिश करेंगे जिससे देववाणी संस्कृत में बदली थी।