Post – 2018-05-25

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया((4)

समस्या वहां से आरंभ होती है जहां स्वर प्रधान बोली का व्यंजन प्रधान बोली के क्षेत्र में प्रवेश होता है। अपनी सामुदायिक सांस्कृतिक और भाषाई पहचान को सुरक्षित रखने के लिए सभी समुदाय यथासंभव सदा से प्रयत्नशील रहे हैं । यही बात पूर्व से सारस्वत क्षेत्र में पहुंचे दल और उसके वंशधरों के विषय में भी सच है । अन्यथा अजन्त शब्द बचे नहीं रह सकते थे। बचे रहे और आज तक बचे हैं यह इसी का परिणाम है।

अपनी निजता की रक्षा के समस्त प्रयत्न के बाद भी सांस्कृतिक मुठभेड़ के बाद दोनों पक्षों मेंसे कोई भी पहले जैसा नहीं रह जाता।

इस क्षेत्र में स्वर लोप की प्रवृत्ति आज भी बची रह गई है । स्वर लोप की क्षतिपूर्ति व्यंजन के आगम से की जाती है। मैंने का ‘ऐ’ निकलता है तो व्यंजन सावर्ण्य से ‘मन्ने’ बन जाता है। स्वरान्त शब्दों के उच्चारण को किसी व्यंजन अथवा अर्धव्यंजन (य, व, र) के अन्तःसर्ग से सुकर बना लिया जाता है यद्यपि पूर्वी आग्रह के कारण कुछ मामलों में पुराना रूप बना जाता है । सत सत्य बन जाता है और एक नए रूप श्रत् का उदय होता है जो श्रद्धा में परिणत हो जाता है ।

हम यह नहीं कह सकते कि मूल बोली में हलंत ध्वनियों का उच्चारण हो ही नहीं सकता था। सचाई यह है की प्राकृतिक ध्वनियों में आकस्मिक क्रियाओं का नाद हलंत की मांग करता है- पट्, फट्, धड़्, आदि ध्वनियां हलंत सुनाई देती और परन्तु वे इनका उच्चारण करते समय वआकस्मिकता का आभास कराने के लिए हलन्त के बाद उस वर्ण का अजन्त या उसी व्यंजन को स्वरयुक्त बना कर उसमें जोड़ कर – पट्ट, फट्ट, धड़्ड़ – अपनी समस्या हल कर लिया करते थे, यद्यपि शब्दनिर्माण के समय मिथ (सावर्ण्यता) या आवर्तिता की आवश्यकता नहीं पड़ती थी – पटकना, फटकना, धड़कना।

पश्चिमी बोली में ऐसी स्थितियों में लिखते तो पटकना, फटकना, धड़कना हैं पर बोलते पट्कना, फट्कना, धड़्कना। जिसे उपयुक्त चिन्ह के अभाव में हमने हलन्त दिखाया है उसका सही संकेत हलन्त की जगह अधोरेखा लगाना हो सकता है, क्योंकि ये अर्धमात्रिक है। इसे खटराग और खट्राग के उच्चारण के अन्तर से समझा जा सकता है। पर इससे बोलने वाले को हलन्त उच्चारण की छूट मिल जाती है।

व्यंजनप्रियता के प्रभाव से दूसरे स्वर भी अर्धमात्रिक हो जाते हैं अर्थात् अन्तिम दीर्घ स्वर ह्रस्व में और ह्रस्व अर्धस्वर में बदल जाता है। इस प्रवृत्ति को स्वरभक्ति कहा गया है। यहां भक्ति का अर्थ बंटना या आधा रह जाना है (द्राघीयसी सार्धमात्रा)। यह सूत्र ऋक्प्रातिशाख्य का है, कहें व्यंजन प्रधान भाषाक्षेत्र का दबाव वैदिक काल से लेकर आज तक बना है। ध्वनियां कितनी आग्रही होती हैं यह इसका प्रमाण है।

यह एक विचित्र स्थिति है कि हम लिखते पूर्वी हिंदी की अपेक्षाओं के अनुसार हैं और शुद्ध उच्चारण के नाम पर बोलते पश्चिमी हिंदी के तर्ज पर। कहते हैं हिंदी में जो लिखा जाता है ठीक वही पढ़ा जाता है, परंतु यह सही नहीं है। पूर्वी हिंदी का व्यक्ति या दक्षिण भारतीय हिंदी बोलता है तो हमें गाने जैसा इसलिए लगता है कि वह लिखित पाठ का ठीक उसी तरह उच्चारण करता है जबकि पश्चिमी हिंदी क्षेत्र में उच्चारण स्वर भक्ति से प्रभावित रहता है।

संभव है यह भी एक कारण रहा हो जिससे वैदिक पाठ गायन जैसा लगता है। संस्कृत में सही उच्चारण पर विशेष ध्यान देते हुए शुद्ध उच्चारण का ‘शिक्षा’ का एक अलग विधान करना पड़ा। संस्कृत पश्चिमी हिंदी के अनुसार बोली जाती है और इस क्षेत्र का उच्चारण सीखने के लिए पूरब के लोग आया करते थे और उनके उच्चारण की नकल करते हुए दूसरे अपना उच्चारण सुधारा करते थे। परंतु वैदिक पाठ गेय होता था, उच्चारण की पूर्वी अपेक्षाओं के अनुरूप होता था और इसके लिए एक विशेष विधान किया गया था जिसे हम साम कहते हैं।

यदि हम यह समझना चाहते हैं की स्थानीय आबादी की तुलना में पूर्व से आए बहुत थोड़े से लोगों की भाषा इतनी प्रभावशाली कैसे रही कि स्थानीय लोगों को बाहर से आए हुए लोगों की भाषा सीखनी पढ़ रही थी, (भले अपनी ध्वनि गति सीमा के कारण उसका शुद्ध उच्चारण नहीं कर पा रहे थे और इस तरह एक भाषा अनुकूलन चल रहा था)६, जब कि सामान्यतः होता इससे उलट है। बाहर से आने वाले स्थानीय भाषा सीखते हैं। इसका उत्तर यह है कि इस क्षेत्र में कृषि कर्म का प्रारंभ पूरब से आने वालों ने किया था, उन्होंने भूमि की सफाई करके उर्वरा भूमि पर अधिकार कर लिया था और दूसरे उनके सहायक या प्रजा थे अथवा उनका अनुकरण करते हुए स्वयं भी कृषिकर्म की ओर अग्रसर हो रहे थे। कृषिविद्या सीखने के लिए वे स्वयं आगन्तुकों की भाषा सीखने के लिए उद्यत थे।