यशो वै सः
आप ठीक कहते है, सही पाठ ‘रसो वै सः ‘ ही है। पर एक स्थल पर मैंने पढ़ा, पहले उसके सिवा और कुछ था ही नहीं । बेचारा अकेला था। उसके जी में आया वह अपना जनन करे। इसके लिए उसने श्रम किया, तप किया और फिर जब थक कर निढाल होने के साथ पसीना पसीना हो गया अर्थात् उससे जल पैदा हुआ । ‘पजापतिर्वा इदं अग्र आसीत्। एक एव सो अकामयत स्वां प्रजाय इति सो अश्राम्यत् स तपो अतप्यत तस्मात् श्रान्तः तेपानात् आपो असृज्यन्त… ।’ शतपथ ब्रा. 6.1.3.1
मैं यह बात कई तरह से दोहराता रहता हूं कि मेरे पास प्रतिभा नहीं है, प्रतिभा उस ईश्वर में भी नही जिसे मैं सिरजनहार मानता हूँ । हाँ, श्रम करने का संकल्प और तत्परता अवश्य है । जिन लोगों से मेरा परिचय है वे सभी विचारधाराओं के लोग हैं। वे भले मेरे विचारों के कारण कोई भी राय रखें, इससे न तो खिन अनुभव करता हूं न उनसे मेरे विषय में उनके अपने विचार या अपनी विचारधारा बदलने का आग्रह करता हूं। वे मेरे लिए तब तक सम्मान के पात्र , जब तक यह विश्नवास बना रहता है कि वे प्रलोभनों और दबावों से मुक्त होकर अपने ध्येय के प्रति समर्पित हैं । विचार की भिन्नता न केवल मेरे लिए चिंता की बात नहीं है बल्कि उदार और स्वस्थ बौद्धिक पर्यावरण के लिए ज़रूरी है।
मैं केवल एक बात की शिकायत करता हूं, जिस भी विचार या मूल्य दृष्टि से वे जुड़े हों, उसकी गहराई में उतरने का, अपनी प्रतिभा के अनुसार प्रयास और क्षमता के अनुरूप परिश्रम क्यों नहीं करते। यह शिकायत इसलिए कि हमारा बौद्धिक स्तर नारेबाजी की निरंतर बढती उग्रता के अनुपात में ही उठला होता चला गया है और दुसरे देशो पर हमारी निर्भारात्ता बढ़ती चली गई है.
विषय कोई भी हो उसकी गहराई में उतरने के बाद मनुष्य उस टुच्चेपन से मुक्त हो जाता है, जिससे श्रम और कार्यनिष्ठा के अभाव में हो ही नहीं सकता । गहराई में वही उतर सकता है जो काम में ही रस लेने लगस, जिसकी सबसे बड़ी उपलब्धि अधिकाधिक गहराई उतरने की कोशिश बन जाए , बाहर से जीवन निर्वाह की अल्पतम सुवधा के अतिरिक्त कुछ लभ्य हो ही नहीं ।
इसके अभाव में वह चारों ओर उचक्कों की तरह देखता रहता है कि कहां से क्या हासिल किया जा सकता है और उसके जुगाड़ में चिंतक के रूप में ही नहीं व्यक्ति के रुप में भी टुच्चा होता चला जाता है । अल्प से बहु हासिल करने का प्रयत्न सभी अपराधों की जड़ है सभी बेचैनियों की जड़ भी। ऐसा व्यक्ति महान से महान विचारधारा से जुड़कर भी उसमें विकृत ही पैदा करेगा ।
इसलिए मेरी दृष्टि में कार्यनिष्ठा सभी तरह की क्षुद्रताओं से उबरने का एकमात्र उपाय है और इसीलिए मैं दूसरों को, यदि वे आयु में छोटे हुए तो टोकता हूं, बड़े हुए तो आग्रह करता हूं, वे अपनी परेशानी बताएं तो उपाय भी सुझाता हूं वे भले ही इसे मेरी धृष्टता समझें और बुरा मानें, कि वे अपनी संभावना की ऊंचाइयों लक पहुँचने का प्रयत्न करें । मैं कभी कभी मनस्वी समझे जाने वाले मित्रों को बिना नाम लिए झिड़कता भी हूं कि वे अपने बहुमूल्य समय का बहुत बड़ा हिस्सा मसखरेबाजी में बर्बाद कर रहे हैं बिना पूरी जानकारी के मैदान में उतर जा रहे हैं, विचारक की भूमिका से हटकर राजनीतिज्ञों के चाकरों का काम कर रहे हैं, विचार की भाषा छोड़कर आवेग और उद्वेग की भाषा मैं अपनी बात रख रहे हैं, जिसमें उनके पूर्वाग्रह तो पता चलते हैं परंतु उनका तार्किक आधार समझ में नहीं आता।
एक शिकायत यह भी रहती है कि संगठित होने के बाद अधिकांश लोग अपनी आंखों से देखना तक बंद कर देते हैं । सोचना तो बाद की बात है चिंतक समझे जाने वाले लोग तक पढ़ना नहीं जानते। सबसे अधिक शिकायत उनसे रहती है जो किसी व्यक्ति, समाज, सभ्यता या संस्कृति की भाव विभोर होकर सराहना करते हैं या भर्त्सना के लिए केवल विकृतियों की खोज या आविष्कार करते हैं और इसे इतने गर्हित रूप में पेश करते हैं मानो उससे गर्हित कुछ हो ही नहीं, और उन में आपस में इसकी ऐसी होड़ दिखाई देती है मानो किसी अन्य की विकृतियों की खोज उनकी अपनी महिमा का प्रमाण हो।
