Post – 2018-06-10

काव्य प्रयोग

मैं यहां बहुत संक्षेप में अपनी बात कहने का प्रयत्न करूंगा। श्री अरविंद ने भावी कविता के विषय में कुछ विचार रखे थे जो उनके देहावसान के बाद धर्मयुग में प्रकाशित हुए थे। इसमें उन्होंने यह आशा व्यक्त की थी कि भविष्य में कविता उस ऊंचाई पर पहुंच सकती है जो ऋग्वेद में पाई जाती है। यह अपने आप में वैदिक कविता की अर्थगर्भिता और सौंदर्य बोध पर एक सार्थक टिप्पणी है।

इससे पहले छन्द पर कवियों के प्रयोगों के प्रसंग में, प्रचलित छंद में कुछ काट-ब्यौत करने की बात की थी। परंतु इस प्रयोग का एक पक्ष शब्दलाघव से जुड़ा है। ऐसा कवि उसी बात को कम से कम शब्दों में अधिक प्रभावशाली ढंग से कहने का दावा भी करता था। इसका सबसे अच्छा उदाहरण एकपदा विराट हैः

उरौ देवा अनिबाधे स्याम। 5.42.17

इस छोटी सी ऋचा का अर्थ समझने के लिए हमें उन व्यापारिक सार्थों की चिंता को समझना होगा जो जंगलों झाड़-झंखाड़ों या उबड़ खाबड़ इलाकों से हो कर गुजरते थे घबराए रहते कि कहीं रात बिताने के लिए खुली जगह ही ना मिले या ऐसा इलाका मिल जाए जहां उपद्रवी लोगों की बस्ती हो, माल और जान के लिए खतरा हो। पंक्ति का अर्थ है हे भगवान, हमें खुली जगह मिले और किसी तरह की बाधा न उपस्थित हो।

इसी भाव बोध की एक दूसरी ऋचा हैः
आ वां सुम्ने वरिमनत्सूरिभिः ष्याम् ।। 6.63.11
तुम्हारी कृपा से हम खुली जगह में शांति से अपने स्वजनों के साथ रहें।

द्विपदाविराट की यह ऋचाछ

तपन्ति शत्रुं स्वर्ण भूमा महासेनासो अमेभिरेषाम् ।। 7.34.19
विशाल सेनाएं रखने वाले अपनी प्रबलता शत्रुओं को उसी तरह दग्ध करते हैं जैसे तपता हुआ सूर्य धरती को।

ऋग्वेद की ऋचाएं स्वतंत्र कविताएं हैं जिनको सूक्तों में संकलित किया गया है। प्रत्येक ऋचा दोहों, चौपाइयों यह उर्दू के शेरों की तरह अपनी बात पूरी तरह कह लेती है। एक विषय या केंद्रीय भावभूमि से जुड़े होने के कारण उन्हें एक सूक्त में रखा गया है। पूरी कविता एक पंक्ति की भी हो सकती है यह पहले मेरी समझ में नहीं आता था। पहले इस और भी ध्यान नहीं गया था के सूत्र कथन का विकास एकपदा विराट से हुआ हो सकता है।
यह निर्विवाद है किसी बात को प्रभावशाली ढंग से कम से कम शब्दों में कह लेने की कोशिश ऋग्वैदिक काव्य भाषा का प्रधान गुण है। कुछ ही शब्दों में वर्ण्य विषय या कथ्य को मूर्त करने की क्षमता चकित करने वाली है ।

कुश-कास से जमीन को साफ करने के लिए आग का प्रयोग किया जाता था ऐसे ही एक दृश्य का चित्र एक ऋचा में हैः

यदुद्वतो निवतो यासि बप्सत्पृथगेषि प्रगर्धिनीव सेना ।
यदा ते वातो अनुवाति शोचिर्वप्तेव श्मश्रु वपसि प्र भूम ।। 10.142.4

आग ऊंची नीची भूमि पर झाड़-झंखाड़ का भक्षण करती हुई हुई आगे रही है और इसी बीच मुख्य धारा से अलग होकर बढ़कर जलाने लगती है, जैसे सेना का अग्रिम दस्ता हो।और इसके साथ प्रवाहित होने वाली हवा का योग मिलता है तो एक झटके में दूर तक इस तरह सफाया हो जाता है मानो नाई ने धरती की दाढ़ी का सफाया कर दिया हो।
इसमें सूक्ष्म अन्वीक्षण के साथ पूरे चित्र को एक ऋचा में चित्रित करने की क्षमता और भाषा पर ऐसा अधिकार कितने कवियों में हो सकता है, इस पर कोई टिप्पणी आवश्यक नहीं।

हम जानते हैं कि अपने विस्तार के क्रम में हड़प्पा सभ्यता का अंतर्देशीय प्रसार हुआ था और अंतर्राष्ट्रीय शब्द का यदि हम कुछ रियायत के साथ प्रयोग करें तो अंतर्राष्ट्रीय प्रसार भी हुआ था। अंतर्देशीय प्रसार के इसी क्रम में इसका विस्तार सौराष्ट्र और कच्छ में हुआ था। यह काम एक झटके में आक्रमणकारियों जैसी तैयारी के साथ नहीं हुआ था बल्कि धीरे धीरे जमाव बढ़ता चला गया था। मुख्य भूमि समुद्र तट तक पहुंचने की यात्रा का एक ऋचा में हुआ में हुआ है।