इसका केवल एक ही कारण दिखाई देता है कि गंदगी में पलने वाले कृमि और कीट अपने आनंद के लिए अपने अनुकूल पर्यावरण की तलाश में रहते हैं और वह मिल जाए तो उतने ही से संतुष्ट हो जाते हैं। नाइट्रोजन में पलने वाले कीड़े ऑक्सीजन से डरते हैं बुराइयों पर पलने वाले लोग अच्छाई से डरते हैं क्योंकि उसमें जीवित नहीं रह सकते । कम से कम मुझे ऐसे लोग जो विकृतियों के अतिरिक्त दूसरी सभी बातों की अनदेखी कर देते हैं गंदगी की तलाश करने वाले कृमियों और कीटों की तरह ही लगते हैं।
सामान्यतः विस्फोटक भाषा से मैं बचने का प्रयत्न करता हूं परंतु कभी कभी वातावरण की शुद्धि के लिए कीटनाशकों का प्रयोग भी जरूरी हो जाता है। वैचारिक स्तर पर निर्भीक विचार और निष्पक्ष आलोचना से अधिक प्रभावकारी कोई दूसरा कृमिनाशक नहीं हो सकता।
परंतु यह अधिकार मैंने इस सोच से अर्जित किया है सभी लोग हमारे देश के नागरिक होने के नाते एक विशेष ढंग से इसके प्रतिनिधि भी हैं। उनकी शक्ल ऊर्जा राष्ट्र की सकल ऊर्जा का दूसरा नाम है और उसकी किसी भी तरह की बर्बादी राष्ट्रीय संपदा की बर्बादी का ही दूसरा नाम है अपने देश की चिंता सामाजिक व्याधि, विकृति, बर्बादी की चिंता काही एक रुप है। यदि आप को अपने ही समाज के किसी हिस्से से घृणा है तो आवयविक सम्बन्ध के कारण अपने आप से भी घिना है । से किसी से घृणा करते हैं तो उन प्रवृत्तियों को बढ़ाने का भी काम करते हैं जिनके कारण आप उनसे घृणा करते हैं।
केवल निंदा और भर्त्सना के लिए की जाने वाली कोई आलोचना आलोचना होती ही नहीं, वह स्वयं लेखक या वक्ता कि पैशुनीवृत्ति की अभिव्यक्ति होती है । आलोचना किसी आलोच्य के सकारात्मक पहलुओं को स्वीकार करते हुए उसकी सीमाओं का उद्घाटन ही हो सकती है इसकी अपेक्षा है आलोच्य के प्रति सहानुभूति और उसकी सीमाओं से ऊपर उठने में उसकी सहायता की चिंता । इसकी जरूरी शर्त है, सही समझ जो केवल तटस्थता की नहीं अपितु परिश्रम और धैर्य की अपेक्षा रखती है , जो काम चोरी करने वालों के वश की बात इसलिए नहीं होती कि ऐसे लोग बौद्धिक ऐयाश होते हैं। बस भर्त्सना की प्रतियोगिता में दूसरों से बाजी मारते हुए अधिक से अधिक प्रशंसा प्राप्त करना चाहते हैं ।
यदि रसो वै सः उनकी सोच है जो तल्लीनता से काम करते हैं और उसी ने उनको आनंद भी आता है बाहर से किसी चीज के लिए अपेक्षा नहीं रह जाती तो यश के पीछे भागते हुए लोगों को अपने काम में रस मिलता ही नही. रस और यश दोनों उन्हें बाहर से चाहिए । यश के पीछे भागने वाले यशो वै सः का भी अर्थ नहीं जानते, क्योंकि अपनी अंतिम परिणति में रसो वै सः यशो वै सः है रूपांतरित हो जाता है ।
इसका एक कारण यह है कि यश का अर्थ भी जल ही है। परंतु यशो वै सः से आरंभ करने वाले जुगाड़ में अपना अधिकतम समय बर्बाद कर देने के कारण अपनी क्षमता के अनुसार अपनी संभाव्यता तक नहीं पहुंच पाते इसलिए बाजे भले बजवा लें, बाजों के शोर के बीच भी वे भीतर से खोखले अनुभव करते हैं । इनके लिए किसी ने टिन ड्रम के मुहावरे का आविष्कार किया था।आवाज की कर्कशता खोखलेपन के अनुपात में होती है। नाल्पे सुखमस्ति । भूमैव सुखम्।
सर्जना का जो चित्र हमने ऊपर रखा है उसमें परमेश्वर भी श्रम से ही, पसीने के बल से ही, एक से बहू और बहुधा होता चला जाता है अपनी प्रतिभा या शक्ति के बल पर हमारा परमेश्वर भी सृजन नहीं करता । उसने आदेश दिया, रोशनी हो रोशनी हो गई यह ऐयाशों का बहुत ताकतवर पर उतना ही डरावना ईश्वर है, यह उस परंपरा की अधूरी समझ का परिणाम अन्यथा उस परंपरा में भी लगातार परिश्रम करता है और सातवें दिन थकने पर उसको भी आराम करने की जरूरत पड़ती है। नकल हुई पर अधूरी रह गई ।
जिन लोगों को भारतीय अतीत में कुछ नहीं मिलता वे उस विरासत से इतना भी ग्रहण कर सकें तो हमारे देश की अधिकांश समस्याएं हंगामे के बिना भी हल हो जाएं। यह याद दिला दें कि श्रम करने वाला व्यक्ति टुच्चा नहीं होता । संकीर्ण नहीं होता । किसी का बुरा नहीं चाहता । जो कुछ करता है वह किसी कमी को पूरा करने के लिए करता है कमी पैदा करने के लिए नहीं करता। उसका क्षेत्र भले कोई हो ।