इमं विधन्तो अपां सधस्थे पशुं न नष्टं पदैरनु ग्मन् । 10.46.2

जैसे चोरी गए हुए पशु को खोजने के लिए उसके पांवों का निशान देखते हुए उस तक पहुंचा जाता है उसी तरह अग्नि परिचर्या करते हुए पहले के जाने वालों के राख आदि को देखते हुए सही रकस्वेता पहचानते हुए वे समुद्रतट तक पहुंचे। इस प्रसंग में याद दिला दें कि पशुओं की चोरी करने वाले, प्रायः स्वयं उनके मालिक के पास सहानुभूति जताने के बहाने पहुंच जाते थे और खोज कर लाने का वादा भी करते थे परंतु इसके लिए उससे जो फीस वसूल करते थे उसे पनहा कहा जाता अर्थात पांव के निशान निहारते हुए खोए हुए पशु तक पहुंचने की फीस।

एक गायत्री छंद में उसकी पहली पंक्ति में इद्र का वर्णन हैः

तुविग्रीवो वपोदरः सुबाहुरन्धसो मदे ।
इन्द्रो वृत्राणि जिघ्नते ।। 8.17.8

मोटी गर्दन, फूले हुए पेट, कसी हुई भुजाओं वाले इंद्र सोमरस से उल्लसित होकर वृत्रों का संहार करते हैं।

यदि निकली हुई तोंद के कारण इंद्र के बलशाली होने पर संदेह हो भीम के लिए प्रयुक्त वृकोदर पर ध्यान दे सकते हैं और जापान के सूमो
पहलवानों की शक्ल को देख सकते हैं। आदर्श मल्लयोद्धा की यही प्राचीन छवि थी, और लगोटी का भी वही रूप था जो सूमो पहलवानों ने बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ अपनाया था।
कवियों की उद्भावनाएं, उपमाएं, रूपक इतने अनूठे हैं कि कालिदास, वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, तुलसीदास सभी उनके अनुकरण की कोशिश करते हैं और कभी-कभी उनके समकक्ष पहुंच पाते हैं।
उनकी उपमाओं में इतनी जीवंतता है कि उनके आधार पर देवों के चित्र ही नहीं, बल्कि कथाएं भी गढी जाती रहीं और इनका प्रसार अपने समय की दूसरी सभ्यताओं तक नहीं हुआ। मैं इसको मात्र एक उदाहरण से प्रस्तुत करना चाहूंगा जिससे आप सभी परिचित हैं परंतु यह नहीं जानते इसका स्रोत क्या है और तार्किक संगति क्या है अज्ञान के कारण इसकी सम्मोहकता और बढ़ जाती है। यह है उसे काल्पनिक पक्षी की कहानी, जो अमर है और उसकी अमरता इस रहस्य मे छिपी है कि यह जलकर भस्म हो जाता है और फिर अपनी ही राख से अग्नि-विहंग बनकर उड़ चलता है। इसे हम फीनिक्स के नाम से जानते हैं, परंतु यह नहीं जानते, कि यह आग से जलकर बुझने उसकी किसी चिंगारी से पुनः प्रज्वलित हो जाने का रूपक है जो ऋग्वेद में अनेक रूपों में आता है। इनमें आग की लपटों को आसमान तक पहुंचने की उसकी क्षमता को पक्षी के उड़ान भरने के रूप में बार-बार चित्रित किया गया हैः
वया इदग्ने अग्नयस्ते अन्ये त्वे विश्वे अमृता मादयन्ते ।
वैश्वानर नाभिरसि क्षितीनां स्थूणेव जनां उपमिद् ययन्थ ।। 1.59.1

साकं हि शुचिनायो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति ।
वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः ।। 2.35.8

यो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति ।
वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः ।। 2.35.8

अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् ।
यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ।। 5.1.1

समिधा यस्त आहुतिं निशितिं मत्र्यो नशत् ।
वयावन्त स पुष्यति क्षयमग्ने शतायुषम् ।। 6.2.5

वैश्वानरस्य विमितानि चक्षसा सानूनि दिवो अमृतस्य केतुना ।
तस्येदु विश्वा भुवनाधि मूर्धनि वया इव रुरुहुः सप्त विस्रुहः ।। 6.7.6

यस्य ते अग्ने अन्ये अग्नय उपक्षितो वयाइव ।
विपो न द्युम्ना नि युवे जनानां तव क्षत्राणि वर्धयन् ।। 8.19.33

अच्छा होता यदि मैं इन ऋचाओं का हिंदी अनुवाद भी देता। परंतु समय नहीं है। साथ ही एक अन्य रूपक की ओर ध्यान दिलाने का प्रलोभन रोक नहीं पा रहा। यह है हिरण्यकशिपु के वध के लिए पत्थर के खंभे से नृसिंह का अवतार। अग्नि की तुलना सिंह से की गई हैः
रक्षो अग्निमशुषं तूर्वयाणं सिंहो न दमे अपांसि वस्तोः ।। 1.174.3
पत्थर पर चोट करने पर उसे चिंगारी निकलती है, पत्थर के कण-कण में अग्नि विद्यमान है।